अरुण तिवारी
आतुर जल बोला माटी से
मैं प्रकृति का वीर्य तत्व हूं,
तुम प्रकृति की कोख हो न्यारी।
इस जगती का पौरुष मुझमें,
तुममें रचना का गुण भारी।
नर-नारी सम भोग विदित जस,
तुम रंग बनो, मैं बनूं बिहारी।
आतुर जल बोला माटी से….
न स्वाद गंध, न रंग तत्व,
पर बोध तत्व है अनुपम मेरा।
भूरा, पीला, लाल रज सुंदर,
कहीं चांदी सा रंग तुम्हारा।
जस चाहत, तस रूप धारती
कितनी सुंदर देह तुम्हारी।
आतुर जल बोला माटी से….
चाहे इन्द्ररूप, चाहे ब्रह्मरूप, चाहे वरुणरूप,
जो रूप कहो सो रुप मैं धारूं।
जैसा रास तुम्हे हो प्रिय,
तैसी कहो करुं तैयारी।
करता हूं प्रिया प्रणय निवेदन,
चल मिल रचै सप्तरंग प्यारी।
आतुर जल बोला माटी से….
प्यारी मेरा नम तन पाकर,
उमग उठेगी देह तुम्हारी,
अंगड़ाई लेगा जब अंकुर,
सूरज से कुछ विनय करुंगा,
हरित ओढ़नी मैं ला दूंगा,
बुआ हवा गायेगी लोरी,
आतुर जल बोला माटी से….
नन्हे-नन्हे हाथ हिलाकर
चहक उठेगा शिशु तुम्हारा,
रंग-बिरंगे पुष्प सजाकर
जब बैठोगी तुम मुस्काकर
हर्षित होगी दुनिया सारी।
कितनी सुंदर चाह हमारी।
आतुर जल बोला माटी से….
जब देह क्षीण होगी प्रकृति की,
यह चाहत ही आस बनेगी,
हरित ओढ़नी सांस बनेगी।
मैं प्रवाह बन फिर बरसूंगा,
तुम फिर बन जाना कोख कुंवारी,
यूं चलती रहेगी यारी हमारी,
आतुर जल बोला माटी से….
श्री तिवारी जी ,
अति सुंदर रचना|अच्छी कल्पना की है| बधाई स्वीकार करे|प्रस्तुत है इस सम्बन्ध में चार पंक्तिया :=
जल माटी का जब मिलन होगा
एक नया पौधा अंकुरित होगा
यही पौधा अपनी जवानी पर
भू को अपनी हरियाली देगा
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