लहर ही ज़िन्दगी ले रही,
महर ही माधुरी दे रही;
क़हर सारे वही ढल रही,
पहलू उसके लिये जा रही !
पहल कर भी कहाँ पा रहा,
हल सतह पर स्वत: आ रहा;
शान्त स्वान्त: स्वयं हो रहा,
उसका विनिमय मधुर लग रहा !
लग्न उसकी बनाई हुईं,
समय लहरी पे सज आ रहीं;
देहरी मेरी द्रष्टि बनी,
सृष्टि दुल्हन को लख पा रही !
हरि के हाथों हरा जो गया,
बनके हरियाली वह छा गया;
आली मेरा जगत बन गया,
ख़ालीपन था सभी भर गया !
अल्प अलसायी अँखियाँ मेरी,
कल्प की कोख कोपल तकीं;
क़ाफ़िले ‘मधु’ को ऐसे मिले,
कुहक कोयल की हिय भा रही !