दिल्ली के नेतृत्व खोज की खोज में मतदाता जागे

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-ः ललित गर्ग:-
एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों को लेकर कुछ चैंकाने वाले आंकडे प्रस्तुत किये हैं, जिससे लोकतंत्र को शुद्ध एवं नैतिक होने की आशा नहीं की जा सकती। इन आंकड़ों में दिल्ली प्रदेश के चुनाव में 51 प्रतिशत उम्मीदवार ऐसे हैं, जो 12वीं कक्षा या उससे भी कम पढ़े हुए हैं। उनकी संख्या 340 है। 44 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके शिक्षा बीए या उससे थोड़ी ज्यादा है। 16 ऐसे भी हैं, जो निरक्षर हैं। वे पढ़ना-लिखना तो दूर की बात है, हस्ताक्षर करने की बजाय हर जगह अंगूठा लगाते हैं। बीस प्रतिशत उम्मीदवार ऐसे हैं, जिनके खिलाफ बकायदा आपराधिक मामले दर्ज हैं। किसी राजनीतिक दल के 51, किसी के 25 और किसी के 20 प्रतिशत उम्मीदवार दागी हैं? भला दागी एवं आपराधिक पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधि किस तरह लोकतंत्र को हांकेंगे, सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
दिल्ली के लोग दिल्ली का नेतृत्व खोज रहे हंै जो सुशासन दे सके, पर अशिक्षित, अनैतिक एवं आपराधिक पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधि कैसा शासन देंगे, यह एक ज्वलंत प्रश्न दिल्ली चुनावों को लेकर खड़ा है। सभी पार्टियां सरकार बनाने का दावा पेश कर रही हैं और अपने को ही विकल्प बता रही हैं तथा मतदाता सोच रहा है कि राज्य में नेतृत्व का निर्णय मेरे मत से ही होगा। इस वक्त मतदाता मालिक बन जाता है और मालिक याचक। बस केवल इसी से लोकतंत्र परिलक्षित है लेकिन जिस तरह के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे है या उतारे गये हैं और चुनाव जीतने के लिये जिस तरह का अराजक माहौल देखने को मिल रहा है, उनसे आदर्श एवं स्वस्थ लोकतंत्र की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? क्योंकि इन चुनावों में सारी मर्यादाएं, प्रक्रियाएं टूट रही है। ये लोग विधायक बनकर क्या गुल खिलाएंगे? कैसा शासन देंगे? क्योंकि चुनाव परिणामों से पहले ही इन्होंने अपना असली रंग दिखाना शुरु कर दिया है। मतदाताओं को नशीले पदार्थ पिछले चुनाव के मुकाबले इतनी बेशर्मी से बड़ी मात्रा में बांटे जा रहे हैं कि उनकी जब्ती इस बार अब तक 21 गुना हो गई है। धन्य है, हमारा लोकतंत्र! धन्य है हमारी चुनाव प्रक्रिया!! धन्य है हमारे राजनीतिक दलों की सत्ता की जायज-नाजायत आकांक्षाएं-अपेक्षाएं!!! जो नेतृत्व स्वतंत्रता प्राप्ति का शस्त्र बना था, वही नेतृत्व जब तक पुनः प्रतिष्ठित नहीं होगी तब तक मत, मतदाता और मतपेटियां सही परिणाम नहीं दे सकेंगी। आज दिल्ली को एक सफल एवं सक्षम नेतृत्व की अपेक्षा है, जो राष्ट्रहीत को सर्वोपरि माने। आज दिल्ली को ऐसे जनप्रतिनिधि चाहिए जो भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराध, महंगाई, बेरोजगारी आदि विकृतियों एवं विसंगतियों से मुक्ति दे।
