हम उस देश के वासी हैं

—विनय कुमार विनायक
किसी ने कहा है
हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती है
किन्तु मैं नहीं कहता
नोनिआए ईंटों पर प्लास्टरी
मुल्लमायुक्त बातें!

बल्कि मैं कहता हूं
हम उस देश के वासी हैं
जहां बहुत ही दंगा होता है
हम धर्म के नाम पर मरते हैं
अबलाएं खून के आंसू रोती है
हम सदा कर्म की आहें भरते हैं
हम नसीब के नाम पर सोते हैं
जातिवादी जहर को पीते हैं!

आज ईश्वर का सच्चा पूत
वही जो रब में ऐब निकालते
खुदा से खुंदक पालते,
ईश्वर अल्ला से बड़े हो जाते!

फिर अल्लाह की औलाद वही
जो ईश्वर को धमकाए
राम को छठी का दूध पिलाए
चमत्कारी उलटीं छुरी चलाए!

सोचता हूं कुछ और कहूं
पर डरता हूं अपनी जुबां से
कहीं अर्थ ना बदल जाए
श्रवण तंत्र का संसर्ग पाकर
गंगा जल भी जला ना जाए!

बेहतर है चुप रहूं और
लौट चलूं अपने घर की ओर
जिसमें हम रहते आए
वैदिक काल से आजतक
पूरी गारंटी के साथ
फिर भी हम क्या हम हो पाए?

पिता ने हमको जो नाम दिया
पर समाज ने वो कहा कहां?
मानवता की पहचान आज तक
झा सिंह मंडल दास में कैद यहां!

मातृगर्भ से हमें जातिबद्ध किए जाते
हालत अपनी ऐसी है कि एक ने
अगर सराहा तो अनेक क्षुब्ध हो जाते!

सुकुमार प्रतिभा असमय यूं घूंट जाती
हम कवच कुंडल विहिन कर्ण सा
खोखले अमोघ अस्त्र की तलाश में
मंडल-कमंडल में खप जाते!

हम क्षुद्र जीव सा सत्ता को कोसकर
जीते हैं नसीब के नाम पर
इसके सिवा चारा भी क्या?

सत्ता की कुर्सी पर
मानव कहां कोई बैठते
जो भी बैठते वो
सिंह सियार लोमड़ी होकर
अपना उल्लू सीधा करते!

सिंह ने सिंहनी को देखा
सिंह शावकों का ढेर लगा,
फिर सियार का दौर आया,
हुआ-हुआ कर शेर भगाया,
सत्ता में बड़ा हुड़दंग मचाया!

किन्तु लोमड़ी ताक में बैठी थी
रंगा सियार का रंग उतारने को
छककर खून पिया मानव का
और पीना सिखला गई वो सबको!

तब से हम खून पीते और मांस खाते
किन्तु मानव नहीं झा-सिंह-मंडल-दास के
गिद्ध और कौआ बनकर!

लाचारी कुछ ऐसी है कि मानव आज
नहीं मरता, वो अमर जीव बन चुका
जो भी मरता वो होता हिन्दू मुस्लिम,
अगड़ा-पिछड़ा, दास-अदास की लाश!

कौआ बनकर नोचो
या नोचो बनकर गिद्ध
कौन करे अपराध सिद्ध
किसी के जन्म सिद्ध अधिकार का!
—विनय कुमार विनायक

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