-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
हम संसार को देखकर विचार करते हैं कि यह विशाल ब्रह्माण्ड किसने, कब, क्यों व कैसे बनाया? संसार के मत-
मतान्तरों के ग्रन्थों में इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता। अतः लोग इन
प्रश्नों के मन में आने तथा उत्तर न मिलने पर कुछ दिन बाद अपनी
जिज्ञासा को भूल जाते हैं और उनमें से कुछ किसी काल्पनिक ईश्वर
अथवा कुछ सृष्टि को स्वमेव निर्मित व संचालित मानने लगते हैं। ईश्वर
का सत्यस्वरूप ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद एवं वेद विश्वासी ऋषियों के ग्रन्थों
में उपलब्ध होता है। वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से चार
ऋषियों को मिला था। उसके बाद परम्परा से वेदों का ज्ञान प्राप्त कर
ऋषि परम्परा चलती रही। ऋषियों ने वेदों के अर्थ समझाने व प्रचारित
करने के उद्देश्य से ग्रन्थों की रचनायें की। ऋषियों के ग्रन्थों में ईश्वर विषयक जो ज्ञान उपलब्ध होता है वह ऋषियों के ईश्वर
का प्रत्यक्ष करने सहित उनकी ऊहा से निष्पन्न है। अतः हमें वेद, उपनिषद, दर्शन आदि ग्रन्थों सहित ऋषियों के सभी ग्रन्थों का
अध्ययन कर ईश्वर सहित जीवात्मा एवं सृष्टि की उत्पत्ति आदि को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। प्राचीन काल में हमारे
ऋषियों को यह ज्ञान अपने विद्वान माता-पिताओं एवं आचार्यों से सहजता से सुलभ हो जाता था। वह अपनी साधना से इस
ज्ञान की सत्यता का निरीक्षण कर ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात् किया करते थे और अपने शिष्यों को उस ज्ञान से लाभान्वित
करते थे।
जिस किसी मत व सम्प्रदाय का गुरु अल्पज्ञानी होगा वह अपने शिष्यों को अपने ज्ञान व क्रियात्मक अभ्यास से ईश्वर,
जीवात्मा एवं अन्य पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं करा सकता। यही कारण है कि हमारे मत-मतान्तर के अनुयायी वेदों का अध्ययन न
करने से ईश्वर के यथार्थ ज्ञान से अनभिज्ञ हैं। वह अपने-अपने मतों की पुस्तकों से बन्धें हुए हैं। वह वेद आदि साहित्य का
अध्ययन कर सत्यासत्य का निर्णय नहीं करते। वह अपने मत में लिखी सीमित सत्यासत्य युक्त बातों से अधिक सोच नहीं
पाते। यदि वह वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन करें तो उन्हें उनके मतों की मान्यताओं वेद ज्ञान से विपरीत निश्चित होती हैं जिसे वह
किसी भी अवस्था में स्वीकार नहीं कर सकते। वह समझते हैं कि यदि वह अपने किसी मत की बात पर शंका करेंगे तो इससे
उनके आचार्य, इष्टदेव व मत के लोग रुष्ट हो जायेंगे। सभी मतों के सामान्य, अज्ञानी व अल्प ज्ञानी, मनुष्य तो अपने अपने
मत के आचार्यों की उचित व अनुचित सभी बातों को आंखें बन्द कर स्वीकार कर लेते हैं। इस कारण से मनुष्य सत्य ज्ञान तक
पहुंच नहीं पाता। वैदिक धर्म व उसका प्रचारक आर्यसमाज ही एकमात्र ऐसा संगठन है जिसके आचार्य ऋषि दयानन्द वेदों के
मर्मज्ञ विद्वान थे। वह सत्यान्वेशी, तपस्वी एवं पुरुषार्थी थे। उन्होंने सबसे कठोर व्रत ब्रह्मचर्य का पालन किया था। वह योग
विद्या में भी निपुण थे। उन्होंने वेद वर्णित रहस्यों का अध्ययन किया और साधना में उनका प्रत्यक्ष करने बाद ही उनका प्रचार
किया। वह अपनी सभी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर कसकर अपने शिष्यों व अनुयायियों सहित अपने विरोधियों के
कल्याण के लिये उन्हें उनसे अवगत कराते थे। अन्य मतों के कुछ विद्वान आचार्यों ने अपने पूर्व मतों का त्याग कर वेदों के
सत्य मत को अपनाया और आजीवन उसी में स्थित रहकर वेद की मान्यताओं का वैदिक धर्मियों के साथ मिलकर विधर्मियों में
प्रचार भी किया। अतः ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान प्राप्त करने के लिए वेद एवं वेदों पर
आधारित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय सहित उपनिषद, दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना
ईश्वर व जीवात्मा आदि सत्ताओं का प्रत्यक्ष कराने में सहायक होता है।
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ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में वेदों के आधार पर ईश्वर का सत्यस्वरूप प्रस्तुत
करने के पश्चात सामान्य मनुष्यों की शंका यथा ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है वा नहीं, का समाधान करने के लिये एक प्रश्न प्रस्तुत
किया है जिसमें वह कहते हैं कि जो लोग ईश्वर को मानते हैं, वह ईश्वर के अस्तित्व को किस प्रकार से सिद्ध कर सकते हैं?
