डॉ. मधुसूदन
(एक) माता-पिता सेवा का आदर्श:
भक्त पुण्डलिक से भेंट करने भगवान कृष्ण जब पहुँचे, पुण्डलिक माता-पिता- की सेवा में व्यस्त थे. पुण्डलिक ने एक ईंट फेंकी और भगवान को उसपर खडे रह कर, राह देखने का अनुरोध किया. ईंट को मराठी में विट कहते हैं. उस विट के स्थल या थल पर खडे होने के कारण भगवान –> विट+थल = विट्ठल कहलाए. इस स्थान पर मन्दिर बना. और महाराष्ट्र का चंद्रभागा नदी पर बसा यह तीर्थ, पुण्डलिक के नाम से मराठी में पण्ढरपुर हो गया, यहाँ भगवान की मूर्ति ईंट पर खडी है. इस लिए भगवान यहाँ विठ्ठल नाम से भजे जाते हैं; अषाढी एकादशी पर बडी यात्रा लगती हैं. लाखों श्रद्धालु महाराष्ट्र और आंध्र से, यात्रा के लिए आते हैं. सर पर पोटली और मीलों पैदल चलना. भक्तों का सागर उमडता है.
पुण्डलिक द्वारा माता-पिता की सेवा का ऐसा सांस्कृतिक संदेश देता पण्ढरपुर चंद्रभागा नदी किनारे खडा है. लेखक भी माँ के साथ, इस यात्रापर १२ मील (ही) चलकर गया है. माताजी वर्षानुवर्ष इस यात्रापर गयी हैं; कई बार पैदल भी.
भक्त श्रावण भी माता पिता को काँवर में तीर्थ-यात्रा करवाने निकला था. और पिता के वचनों को सत्य करने भगवान राम चौदह वर्ष वनवास गए थे. इस पीढी में कितने ऐसी सेवा कर सकेंगे? नहीं पूछता. माता-पिता की सेवा का यह आदर्श हमारी संस्कृति का परिचायक है.
(दो) अनकही सुनने की कला
माता-पिता उस परम्परा की कडी है, जो बोलकर नहीं, कृति से संस्कार करती थीं. ये राई के दाने से भी सूक्ष्म ऐसा *अणोरणीयान* सत्य है. यदि *सूक्ष्म निरीक्षण कर न पाए तो आप इस सत्य को पहचान नहीं पाएंगे.* बोलने से गरिमा घट जाती है. ऐसा उदार आदर्श है,संस्कृति का; उथले वाचालों की बुद्धि से परे! ऐसी कृति की अनकही सुनने की कला जाननेवाले संवेदनशील जन दुर्लभ होते जा रहें हैं. *बूढे बैल की आत्मव्यथा* की निम्न पंक्तियाँ इस संदर्भ से लिखी थी.
सींचता संस्कार कृतिसे, ना बोलता।
संकटों से वज्र बन कर जूझता॥
(तीन) संवेदनशीलता क्यों ?
बहुतेरे माता-पिता अपना दु:खडा सुनाएंगे नहीं. उनका दुःख जानने के लिए संवेदनशीलता चाहिए. निरीक्षण की क्षमता चाहिए. ध्यान से देखने मात्र से भी पहचान पाओगे. पर आज ऐसी संवेदनशीलता दुर्मिल होती जा रही है. जडबुद्धि को तब पता चलेगा जब स्वयं वृद्धत्व प्राप्त करेंगे.
तब भूतकाल में प्रवेश कर, व्यवहार सुधारा नहीं जा सकता. देर हो चुकी. गया, जनम गया. स्वानुभव से ज्ञान होने तक, माता-पिता शायद संसार से बिदा हो चुके होंगे. तब बेटा ऋण चुका नहीं सकता. फिर पछतावा होगा.
कुछ पछतावा करनेवाले जानता हूँ. कुछ अपनी मुठ्ठी बाँधे पछतावा भी छिपाए हुए हैं. सोचते हैं सभी को पता लग जाएगा, तो? इसलिए अकेले ही पछताते रहते हैं.
