जारवा नहीं, हम हैं असभ्य

जुबैर अहमद

अंडमान निकोबार स्थित जारवा समुदाय के साथ अमानवीय हरकतों की दास्तां परत दर परत जैसे जैसे खुल रही है, वैसे वैसे स्वंय को सभ्य कहने वाले इंसानों का असली चेहरा उजागर हो रहा है। अब तक तो यही पता था कि जारवा समुदाय की स्त्रियों के अर्धनग्न वीडियो क्लिप कुछ लोगों ने फिल्माए हैं। परंतु 13 फरवरी को एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक समाचारपत्र ने खुलासा किया कि ऐसे वीडियो क्लिप अंडमान में कार्यरत सभी टूर आपरेटरों के मोबार्इल में वर्षों से कैद हैं जिन्हें वह पर्यटकों को दिखाकर उन क्षेत्रों में घूमने के लिए प्रेरित करते हैं जो वर्जित है। इसके लिए पर्यटकों से भारी भरकम रकम वसूले जाते हैं और यदि जारवा नजर नहीं आए तो आपरेटर उन पर्यटकों के मोबाइल में यही अर्धनग्न वीडियो लोड कर देते हैं। इस तरह यह वीडियो क्लिपिंग अब तक हजारों पर्यटकों के मोबाइल तक पहुंच चुका है। हालांकि अंडमान निकोबार प्रशासन मामले की लीपापोती में लगा हुआ है और वीडियो क्लिपिंग पर ही सवाल खड़े कर रहा है। दावा किया जा रहा है कि क्लिपिंग हाल का नहीं है बलिक कर्इ वर्ष पुराना है। परंतु वह इस बात का कोर्इ जवाब नहीं दे रहा है कि क्लिपिंग नया हो अथवा पुराना, जब वह क्षेत्र पर्यटन के लिए वर्जित है तो वहां तक आम इंसान की पहुंच मुमकिन कैसे संभव हुर्इ? यदि वीडियो किलीपिंग में पुलिस वाले नहीं कोर्इ और है तो फिर उन वर्जित क्षेत्रों की सुरक्षा में लगे पुलिसवाले उस वक्त कहां थे जब कोर्इ बाहरी यहां अवैध रूप से प्रवेश कर रहा था।

ऐसा माना जाता है कि नीग्रो मनुश्यों का असितत्व अफ्रिका में हुआ था और वहीं से पूरी दुनिया में फैले हैं। जारवा उन्हीं के वंशजो में एक हैं। अनुमानत: 400 लोगों की आबादी वाले जारवा सबसे पहले 1998 में बाहरी दुनिया के संपर्क में आए। धीरे-धीरे वह इंसानी सभ्यता के करीब आने लगे। हालांकि अब भी वह आम इंसानों से दूर रहना पसंद करते हैं लेकिन कर्इ बार जारवा जंगलों से निकलकर इंसानी बसितयों में आते रहे हैं और स्थानीय लोगों से सामानों को आदान प्रदान करते हैं। पिछले माह 7 जनवरी की दोपहर जारवा समुदाय के कुछ लोग अचानक जंगल से निकलकर दक्षिण अंडमान के तुशनाबाद पंचायत सिथत गांवों में पहुंचे। ये अपने साथ तीर कमान और मछली पकड़ने के सामान के अतिरिक्त कुछ पैकेट तथा केकड़े, शहद और जंगल के दूसरे उत्पाद भी लेकर आए थे। बदले में यह गांव वालों से तंबाकू और पुराने कपड़े की पेशकश कर रहे थे। इस तरह उनका आना जाना और यदा कदा बाहरी दुनिया से संपर्क बनाना स्थानीय अंडमानी लोगों के लिए कुछ आश्च र्य नहीं। ऐसे में यह वीडियो स्थानीय लोगों के लिए कोर्इ अजूबा नहीं है। यही कारण है कि आम अंडमानी से इस प्रकरण पर बात कीजिए तो वह यही कहेगा कि इस वीडियो से रार्इ का पहाड़ तैयार कर दिया गया है।

विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर हमने प्राकृतिक संपदा का जमकर षोशण किया परंतु जारवा इस प्रकृति को अपनी जीवन रेखा मानते हैं। उसकी पूजा करते हैं तथा प्राकृतिक संसाधनों का केवल उतना ही उपयोग करते हैं जितना कि उसकी भरपार्इ हो सके। प्रकृति के प्रति उनकी श्रद्धा का ही परिणाम है कि जिन क्षेत्रों में जारवा निवास करते हैं वह अंडमान के अन्य जंगली क्षेत्रों से अधिक समृद्ध है। प्रकृति को उनके समझने की क्षमता आधुनिक वैज्ञानिकों से कहीं अधिक उन्नत है। इसका सर्वश्रेश्ठ उदाहरण 2004 में आर्इ सूनामी है। जिसके कहर से समूचा दक्षिण एशिया कांप गया था। सभी वैज्ञानिक पूर्वानुमान धरे के धरे रह गए थे। उस प्रलय में हजारों लोगों की जानें गर्इ थीं परंतु तबाही के उस मंजर में एक भी जारवा सूनामी की चपेट में नहीं आया था। अपनी छोटी सी दुनिया में आदिकाल की संस्कृति के साथ जीवन गुजारने वाले जारवा अधिकांशत: बाहरी दुनिया से संपर्क नहीं रखना चाहते हैं। ऐसे में उनके साथ किसी प्रकार की नजदीकी 2004 में कलकता उच्च न्यायलय के उस आदेश की अवमानना है जिसमें न्यायलय ने कहा था कि बाहरी दुनिया का जारवा से संबंध उनके असितत्व के लिए उस वक्त तक खतरा है जब तक यह समुदाय स्वंय शारीरिक, मानसिक और समाजी रूप से तैयार न हो जाए।

न्यायालय का यह आदेश दरअसल जारवा को बाहरी दुनिया से होने वाली गंभीर बीमारियों से बचाना था। इस संबंध में विषेशज्ञों की एक समिती भी बनार्इ गर्इ थी जिसने जारवा तथा गैर जारवा के बीच संबंधों पर अपनी रिपोर्ट में भी इन्हीं पालिसियों का समर्थन किया था। जारवा आदिवासियों के विषेशज्ञ और एन्थ्रोपोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया के अधिकारी एंसटाइस जसिटन ने बीबीसी को दिए साक्षात्कार में गैर जारवा का इनमें घुसपैठ पर गंभीर चिंता जतार्इ थी। उनका कहना था कि कुछ वर्ष पूर्व जब वो जारवा लोगों की बस्ती में गए थे तब उन्हें वहां तंबाकू के गुटखों के पाउच और ऐसे कपड़े मिले थे जो सरकार ने उन्हें नहीं दिया था। ज्ञात हो कि वैकिसन नहीं होने के कारण जारवा आम इंसानों के संपर्क में आने के बाद खसरा जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो गए थे इससे कर्इयों की मौत हो गर्इ थी। इनकी प्रतिरोधक क्षमता नाममात्र का होने के कारण इलाज के अभाव में फौरन दम तोड़ देते हैं। जिसके बाद सरकार ने इनकी सभ्यता को बचाने की दृष्टि से जारवा बसितयों तथा इलाकों में बाहरी लोगों का जाना प्रतिबंधित कर दिया है। हालांकि इस पूरे प्रकरण के बाद सरकार नींद से जागी है और अब वह स्वास्थ्य एवं आहार विशेषज्ञों की मदद से अंडमान निकोबार के जारवा सहित देश के अन्य आदिवासियों के रहन सहन के तौर तरीकों का अध्ययन करने की योजना बना रही है ताकि बीमारियों के प्रति उनकी संवेदनशीलता को कम किया जा सके।

