‘व्योमकेश दरवेश’ तीन सुंदर प्रसंग- काशी, बकबक और बोलती औरत

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

 

काशी की संस्कृति – विद्वत्ता और कुटिल दबंगई

विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘व्योमकेश दरवेश’ में काशी के बारे में लिखा है – ” काशी में विद्वत्ता और कुटिल दबंगई का अद्भुत मेल दिखलाई पड़ता है। कुटिलता,कूटनीति,ओछापन,स्वार्थ -आदि का समावेश विद्बता में हो जाता है। काशी में प्रतिभा के साथ परदुखकातरता, स्वाभिमान और अनंत तेजस्विता का भी मेल है जो कबीर, तुलसी, प्रसाद और भारतेन्दु, प्रेमचन्द आदि में दिखलाई पड़ता है। काशी में प्रायः उत्तर भारत, विशेषतः हिन्दी क्षेत्र के सभी तीर्थ स्थलों पर परान्न भोजीपाखंड़ी पंडों की भी संस्कृति है जो विदग्ध, चालू, बुद्धिमान और अवसरवादी कुटिलता की मूर्ति होते हैं। काशी के वातावरण में इस पंडा -संस्कृति का भी प्रकट प्रभाव है। वह किसी जाति-सम्प्रदाय,मुहल्ला तक सीमित नहीं सर्वत्र व्याप्त है। पता नहीं कब किसमें झलक मारने लगे।” क्या आप काशी गए हैं ? जरा अपने शहर की संस्कृति के बारे में बताएंगे ?

बकबक की हिमायत में कबीर

अभी कछ दिन पहले फेसबुक पर हिन्दी के एक कहानीकार अपना नजरिया रख रहे थे कि आजकल बकबक ज्यादा होने लगी है। मैं नहीं जानता उनकी बकबक पीड़ा के कारणों को। लेकिन इस प्रसंग में मुझे विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब ‘व्योमकेश दरवेश ‘में बड़ा सुंदर वर्णन मिला है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है- कबीर ने कहा-भाई बोलने को क्यों कहते हो-बोलने से विकार बढ़ता है। लेकिन फिर पलटकर कहा-क्या करें बिना बोले विचार भी तो नहीं हो सकता इसलिए चलो बोलना तो पड़ेगा ही-

बोलना का कहिये रे भाई

बोलत-बोलत तत्त नसाई

बोलत-बोलत बढै विकारा

बिन बोले का करइ विचारा।

 

बोलती औरत

प्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की शानदार किताब आयी है ‘व्योमकेश दरवेश’ । इसमें उन्होंने लिखा है “बनारस के आसपास की ग्रामीण औरतें लाल कत्थई रंग की साडियां बहुत पहनती हैं। वे घास काटतीं,घास के गट्ठर सर पर रखे,सड़क के किनारे काम करती हुई अक्सर दिखलाई पड़तीं। ग्रामीण औरतें जब साथ -साथ चलती हैं तब चुप नहीं रहतीं। या तो गाती ,या बात करती हैं,हँसी-ठट्ठा करती हैं, या फिर झगड़ा करती हैं। गुस्से में चुप रहना,न बोलना,शहराती लोगों को आता है।” आपके इलाके में ग्राम्य और शहरी औरतों का स्वभाव कैसा ? कृपया बताएं ?

1 COMMENT

  1. हम भी तो बनारसी ठहरे गुरुदेव और संजोग से बी.एच.यू. के शोधार्थी भी…….एकदम सही बिम्ब बुना है उस किताब के लेखक महोदय ने……पुराने विश्वनाथ जी चले जाइए फिर देखिये….पण्डे नोच डालेंगे, हाँ लेकिन संकटमोचन, बी.एच.यु. विस्वनाथ मंदिर, दुर्गाकुंड, कालभैरव और सारनाथ में ऐसा नजारा नहीं के बराबर मिलेगा…..ठगी तो साहब इतनी की किसी भी पत्थर को कोई नॉन-पंडा बालक भी खुद को पंडा जैसे रूप में पेश करते हुए साक्षात् ”शिवलिंग” घोषित कर देता है…. ३६५ घाट हाँ बनारस में (वर्ष के हर दिन के लिए एक) और केवट इतने चालू की नावों का रेट ही नहीं फिक्स रखते हैं…जान जाँय की बन्दा नया है तो जेब काट लें….कभी आना हो तो भोज्ज्पुरी सीख के आइयेगा…भोजपुरी बोलने पर ये लोकल जानकर ठीक-ठाक ढंग से पेश आयेंगे…..

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