दिल्ली के मतदाता को जागना होगा, क्योंकि मतदाता विवेक से कम, सहज वृति से ज्यादा परिचालित होता है। इसका अभिप्रायः यह है कि मतदाता को लोकतंत्र का प्रशिक्षण बिल्कुल नहीं हुआ। सबसेे बड़ी जरूरत है कि मतदाता जागे, उसे लोकतंत्र का प्रशिक्षण मिले। हमें किसी पार्टी विशेष का विकल्प नहीं खोजना है। किसी व्यक्ति विशेष का विकल्प भी नहीं खोजना है। विकल्प तो खोजना है भ्रष्टाचार का, अकुशलता का, राजनीतिक अपराधों को, प्रदूषण का, भीड़तंत्र का, गरीबी के सन्नाटे का, महंगाई का। इसके लिये मतदाता को अपने मत का उपयोग सोच-समझकर करना होगा। विधायक और सांसद बनने के लिए कोई न्यूनतम योग्यता हमारे लोकतंत्र में निश्चित नहीं है, जबकि कानून बनाने वाले, शासन चलाने वाले एवं आमजनता का भाग्य रचने वाले जन-प्रतिनिधियों की न्यूनमत योग्यता तो निश्चित होनी ही चाहिए। चुनाव आयोग को इसका विधान बनाना चाहिए। हमारी राजनीतिक पार्टियां में भी ऐसी सोच विकसित होना चाहिए। दिल्ली राजनीति विसंगतियों एवं विषमताओं से ग्रस्त है। राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की जो सूची सामने आई है उसमें अपराध, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, घोटाले के शीर्ष पर आसीन उम्मीदवार मैदान में हैं। कब राजनीतिक दल ईमानदार और पढ़े-लिखे, योग्य लोगों को उम्मीदवार बनाने को तत्पर होंगे, ऐसी लोकतंत्र को जीवंत बनाने एवं उसे शुद्ध सांसें देने की अवधारणा अभी संदिग्ध ही दिखाई देती है। लोकतंत्र शुद्धि के लिये हमें सम्पूर्ण क्रांति की नहीं, सतत क्रांति की आवश्यकता है।
नये-नये नेतृत्व उभर रहे हैं लेकिन सभी ने देश-सेवा के स्थान पर स्व-सेवा एवं निजी स्वार्थों में ही एक सुख मान रखा है। आधुनिक युग में नैतिकता जितनी जरूरी मूल्य हो गई है उसके चरितार्थ होने की सम्भावनाओं को उतना ही कठिन कर दिया गया है। ऐसा लगता है मानो ऐसे तत्व पूरी तरह छा गए हैं कि जो खाओ, पीओ, मौज करो के मूल्यों पर राजनीति करना चाहते हैं। वे मानते हैं कि सब कुछ हमारा है। हम ही सभी चीजों के मापदण्ड हंै। हमें लूटपाट करने का पूरा अधिकार है। हम समाज में, राष्ट्र में, संतुलन व संयम नहीं रहने देंगे। यही आधुनिक राजनीति की सभ्यता का घोषणा पत्र है, जिस पर लगता है कि हम सभी ने हस्ताक्षर किये हैं। भला इन स्थितियों के बीच वास्तविक जीत कैसे हासिल हो? आखिर जीत तो हमेशा सत्य की ही होती है और सत्य इन तथाकथित राजनीतिक दलों के पास नहीं है। महाभारत युद्ध में भी तो ऐसा ही परिदृश्य था। कौरवों की तरफ से सेनापति की बागडोर आचार्य द्रोण ने संभाल ली थी। एक दिन शाम के समय दुर्योधन आचार्य पर बड़े क्रोधित होकर बोले -‘‘गुरुवर कहां गया आपका शौर्य और तेज? अर्जुन तो हमारा लगता है समूल नाश कर देगा। आप के तीरों में जंग क्यों लग गई। बात क्या है?’’ इस पर आचार्य द्रोण ने कहा, ‘‘दुर्योधन मेरी बात ध्यान से सुन। हमारा जीवन इधर ऐश्वर्य में गुजरा है। मैंनें गुरुकुल के चलते स्वयं ‘गुरु’ की मर्यादा का हनन किया है। हम सब राग रंग में व्यस्त रहे हैं। सुविधाभोगी हो गए हैं, पर अर्जुन के साथ वह बात नहीं। उसे लाक्षागृह में जलना पड़ा है, उसकी आंखों के सामने द्रौपदी को नग्न करने का दुःसाहस किया गया है, उसे दर-दर भटकना पड़ा है, उसके बेटे को सारे महारथियों ने घेर कर मार डाला है, विराट नगर में उसे नपुंसकों की तरह दिन गुजारने को मजबूर होना पड़ा। अतः उसके वाणों में तेज होगा कि तुम्हारे वाणों में, यह निर्णय तुम स्वयं कर लो। दुर्योधन वापस चला गया। लगभग यही स्थिति आज के राजनीतिक दलों के सम्मुख खड़ी है। किसी भी राजनीतिक दल के पास आदर्श चेहरा नहीं है, कोई पवित्र एजेंडा नहीं है, किसी के पास बांटने को रोशनी के टुकड़े नहीं हैं,जो नया आलोक दे सकें।
मुझे आचार्य श्री तुलसी के नेतृत्व में अणुव्रत आन्दोलन के बेनर तले दो दशक पूर्व आयोजित किये गये चुनाव शुद्धि अभियान का स्मरण हो रहा है जिसका हार्द था कि स्वस्थ लोकतंत्र का सही विकल्प यही है कि हम ईमानदार, चरित्रवान और जाति-सम्प्रदाय से  नहीं बंधे हुए व्यक्ति को अपना मत दें। सही चयन से ही राष्ट्र का सही निर्माण होगा। ऐसा ही हमने भारतीय मतदाता संगठन के नेतृत्व में भी किया। हमारा अनुभव रहा कि धृतराष्ट्र की आंखों में झांक कर देखने का प्रयास करेंगे तो वहां शून्य के सिवा कुछ भी नजर नहीं आयेगा। इसलिए हे मतदाता प्रभु! जागो! ऐसी रोशनी का अवतरण करो जो दुर्योधनों के दुष्टों को नंगा करें और अर्जुन के नेक इरादों से जन-जन को प्रेरित करें और दिल्ली को आदर्श एवं स्वस्थ नेतृत्व प्रदान करें।

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  1. ललित गर्ग जी द्वारा राजनीतिक निबंध, दिल्ली के नेतृत्व खोज की खोज में मतदाता जागे, पढ़ ह्रदय-पटल पर चलचित्र की भांति विचित्र दृश्य व फिर प्रश्न उभर कर आए हैं| दृश्य हैं भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, एवं राष्ट्र के अन्य प्रमुख महाविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों के सहस्रों स्नातकों द्वारा अंग्रेजी-भाषा में शिक्षा प्राप्त कर उनका विदेशों में प्रस्थान होना| कल समाचार पत्रों में ऑस्ट्रेलिया के कॉमनवेल्थ वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान संगठन में कार्यरत भारतीय मूल के वैज्ञानिक, प्राध्यापक एस. एस. वासन, का सराहनीय उल्लेख होना, जिन्होंने तत्काल शोध द्वारा कोरोनावायरस की रोकथाम हेतु टीका निर्माण कर पाने की दिशा में कदम उठाया है|

    अब सोचता हूँ कि यदि ऐसा क्रम चलता रहा तो दिल्ली प्रदेश के चुनाव में 51 प्रतिशत 12वीं कक्षा या उससे भी कम पढ़े हुए उम्मीदवार देख आज हमें क्योंकर अचम्भा हो रहा है? प्रश्न यह भी है की ऐसी स्थिति में विद्यामूलक शिक्षण क्योंकर आवश्यक है जब आजीविका के अतिरिक्त जीवन में हमारे अच्छे बुरे स्वभाव व अनुभव पर इस शिक्षण का कम ही प्रभाव है? आज प्रश्न है कि क्या हमें भीड़-तंत्र चाहिए—नेहरु की कांग्रेस और राजनीति में उनके सहायक दलों ने सदैव शासन के नाम भीड़-नियंत्रण रचा हुआ था—अथवा युगपुरुष मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय शासन जिसके अंतर्गत राष्ट्र के विकास में योगदान देते हम स्वयं अपना भविष्य बना पाएं? अवश्य ही आज दिल्ली के नेतृत्व खोज की खोज राष्ट्र-वादी राजनीतिक दल भाजपा में समाप्त हुई दिखाई देती है|

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