(चार ) आज की युवा पीढी:
आज की पीढी महत्वाकांक्षी है, बूँद-सी पृथ्वी पर भौतिक उपलब्धियों के पीछे पागल, और अविश्राम भागती हुयी. कई मित्र देखें हैं, जो सब से आगे बढे, ऐसे बढे, ऐसे बढे, ऐसे बढें कि सबके पीछे रह गए.भौतिक शिखर पर पहुँचे पर न स्वस्थ परिवार रह पाया, न स्वयं स्वस्थ रह पाए. उनके कान में कहना चाहता हूँ. *समृद्धि केवल भौतिक नहीं, सर्वांगीण होती है.* पर बिल्लीके गले में घंटी कैसे बाँधु?
जैसे मनुष्य *चारों पुरुषार्थों के पीछे पडकर संतुलित विकास का प्रयास ही करता है; समृद्धि की संभावना बढ जाती है.*
स्वानुभव-प्राप्त प्रमाण पर विश्वास करनेवाली पीढी , अपने को बडी इन्टेलेक्च्युअल समझती है. बिना उकसाए भी लेक्चर दे देगी. वास्तविकता को तटस्थतापूर्वक आँक नहीं सकती. अपनी निजी दृष्टि से दुनिया देखकर उथली बुद्धि से निर्णय करती है. यही समस्या की जड है.
(पाँच) ये स्वानुभव से सीखने का विषय नहीं है.
पर ये स्वानुभव से सीखने का विषय नहीं. माता पिता की दृष्टि तभी प्राप्त होगी; जब आप उनसे मनसिक तादात्म्य प्राप्त कर पाओगे.
दो ही मिनट, जराआँख मूँद लो. बुढ्ढे बन जाओ,अंधे बन कर हाथ में लाठी लेकर १० कदम चल कर देखो. अनुभव करो. कैसा लगता है? क्यों? डर गए?
ध्यानयोग भी आप को काम आएगा. ध्यान योग में, पहले आप अपने ५ इन्द्रियों से ऊपर उठ जाते हैं. फिर क्रमशः मन और बुद्धि से भी संबंध कटता है, पहुँचते पहुँचते ही आप तटस्थ (तट पर खडे-विचार प्रवाह देखने वाले )हो जाते हैं. आपका अवलोकन विशुद्ध और वस्तुनिष्ठ होता है. यहाँ पर आप की अनुभूति का विस्तार होता है. आप आप नहीं रह जाते. आपका चेतन विस्तृत हो जाता है. यदि आप को अपना नाम सरलता से याद न आए तो मानिए कि आप तटस्थ हुए हैं.
*जल में कुम्भ कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी।
फूटा कुंभ, जल जल हि समाना, यहु तत कथो गियानी॥ * –कबीर.
ऐसे तटस्थ होने के बाद आप तादात्म्य का अनुभव करने का प्रयास करें. स्वयं को वृद्ध अनुभव करे.
( छः) संवेदनशील कविहृदय
संवेदनशील कविहृदय भी सहज तादात्म्यता प्राप्त कर सकता है. पर संवेदनशील कवि भी दुर्लभ होता है. अधिकतर शब्द जाल फैलाकर कवि कहलाने आतुर रहते हैं. ऐसा सच्चा कवि मिलना विरल होता है. थोडा ही कहता हूँ. शायद अधिक संवेदना उजागर हो जाए, तो घाटा निश्चित नहीं. लाभ ही होगा. *तराजु में तौलिए भी तो कुछ माता-पिता की ओर झुकता ही तौलिए.*
(सात) पछतावे की नौबत न आए:
पछतावा अपरिवर्तनीय दुःख से होता है. क्योंकि, भूतकाल की गलतियाँ निस्तारी नहीं जा सकती. भूतकाल बदला नहीं जा सकता.
बहुतेरे माता-पिता अपनी संतान से इतना प्रेम रखते हैं; कि वें अपनी पीडा असह्य होनेपर ही बोलेंगे. इस लिए, बेटा,थोडा कहे, तो ज्यादा समझना. उपेक्षा बिलकुल न करना.