इसका उत्तर देते हुए ऋषि ने बताया है कि ईश्वर सभी प्रत्यक्ष आदि (आठों प्रमाणों से) सिद्ध किया जा सकता है। इस प्रसंग में
ऋषि दयानन्द ने गौतम ऋषि के ग्रन्थ न्याय-दर्शन का एक सूत्र ‘‘इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि
व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।।” प्रस्तुत किया है। इस श्लोक का अर्थ प्रस्तुत करते हुए वह बताते हैं कि ईश्वर का प्रत्यक्ष होना तथा
मन व आत्मा को उसका विश्वास होना सम्भव है। ईश्वर के प्रत्यक्ष होने विषयक शंका का समाधान करने के लिये उन्होंने
प्रत्यक्ष किसे कहते हैं, इसके लिए दर्शन के उपर्युक्त सूत्र की व्याख्या की है। वह लिखते हैं कि श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण
और मन का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है
उसको प्रत्यक्ष कहते हैं परन्तु वह ज्ञान निभ्र्रान्त होना चाहिये। ज्ञानेन्द्रियों से विषयों का जो तर्क सिद्ध सत्य ज्ञान प्राप्त होता
है उसमें किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिये। ऐसा होने पर वह ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान माना जाता है। ऋषि दयानन्द आगे
लिखते हैं कि अब विचारना चाहिये कि (पांच ज्ञान) इन्द्रियों व मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी (पृथिवी आदि) का नहीं। जैसे
चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी है उस का आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष
किया जाता है वैसे (ही) इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना-विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमात्मा का भी प्रत्यक्ष (ज्ञान
होता) है।
ऋषि दयानन्द इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता
वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव की इच्छा, ज्ञानादि
उसी इच्छित (चोरी वा परोपकार) विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और
लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। यह (भय, शंका, लज्जा, अभय, निःशंकता,
आनन्द और उत्साह) जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु (सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सच्चिदानन्दस्वरूप) परमात्मा की ओर से
(होते) हंै। और जब जीवात्मा शुद्ध होके परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है उस को उसी समय दानों प्रत्यक्ष होते हैं।
जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष (निभ्र्रान्त ज्ञान) होता है तो अनुमानादि (अन्य सात प्रमाणों) से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह
है? क्योंकि कार्य को देख कर कारण का अनुमान होता है।
ईश्वर की प्राप्ति विषयक एक महत्वपूर्ण बात ऋषि दयानन्द ने अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पुस्तक के उपासना-
विषय में लिखी है। उपयोगी होने से उसे यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि जिस समय (यम व नियम आदि) सब साधनों
से परमेश्वर की उपासना करके (मनुष्य वा योगी) उसमें प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि कण्ठ के नीचे, दोनों
स्तनों के बीच में, और उदर के उपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त
है, उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है, और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर-भीतर
एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है। दूसरा उसके
मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है। इस प्रकार से उपासना व समाधि में ईश्वर को अपनी आत्मा में ही उसका
साक्षात्कार कर उसे प्राप्त किया जा सकता है।
परमात्मा मनुष्यों की तरह कोई शरीरधारी सत्ता नहीं है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान,
न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर,
अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। अजन्मा होने से उसका कभी न तो जन्म हुआ है और न कभी होगा। वह सर्वव्यापक एवं
सर्वान्तर्यामी है। संसार में सभी अपौरूषेय पदार्थों में जो गुण हैं वह सभी गुण व उनकी गुणी सत्ता व पदार्थों को ईश्वर ने ही अपनी
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सामथ्र्य से सभी जीवों के योग-क्षेम वा कल्याणार्थ उत्पन्न किया है। वह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह-उपग्रह, लोक-लोकान्तर आदि
सभी पदार्थों व उनमें विद्यमान गुणों का अधिष्ठाता व उनका उत्पत्तिकर्ता है। सृष्टि हमें प्रत्यक्ष दीखती है। इस सृष्टि में रचना
विशेष आदि एवं ज्ञानादि गुणों का भी हम सभी प्रत्यक्ष करते हैं। इन्हीं से ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। ईश्वर विषयक यह ज्ञान
प्रत्यक्ष ज्ञान की कोटि का है। अतः इसे जान व समझकर हमें वेदाध्ययन व ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन कर अपने ज्ञान को
बढ़ाना व उसे स्थिर करना है और साथ ही अपने ज्ञान के अनुरूप आचरण भी करना है। इसी से हम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को
प्राप्त होकर अपने जीवन को सार्थक कर सकेंगे। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हुए अपने सभी मित्रों से
सत्यार्थप्रकाश का निरन्तर एकाग्र मन से पाठ करने का निवेदन करते हैं। यह आपको कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर आरूढ़
करेगा। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन और ईश्वर की प्राप्ति की साधना संसार में महौषधि के समान है जिसे आत्मा से ग्रहण कर
मनुष्य त्रिविधि सभी सन्तापों व दुःखों से पार हो सकते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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