जारवा समुदाय में बाहरी दुनिया के हस्तक्षेप के लिए बहुत हद तक अंडमान ट्रंक रोड को जिम्मेदार ठहराया जाता है। नार्थ और साउथ अंडमान को जोड़ने वाले इस रोड का तकरीबन 56 किलोमीटर का हिस्सा जारवा रिर्जव क्षेत्र से होकर गुजरता है। इसके निर्माण के कारण जारवा अपना इलाका छोड़कर सीमित क्षेत्रों में रहने को मजबूर हैं। हालांकि 2002 में उच्चतम न्यायालय ने इस क्षेत्र से गुजरने वाली सड़क को बंद करने का आदेश दिया था, परंतु स्थानीय विरोध के कारण यह आजतक संभव नहीं हो सका है। अंडमान निकोबार का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद विष्णु पद राय भी इसे बंद करने पर अपनी असहमति दर्ज करा चुके हैं। उनका तर्क है कि यह सड़क दक्षिण तथा मध्य अंडमान के निवासियों की जीवन रेखा है। दोनों क्षेत्रों के लोगों की आवश्याकता की पूर्ति के लिए सामानों से लदे ट्रक प्रतिदिन इसी रास्ते से गुजरते हैं। ऐसे में समुद्री रास्तों से जब तक रोड का कोर्इ वैकल्पिक मार्ग नहीं ढ़ूढ़ा जाता है तबतक इसे बंद करना अन्य समुदाय के साथ अन्याय होगा। दूसरी ओर ब्रिटिश संसद भी अपने विशेष नीति के तहत इस विशय में खास दिलचस्पी दिखा रही है। जहां इसे बंद करने का जोरदार समर्थन किया गया। हालांकि यह भारत का अंदरूनी मामला है परंतु हमें इस पर विचार करने की आवश्यरकता है कि क्या मानव अधिकार केवल आम इंसानों पर लागू होते हैं। आदिम काल से अपनी संस्कृति की रक्षा करने वाले जारवा के अधिकार को छिनना क्या मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में सिर्फ इसलिए नहीं आता है क्यूंकि वह हमारी तथाकथित और छलावे से भरी उन्नत संस्कृति से दूर हैं। हमने विकास की चाहे जितनी भी उंचार्इयां छू ली हों, चाहे तकनीकि रूप से जितने भी समृद्ध होने दावा करते हों परंतु सच्चार्इ यही है कि हम आज भी भेदभाव को जन्म देने वाली मानसिकता से उबर नहीं सके हैं। हम अपने आसपास ऐसे समाज की रचना करते हैं जहां स्वंय को सभ्य तो कहते हैं परंतु आचरण में ही असभ्यता झलकती है। जहां जारवा समुदाय जैसे मासूम लोगों को खाने का लालच देकर उन्हें नाचने को बाध्य करते हैं और उनकी प्राकृतिक अवस्था को नग्नता और फूहरता के नाम पर बेचते हैं। खुद को सभ्य और शिक्षित समाज से जोड़ने वालों को यह शोभा नहीं देता है कि वह किसी की मासूमियत से खिलवाड़ करें। (चरखा फीचर्स)

2 COMMENTS

  1. कुछ भ्रमित कर देने वाला समाचार है|
    और शायद समग्र जानकारी प्राप्त किए बिना, कुछ निर्णायक विचार रखना असंभव जान पड़ता है|
    रमेश सिंह जी के विचारों से सहमति दर्शाता हूँ| साथ जारवा की विशेषताओं की रक्षा भी की जानी चाहिए|
    और निश्चित रूपसे उनका शोषण तो रूकना ही चाहिए| वे प्रदर्शनी के वस्तुएं ना मानी जाए| ना उनका शोषण किया जाए|
    जो शासन प्रजा हित में प्रतिबद्ध होगा , वही कुछ कर पाएगा|
    केवल विचारों से नहीं, पर, कुछ सोच समझ कर, विचार विमर्श कर; सही नीति अपनानी होगी|
    इस कुरसी के लिए दौड़ते चुनाव के, खो खो के खेल खेलने वालों से, कुछ होने की अपेक्षा करना पागल को दवा पिलाने जैसा है|
    आप लिखते रहें और हम पढ़ते रहें|
    यही होता रहेगा|

  2. जुबैर अहमद जी आपका लेख अच्छा है. इससे जारवा जाति के बारे में अच्छी जानकारी मिलती है,पर इससे यह भी जाहिर हो जाता है कि आज भी इन्सान इंसान के बीच कितनी असमानता है.मानता हूँ कि जारवा जाति के लोगों के सभ्यता के प्रभाव में आने से उनको रोग वगैरह का खतरा हो,पर इन कारणों से कबतक उनकोजानवरों की तरह चिड़िया घर में रहने को मजबूर किया जाएगा?हम तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले लोग भी तो विकास की इस अवस्था को अचानक नहीं प्राप्त कियें हैं.यह विकासक क्रम में होता गया है,क्यों न हम इस विकास को उन लोगों तक भी धीरे धीरे पहुंचाये और उनको उचित शिक्षा दें..ऐसे भी वे यदि अपने आप अपने चिड़िया घर से कभी कभी बाहर आयेंगे तो हमारी बुराइयां तो ग्रहण कर लेंगे,पर अच्छाइयों के अभाव में धीरे धीरे पूर्ण जारवा जाति विलुप्त हो जायेगी.अतः आवश्यकता है उनको जानवर से इंसान बनाने की.चिड़िया घर से उनको धीरे धीरे बाहर लाने की.उनको उचित शिक्षा देने की

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