बडी मर्मस्पर्शी कहानी स्मरण हो रही है. आप सब जानते हैं. माँ का हृदय, प्रेमिका को भेंट करने दौडकर जाते हुए प्रेमी की कहानी; दौडते दौडते, ठोकर खाकर, पुत्र गिर पडता है; तो, भूमि पर गिरा हुआ माँ का हृदय पूछता है. *बेटा कहीं चोट तो नहीं आयी?*
ऐसी उदार मानसिकता वाले कई वृद्ध माता-पिताओं को जानता हूँ; जिनकी समस्याओं से तुम अनभिज्ञ हो. देखते हो,पर देखते नहीं हो. क्यों कि अनुभव नहीं करते हो. शायद, बार बार देख कर संवेदनहीन हो चुके हो. स्वयं को उस कष्ट का अनुभव नहीं है. होगा कैसे? उस अवस्था से तो परिचित नहीं हो.
जब उस अवस्था का अनुभव करोगे, तब पता चलेगा. पर तब सेवा करने के लिए माता पिता भी जीवित नहीं होंगे.
(आठ) सहानुभूति:
*सहानुभूति* शब्द बडा अर्थवाही (अर्थ वहन करनेवाला) है. ये अपना अर्थ अपने कलेवर में लेकर चलता है.
जो अनुभूति वृद्ध माता-पिता को होती है उसी अनुभूति को तादात्म्यता से अनुभव करना सहानुभूति कहाता है.
दूजे देह के सुख-दुःख की अनुभूति करना ==> सह +अनुभूति= सहानुभूति कहलाता है.
एक उदार मना और प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्तित्व से सीखा. जिन्होंने अपने पिता की सेवा में कोई त्रुटि नहीं रखी थी. और स्वयं अत्युच्च पद पर थे. आपका नाम है भारतेन्दु सिंघल. आपने *माँ की पुकार* नामक ग्रंथ लिखा था.
वें न दुखडा गाएंगे ,
न तुम, अनुमान कर पाओगे !
पाठकों को शुभेच्छाएँ:
पण्ढरपुर और विट्ठल भगवान् की यह कहानी नहीं पता थी लेकिन जानने की उत्सुकता थी तो आपके लेख से पता हो गई | धन्यबाद |
आजकल संबंधों में भावनात्मक जुड़ाव नहीं है , कम देखने को मिलता है और यही कमी व्यक्ति को संवेदनहीन और असहिष्णु बना देती है | वृद्धावस्ता का पड़ाव बड़ा कठिन है पहले सुना था कि वृद्धावस्था में बचपन लौट आता है और मै अपनी माँ के साथ यह अनुभव कर रही हूँ लेकिन लगता है वह है , माँ है , तो मेरा अस्तित्व कितना बड़ा है वरना उसके न होने पर ? पिता जी के जाने पर तो माँ थी और फिर आदत पड़ गई माँ में ही माता पिता को देखने की | भाग्यशाली हूँ की मेरे माता पिता की जोड़ी एक जैसी थी तो जीवन इतना सरल रहा वरना संतान के लिए भी बहुत कठिनाई होती है |
एक गीत याद आ गया इसी भाव पर ——
मानो तो मै गंगा माँ हूँ , न मानो तो बहता पानी |
नमस्कार बहन रेखा जी —
संतुष्ट हूँ, कि आलेख इस प्रकार आप पाठकों को ऐसे अनुभव करा रहा है. मेरे लिए, इससे बडा पारितोषिक और क्या हो सकता है? आप माताजी के साथ रह कर, सही में कर्तव्य निर्वाह कर रही है.
माता जी की पूरी सेवा कीजिए.भारतीय संस्कृति इसी विधा से जीवित भी रहेगी ही. मेरी ओर से उन्हें भाव पूर्ण प्रणाम का संदेश अवश्य दीजिए.
किसी कविने ठीक कहा है;
“जिन्हें माता पिता की सेवा करी, तीरथ धाम किया न किया.”
