चलने वाले घर

पता नहीं चलने वाले घर,

अब क्यों नहीं बनाते लोग|

बाँध के रस्सी खींच खींच कर,

इधर उधर ले जाते लोग|

 

कभी आगरा कभी बाम्बे,

दिल्ली नहीं नहीं घुमाते लोग|

एक जगह स्थिर घर क्यों हैं,

पहिया नहीं लगाते लोग|

 

पता नहीं क्यों कारों जैसे,

सड़कों पर ले जाते लोग|

अथवा मोटर रिक्शों जैसे

घर को नहीं चलाते लोग|

 

पता नहीं घर बैठे क्यों हैं,

, बिल्कुल नहीं हिलाते लोग|

कुत्तॊं जैसे बाँध के पट्टा

कहीं नहीं टहलाते लोग|,

 

कब से भूखे खड़े हुये घर,

खाना नहीं खिलाते लोग|

बिना वस्त्र के खड़े अभी तक,

चादर नहीं उड़ाते लोग|

 

एक दूसरे को आपस में,

कभी नहीं मिलवाते लोग|

मिल न सकें कभी घर से घर,

यही गणित बैठाते लोग|

 

ऊँच, नीच ,कमजोर, बड़ों को

जब चाहा उलझाते लोग|

जाति, धर्म के नाम घरों को,

आपस में लड़वाते लोग|

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव
लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

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