स्टाजिंग कुजांग आंग्मो
लेह की सड़कों पर चलते हुए जैसे-जैसे मैं पुरानी बातों को याद करती हूं, तो बचपन की यादें किसी फूल की तरह ताजा हो जाती हैं। ऐसा लगता है कि जैसे कल की ही बात हो जब मैं अपने साथियों के साथ इन हरे भरे चारागाहों, सुंदर और भव्य इलाकों और हीरे जैसी साफ पहाड़ियों के दामन में शरारतें किया करती थी। गांव के किनारे बहती नदी के शोर में खेलना किसी अद्भुत स्वप्न की तरह प्रतित होता है। अचानक मुझे एहसास हुआ कि मैं जिन चीजों और वातावरण के बीच पली बढ़ी हूं, अब वे पहले जैसे नहीं रह गए हैं। मैदान छोटे हो गए हैं, शहर सजी हुई जरूर है परंतु उसकी सुदंरता खो गई है। बड़ी-बड़ी दुकानों और भीड़ भाड़ के बीच संस्कृति को झलकाने वाली इमारतें सिकुड़ कर रह गई हैं। ऐसा लगता है जैसे पूरा वातावरण बदल गया है। यहां तक कि पानी भी वैसा साफ नहीं रहा जैसा मेरी यादों में सुरक्षित था। यहां एक समय ऐसा भी था जब लेह से बहने वाली नदी और उसकी उपनदियां यहां के निवासियों के लिए पानी का मूल स्त्रोत हुआ करती थीं और इन्हीं से स्थानीय लोगों को पीने का पानी सप्लाई किया जाता था, परंतु आज यह इतना दूशित हो चुका है कि इस पानी को पीने की बात तो जाने दीजिए, इन बहती लहरों में केवल हाथ डालने से पहले तीन बार सोचना पड़ता है। शहर के कुछ स्थानों पर बहने वाली नदी की स्थिती नगर निगम के कूड़ेदान से भी अधिक खराब है।
देश के अन्य शहरों की तरह लेह का भी तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है। इसके पीछे फलते-फूलते पर्यटन, व्यवसाय, उद्योग या मीडिया जैसे अन्य स्त्रोत के प्रभाव महत्वपूर्ण कारक हो सकते हैं। परंतु यह सच है कि लोग अब केवल पैसे को ही अपना भगवान मान बैठे हैं। उनकी मानसिकता भौतिकवादी हो गई है, पैसे की इस लालसा के कारण वे पर्यावरण संरक्षण जैसी महत्वपूर्ण आवष्यकता की भी उपेक्षा कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण यहां बन रहे होटल हैं जिसके बाथरूम तो बहुत उत्कृष्ट बनाए जाते हैं लेकिन जल निकासी की सुविधा का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जा रहा है। परिणामस्वरूप इनसे निकलने वाले पानी स्थानीय जल निकाय में समाहित होकर उन्हें प्रदूशित कर रहे हैं। लोगों में सफाई के प्रति जरा भी चिंता नहीं रह गई है। जैसे जैसे समय गुजर रहा है लेह पीने के स्वच्छ पानी की सप्लाई की समस्या से जूझता जा रहा है। लोग अक्सर पीने के पानी की कमी की शिकायत करते दिख जाते हैं। परंतु ऐसा करते वक्त वह भूल जाते हैं कि इस दशा के लिए बड़े पैमाने पर हम स्वंय जिम्मेदार हैं।
पीने के पानी की वर्तमान समस्या का एक और कारण बोरिंग है जिसकी वजह से जमीन में पानी का स्तर नीचे जा रहा है। बात यह है कि लोगों ने अपनी आवश्यकताओं के अनुसार हैंडपंप लगा रखा है। यहां के प्रत्येक नागरिक की अब यही कोशिश होती है कि उसके मकान और दुकान में पानी की सप्लाई 24 घंटे बनी रहे। जबकि उन्हें मालूम होना चाहिए कि भूजल भी सीमित है और पानी का अनुचित उपयोग उसे बर्बाद कर रहा है। कुछ समय बाद यह भी खत्म हो जाएगा। यह दर्शाता है कि जहां तक पीने के पानी की समस्या का संबंध है इसके लिए यहां के मूल निवासी और प्रशासन ही जिम्मेदार है। नदी अब कचरे ढ़ोने, कपड़े धोने और वाहनों की सफाई का केंद्र बन कर गई है। झरनों के किनारों पर अब लोग खुलेआम शौच करते दिखाई देते हैं। रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों से लेह आने वाले हजारों मजदूरों के कारण समस्या दिन प्रति दिन गंभीर होती जा रही है। यहां सार्वजनिक शौचालयों की खासी कमी है और कुछ हैं भी तो वह उचित प्रबंध के अभाव में काम के लायक नहीं रह पाते हैं।
