इस वाक्चक्रव्यूह में जनहित की हत्या

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 दूर झरोखे से – भारत

दूर झरोखे से देखते हुए स्पष्ट समझ में आ रहा है कि भारत में कांग्रेसी नेता दिन रात एक ही राग क्यों अलापते हैं.  पुरानी आदत है. जब खुद से कुछ नहीं संभालता और सत्ता की कुर्सी हिलने लगती है तो वे यही राग अलापते हैं.  सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार पर आम जनता के आक्रोश को अभिव्यक्ति देने वाले अन्ना हों या बाबा रामदेव या फिर श्री श्री रविशंकर, सत्ताधारी कांग्रेस को लगता है कि हमला उन पर किया जा रहा है. इन्द्रासन डोलने लगता है और उसके रक्षकों के होंठ फड़फड़ाते हुए संघ शब्द भय नाद करने लगते हैं. कांग्रेस समझती है कि उनके मदारी प्रवक्ताओं की बेसिरपैर की बातों और उनके हाथों में थमाए गए डमरुओं के बजते ही हर किसी का ध्यान उनके इस भद्दे तमाशे पर मुग्ध  होने लगेगा. असली मुद्दे से हट जाएगा. हर मामले में उसे संघ की साजिश नज़र आती है. इसीलिए हर कहीं उसे घसीट कर वे जनता में उसकी छवि को बिगाड़ने का प्रयत्न करते हैं  लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसा करने से कांग्रेस की अपनी ही छवि बिगड़ती है. हाल के घटनाचक्र का अध्ययन यही निष्कर्ष देता है कि संगठन की दृष्टि से और सत्तासीन होते हुए देश की गम्भीर समस्याओं पर उसका कोई ध्यान नहीं है. चार चार लोग अन्ना टीम को उखाड़ने में लगे रहे हैं.
स्थिति का यह पक्ष भी जो सामने आ रहा है और जिससे पूरी तरह से यह स्पष्ट हो रहा है कि देश की राजनीति में दूध का धुला कोई भी दल नहीं है. लोग जानते  हैं कि जो धन देश के कोष में जाना चाहिए था उससे अनेक कथित जनप्रतिनिधियों ने अपने निजी कोष को भरा है. सत्ता का दुरूपयोग किया है. देश की जनता किसी भी पार्टी को आज पूर्ण विश्वास की नज़र से नहीं देखती. जिन महानुभावों ने अवैध तरीकों से संचित काले धन को विदेशों में जमा किया है उनकी भरपूर कोशिश है कि उनके रहस्य रहस्य ही बनें रहें. इसलिए वे आम आदमी के हित का नारा देकर खुद को ईमानदार जनसेवक के नाते प्रस्तुत करने को सचेष्ट हैं. कैसा है यह प्रवंचक खेल जो खुल खेला जा रहा है जिसमें जनता को मूर्ख  बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है. आम लोग जानते हैं कि देश में राजनीति अब देशसेवा का माध्यम नहीं रही है जैसे  आज़ादी की जंग लड़ते समय थी. अनेक महत्वाकांक्षी लोगों के लिए स्वार्थपूर्ति के उत्तम अवसर प्रस्तुत करने वाला अद्वितीय साधन बन चुकी है. जो सत्ता की कुर्सी का हत्था थाम लेता है जल्दी किए उसे छोड़ना नहीं चाहता. देश के संसद में नोटों की बरसात होती है और सरकार को बनाए रखने के लिए सांसदों की खरीदो-फ़रोख्त.  किस दिशा का संकेत देती हैं एस तरह की घटनाएँ? जनता कितना पिसती है? उसका सांस कितना घुटता है? इसकी किसी को कोई सुध क्यों नहीं रहती?.
ऐसे वातावरण में जो सत्ता की सीधी स्पर्धा में नहीं है. जो पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ राष्ट्र सेवा के लिए तत्पर व्यक्ति निर्माण के ऐसे अद्वितीय कार्य में जुटा है ताकि निस्वार्थ राष्ट्रसेवा की संस्कार भूमि मजबूत हो. देश के सर्वांगीण विकास के लक्ष्य की पूर्ति में ऐसे लोग जुटें. जब महत्व के मुद्दों पर अभियान आन्दोलन अन्य देशभक्त  संस्थाओं द्वारा शुरू हों तो ऐसे राष्ट्रवादी संगठन के लिए क्या करणीय है? क्या उसे चुप बैठे रहना चाहिए? या फिर अपनी  जानी मानी कार्य पद्धति और रीति नीति के अनुगत अपने स्वयंसेवकों को ऐसे किसी भी सही प्रयासों में सहयोग देने के लिए कहे? यह उसकी विशिष्टता है कि वादविवाद के कांग्रेस प्रेरित ऐसे किसी भी बेहूदा दंगल में वह शामिल होना पसंद नहीं करता. जो लोग संघ को समझते हैं वे जानते हैं कि उसके कार्यकर्ता स्वयंसेवकों को जहां कहीं भी राष्ट्रहित में उनकी आवश्यकता और उपयोगिता प्रतीत होती है वे अपने संस्कारगत कर्तव्य पालन के लिए सदैव तत्पर मिलते हैं. कांग्रेसी नेताओं द्वारा हाल  में किया गया अनर्गल प्रलाप नैतिकता और सज्जनता की सीमाओं को लाँघ चुका है.