—कुछ इसी अर्थ की पंक्तियाँ हैं.
धन्यवाद
मधुभाई
विद्वद्वर डॉ. मधुसूदन जी का ये आलेख युवा पीढ़ी का समुचित मार्गदर्शन करता है कि “ तब पछताए क्या होत है , जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।” । वृद्ध माता-पिता के प्रति उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा और संवेदनशीलता को जगाने वाला है । इस आलेख के तथ्य विचारणीय है और आचरणीय भी । लेखक को अनेकश: साधुवाद !!
नमस्कार बहन शकुन्तला जी:
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद. अमरिका में प्रवासी भारतीयों की सोच भी अंशतः विकृत दिखाई देती है. इसी कारण इस विषय में लिखने का मन बनाया. एक और आलेख भी डालूँगा. बहाना नई पीढी का है; पर मूल प्रवासी पीढी भी विकृत मानसिकता रखती देखी है. सारे आगे बढने में व्यस्त हैं. कहाँ जाना है; नहीं जानते.
आप की टिप्पणी के लिए हृदयतल से धन्यवाद.
डॉ. मधुसूदन जी द्वारा माता-पिता पर लिखा निबंध पढ़ा जो मेरे विचार में विषय को पुस्तकों से बाहर ला माता-पिता के प्रति हमारे व्यक्तिगत स्वभाव व व्यवहार को कुशलतापूर्वक चुनौती देता दिखाई देता है| निबंध को पढ़ते अकस्मात् संयुक्त राष्ट्र अमरीका में उन्नीस सौ अस्सी के दशक में टीवी पर देखे “हाईवे टू हैवन” नामक सामाजिक नाटक श्रृंखला याद हो आई जिसमें एक देवदूत और पृथ्वी पर उसके सहायक द्वारा जीवन में सुख-शान्ति हेतु अंतर्व्यक्तिक संबंधों में समन्वय को प्रोत्साहित किया गया है| स्वयं मेरी रूचि व्यक्तिगत स्वभाव व व्यवहार में होने के कारण मैं किसी भी स्थिति को विभिन्न पहलुओं से देखता हूँ और मेरी समझ में हमारी भारतीय संस्कृति में “मर्यादा का पालन” एक ऐसी अलौकिक देन है जो सामान्य मनुष्य को उसके नैतिक व कर्तव्यपरायण आचरण को दिशा देने में सामर्थ्य है| शेष सब अपने अपने भाग्य पर निर्भर है!
आप के प्रोत्साहन से और एक आलेख बन रहा है. पूरा होने पर प्रवक्ता को भेज दूँगा. यहाँ पूर्वी अमरिका में आँधी ने ४-५ दिन ऊर्जा आपूर्ति में कठिनाई रही.
आप सदैव सुलझी हुयी टिप्पणी दिया करते हैं. मुझे टिप्पणियों से दिशा मिल जाती है, और विचार के लिए सामग्री भी.
अतः धन्यवाद. लेखक टिकता और लिखता भी है, तो, उसकी ऊर्जा का आंशिक दिशा और प्रेरणा प्रबुद्ध टिप्पणीकारों की होती है. फिर से धन्यवाद.
धन्यवाद इन्सान जी
आपकी निम्न पंक्तियों का केन्द्रीय विचार बहुत महत्वपूर्ण है. पाठकों के सामने बार बार
लाने योग्य है. अद्वैत वेदान्त की दिशा (मेरी दृष्टि में) यही प्रारंभ करवाता है.
==> *मैं किसी भी स्थिति को विभिन्न पहलुओं से देखता हूँ और मेरी समझ में हमारी भारतीय संस्कृति में “मर्यादा का पालन” एक ऐसी अलौकिक देन है जो सामान्य मनुष्य को उसके नैतिक व कर्तव्यपरायण आचरण को दिशा देने में सामर्थ्य है|*
आप की इस टिप्पणी से आलेख सफल है. मुक्त टिप्पणी देते रहें.
विनय सहित –मधुसूदन