हमारी पीढ़ी के लोगों ने लद्दाख के जीवन में एक जबरदस्त परिवर्तन देख है। हम सोचते हैं कि हमारे बाप-दादा और उससे पहले के हमारे पूर्वजों और आज के समय में कितना कुछ बदल गया है। वास्तव में विचारों में कितना परिवर्तन आ गया है। पुराने लोग हमें एक अच्छे, सुंदर और साफ सुथरे लद्दाख की कहानी ऐसे सुनाते हैं जैसे वे कोई परी कथा सुना रहे हैं। इसलिए हमें सोचना चाहिए कि जब हम बूढ़े हो जाएंगे तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को कौन सी कहानियां सुनाएंगे। क्या यह अच्छा न होगा कि हम उन्हें एक अच्छे पर्यावरण की कल्पना मात्र की बजाए एक ऐसा सुदंर और स्वस्छ वातावरण दें जिसे वे वास्तव में देख सकें, महसूस कर सकें और उसमें जी सकें।
इसके लिए हमें चाहिए कि हम लद्दाख के वर्तमान पर्यावरण के लिए एक दूसरे पर आरोप मढ़ने और फलां श्रीमान या फलां श्रीमती को पत्र लिखने और उनके द्वारा कार्रवाई के इंतजार के बगैर स्वयं ही इस स्थिति को बदलने के लिए कोई एक्शन लें। हम स्वयं के द्वारा की गई गलतियों को महसूस करें और दूसरों को इसके प्रति जागरूक करने की कोशिश करें तथा उन्हें प्रोत्साहित करें। हमारे बीच अपने पर्यावरण को बचाने वाला कोई भी न हो उससे बेहतर है कि कम से कम कोई एक व्यक्ति तो ऐसा हो जो इसके बारे में बात करे। इसके लिए काम करे। आधुनिक बनने के लिए आवश्यक नहीं है कि आप अपने जीवन का पारंपरिक तरीका भूल जाएं। सही अर्थों में एक सफल और विकसित समाज वो है जो इन दोनों के बीच एक संतुलन बनाए रखते हुए तरक्की करे। लद्दाखी भूल रहे हैं कि जो विशेषताएं लामाओं की इस भूमि के प्रति बाहर के लोगों को अपनी ओर आकर्शित कर रही है वह है हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, प्रकृति के अनुकूल परंपराएं, स्वच्छ और शांतिपूर्ण वातावरण। यदि हम उन्हें वेर्स्टन शौचालयों का उपयोग करने के बजाए स्थानीय पारंपरिक शौचालय का उपयोग करने की आदत सिखाएं तो काफी प्रभावशाली कदम होगा। प्रश्न उठता है कि जब स्थानीय लोग ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हों, वातावरण को खराब और दूशित करने में अपनी भूमिका निभा रहे हों तो आप बाहर से आने वालों पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का आरोप कैसे लगा सकते हैं।
किसी ने सच ही कहा है ”जल ही जीवन है” तो हम यह सकारात्मक निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जब जीवन के मुख्य समर्थन कारक अर्थात् पानी को संरक्षित नहीं किया जाएगा, उसका सही उपयोग नहीं किया जाएगा तो जीवन का क्या होगा? यदि लद्दाख के लोग विषेशकर युवा इस बात से चिंतित हैं और प्रकृति को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो उन्हें जल निकायों को सुरक्षित रखने के बारे में सोचना चाहिए ताकि भविश्य में इनकी दशा और खराब न हो। अब समय आ गया है कि हम इस संबंध में अभी से कोई कदम उठाएं अन्यथा नई पीढ़ी को स्वच्छ वातावरण देने की हमारी कोशिश कहीं बेकार न चली जाए। (चरखा फीचर्स)