भ्रष्टाचार विरोधी कथित आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले अन्ना की टीम को घेरने और उनकी छवि को बिगाड़ने का कांग्रेस चक्रव्यूह ठीक वैसे ही उद्देश्य से है जिस तरह से महाभारत के युद्ध में पांडवों को कमजोर करने के लिए अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को घेरने और मारने के लिए कौरवों ने रचा था. केंद्र की भ्रष्टाचार ग्रस्त सरकार के बचाव में अग्रिम मोर्चे पर लड़ने के लिए यह वाग्चक्रव्यूह रचा गया. आजादी की कथित ‘दूसरी लड़ाई’ लड़ने के लिए जनता का आह्वान करने वालों को इतनी सतर्कता दिखानी जरूरी है कि इस चक्रव्यूह में फंस कर भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई को अपनी आपसी लड़ाई बना डालने की कांग्रेसी चाल के शिकार बन कर न रह जाएँ. बहुत बार ऐसा लगा है कि मिथ्यावादी एवं प्रवंचक स्वभाव के कांग्रेसी नेता दिग्विजयसिंह के आरोपों पर ध्यान देकर अन्ना और उनकी टीम आंए बाएं देखने लगती है. उस सत्य को झट नकारने लगती है जो जग जाहिर है. अन्ना टीम और रामदेव दोनों के ही ध्यान में यह तथ्य रहना उनके लिए उपयोगी सिद्ध होगा कि यदि एक भी राष्ट्रहितवादी संगठन के कार्यकर्ताओं के सहयोग का उन्होंने निरादर किया तो इससे उनका अपना पक्ष ही अंतत: कमजोर पड़ेगा.
कुशल युद्धनीति का तकाज़ा यह है कि अन्ना और रामदेव के परस्पर तालमेल बिठा कर एक संयुक्त मोर्चा भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध खोलें. प्रमाणिकता के साथ सिद्ध करें कि उनकी कार्य योजना मजबूत है. उनके विपक्ष में खड़े और सत्ता का दुरूपयोग कर उनके आंदोलन को दबाने के लिए कृतसंकल्प लोगों पर उनकी योजना और अधिक व्यापक तथा हावी हो सकती है. लेकिन इसके ठीक विपरीत हो रहा है. भ्रष्टाचार उन्मूलन की लड़ाई में ‘करोड़ों’ लोगों के समर्थन का बार बार दावा करने वाले दोनों ही योद्धा एक दूसरे के साथ आंख तक मिलाने के लिए तत्पर नहीं हैं. प्रतिस्पर्धा में उतर आए हैं.  अंग्रेजों की सिद्ध राजनीति ‘फूट  डालो और राज करो’ के ठीक अनुरूप कांग्रेस ने अपनी कुटिल नीति खुल खेली है. अन्ना और रामदेव में से कोई भी यदि उसके इस प्रवंचक खेल के मोहरे बन कर एक दूसरे पर वार करते जनता के सामने नज़र आएँगे तो इससे देश हित का हनन होगा. प्रश्न पूछे जाने लगेंगे कि क्या एक राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर रामदेव और अन्ना का एक मंच पर खड़े होने की बजाय अलग अलग ध्वजा उठा कर प्रतिस्पर्धा में आना उनका स्वार्थ नहीं है? क्या वे विजय का सेहरा अपने अपने सिर पर बांधने के लिए उतावले नहीं हैं? यदि ऐसा है तो यह देश के लिए अनिष्टकारी सिद्ध होगा. यदि वे सब कुछ जनहित में कर रहे हैं तो उन्हें चाहिए कि वे अपने ही यश की कामना और अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा मात्र न पीटें. एक साँझा कमांड का गठन करें और इस धर्म युद्ध का निर्भीकता के साथ संचालन करें.
इसमें कोई संदेह नहीं कि सत्ता से चिपटे रहने की चाह के बलवती रहते कांग्रेस को प्राय: यह नज़र आना बंद हो जाता है कि आम जनता देश में कब क्या परिवर्तन देखना चाहती है. उसे लगता है कि उसके उलजलूल व्यवहार और बे सिरपैर के भ्रमपूर्ण वक्तव्यों पर लोग अभी भी विश्वास करेंगे. लेकिन अब वातावरण में परिवर्तन की स्पष्ट भनक है ऐसे समय न सिर्फ कांग्रेस और अन्य मुख राजनीतिक पार्टियों को जनता के रुख को पहचानना होगा. अन्नाजी व बाबा रामदेव को भी समझना होगा कि उनकी शक्ति इस सच को दोहराने में निहित है कि उनके साथ वह हर देशभक्त है जो भारत को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के उनके आंदोलन को समर्थन देता है. इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि यह समर्थन किस वर्ग, वर्ण, मज़हब, सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, सामाजिक या राजनीतिक संगठन का है. स्वार्थवश किसी एक से परहेज़ उनकी ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह खड़े करेगा.
आज देश को एकजुट करने की महती आवश्यकता है. निर्भीकता के साथ ऐसे सिद्ध संकल्प राष्ट्रवाद के आह्वान की आवश्यकता है जो स्वातंत्र्य समर में कारगर सिद्ध हुआ था. वह राष्ट्रवाद जिसमें कभी विदेशी दासता से पूर्ण मुक्ति के लक्ष्य की घोषणा की गई थी. ऐसा राष्ट्रवाद जो भारत के समस्त जनसमाज की आकाँक्षाओं का प्रतीक था और अब भी है. राष्ट्रवाद की उद्दात्त भावना के साथ आज देश में व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में सशक्त कदम उठाए जाने के लिए सम्यक चिंतन, दिशा निर्धारण और कार्ययोजना बनाए जाने की आवश्यकता है. ऐसे सतर्क नीति बल निर्माण की आवश्यकता है जिससे सिर पर चोट पड़ने से पहले ही प्रहार करने वाले हाथों को मजबूती के साथ थामा जा सके. अन्ना ने ऐसा कर सकने की क्षमता प्रदर्शित की थी. उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी ऐसी क्षमता किसी प्रकार के भी दबाव के कारण क्षतिग्रस्त नहीं होगी.