क्या हमें युवा दिवस मनाने का हक है?

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आज पूरे देश में स्वामी विवेकानंद का जन्म दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इस मौके पर बड़े-बड़े आयोजन और महात्माओं के भाषण से युवाओं के चरित्र निर्माण और मूल्यपरत जीवन जीने की आशा की जाती है। युवाओं के हमदर्द होने का ढोंग करने वाले भाषणबाज मंच पर आकर माला धारण करते हैं और लच्छेदार भाषण देकर खूब तालियां बटोरते हैं, लेकिन अगर कुछ नहीं बदलता है तो वो है युवाओं की दुर्दशा। भूखे पेट भजन नहीं गोपाला की मान्यता वाले इस देश में सबसे बेवकूफ यूवा ही है, जिनसे खाली पेट नैतिक जीवन जीने की तमन्ना की जाती है और रोजगान देने के नाम पर उनकी चुनी हुई सरकारें ही उनका शोषण करतीं हैं।
बेरोजगारी की वजह से देश का पढ़ा लिखा नौजवान दर-दर भटक ने को मजबूर हो रहे हैं । हालांकि इस समस्या से निपटने के लिए सरकारी अफसरों और बाबूओं की एक बहुत बड़ी फौज खड़ी की गई है। ये अधिकारी और बाबू राज्यों की राजधानी से लेकर मंडल और फिर जिला स्तर तक फैले हुए हैं। जिस पर सरकार सालाना अरबों रूपये खर्च करती है, लेकिन इन रोजगार अधिकारियों का दफ्तर एक कागजी खाना पूर्ती का अड्डा भर रह गया है। यहां पर सिवाए बेरोजगारों के रजिस्ट्रेशन के अलावा और कुछ नहीं होता है। यहां बैठे स्टाफ खुलेआम कहते है कि भर्ती तो अब प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से होती है। अगर आपको रजिस्ट्रेशन कराना हो, तो करा लें।
प्रतियोगी परीक्षा का नाम सुन कर अगर आप सोच रहे होंगे कि इस माध्यम से सिर्फ उन्ही लोगों को रोजगार मिलता होगा जो मेधावी होते होंगे, तो आप गलत सोच रहे हैं। दरअसल प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से होने वाले सरकारी नौकरियों की चयन प्रक्रिया खामियों का पिटारा है। ये खामियां कई स्तरों पर है, लेकिन इन खामियों की शुरूआत वैकेंसी के विज्ञापन के साथ ही शुरू हो जाती है। फॉर्म भरने के लिए ही इतने नियम कानून जोड़ दिये जाते हैं कि अभ्यर्थियों के पसीने छूट जाते हैं। पहली शर्त होती है कि ऐप्लीकेशन फॉर्म के साथ शैक्षणिक, आयू, जाति और आय प्रमाण पत्रों की फोटो कापी किसी राजपत्रित अधिकारी से सत्यापित करके लगाएं। कभी-कभी तो ये शर्तें भी होती है कि दो राजपत्रित अधिकारियों से निगर्त चरित्र प्रमाण पत्र भी संलग्न करें। अब सवाल ये पैदा होता है कि अगर कोई अधिकारी जब किसी को जानता पहचानता नहीं होगा तो वे भला किसी को कैसे चरित्र प्रमाण पत्र जारी कर देगा। इसका अर्थ ये है कि जिनकी जान पहचान राजपत्रित अधिकारियों से नहीं है वे इस आवेदन के लिए अयोग्य है, जोकि सीधे साधे रोजगार पाने के अधिकार का उलंघन है। इन खाना पूर्तियों के लिए अभयर्थियों को एक तरफ जहां नौकरशाहों के दफ्तर के चक्कर काटने पड़ते हैं, वहीं नौकरशाहों के एक हस्ताक्षर के लिए हाथ जोड़ कर मिन्नत करनी पड़ती है। इससे एक तरफ अफसरों का कीमती समय जाया होता है। वहीं अभ्यर्थियों को मांसिक वेदना झेलनी पड़ती है। अब सवाल ये पैदा होता है कि चयन होने के बाद ज्वाइनिंग से पहले जब अभ्यर्थियों के सारे डोक्यूमेंट्स चेक किये जाते हैं, तो फिर इस तरह की शर्तों का क्या औचित्य है। आखिर क्यों नहीं सेल्फ अटैच्ड की सुविधा दी जाती है।
दूसरे नम्बर पर जो बात अभ्यर्थी को सबसे ज्यादा परेशान करती है। वह है भारी भरकम फीस। अभी-अभी यूपी में बीएड कौमन एंट्रेंस परीक्षा के नाम पर जनरल और ओबीसी के अभ्यर्थियों से 800-800 रूपये वसूले गए। वहीं बीटीसी के लिए जेनरल और ओबीसी से 400-400 रूपये और एससी व एसटी वर्ग के अभ्यर्थियों से 200-200 रूपये वसूले गए। बीटीसी में तो एंट्रेंस एग्जाम नाम की कोई चीज ही नहीं थी। सिर्फ मैरटि के आधार पर अभ्यर्थियों का चयन होना था । इसे देख कर तो इस महान लोकतंत्र में सरकारो के जनता के प्रति जवाबदेह होने की बात सीधे -सीधे छलावा सा लगता है, अगर सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती तो यूपी सरकार फीस तय करने से पहले हज़ार बार सोचती कि मैरिट लिस्ट तैयार करने के लिए कितनी फीस तय की जाए और वो किसी भी हाल में ऐप्लीकेंट से चार सौ रूपये नहीं वसूलती। रोग्जगार परक शिक्षा और रोग्जगार देने के नाम पर राजस्व वसूली की सरकारी पॉलिसी के कारण बहुत से अभ्यर्थी तो कई बार फीस नहीं होने की वजह से फॉर्म भी नहीं भर पाते हैं। अब सवाल ये पैदा होता है कि सरकारें बेरोजगार यूवाओं पर इस तरह का जुल्म किस अपराध के बदले में कर रही है। कायदे में तो फीस की राशि इतनी होनी चाहिए कि परीक्षा पर होने वाले खर्च को वहन किया जा सके। न कि वैकेंसी को राजस्व वसूली का जरिया बनाया जाना चाहिए। एक तरफ तो सरकार बेरोजगारों को रोजगार दिलाने की व्यवस्था करने के नाम पर रोजगार अधिकारियों के कार्यालयों पर अरबों रूपये खर्च करती है। वहीं दूसरी ओर बेरोजगार यूवाओं को कामधेनु गाय समझ कर दूहने में लगी है।
इन समस्याओं का सामना करते हुए जो लोग आवेदन करते हैं। उनके लिए भी शर्ते होती है कि फीस की राशि ड्राफ्ट से जमा करें। इसमें भी ये शर्त होती है कि ड्राफ्ट किसी राष्ट्रीयकृत बैंक का होना चाहिए। एक तो फीस की राशि उपर से ड्राफ्ट बनाने का चार्ज जो कहीं भी 25 रूपये से कम नहीं है। बात यहीं पर खत्म नहीं होती है। आज पब्लिक सेक्टर के बैंकों की जो हालत है, वह किसी से छिपी नहीं है। ज्यादातर बैंकों में किसी काम के लिए सुबह जाने पर लाईन में लगे-लगे शाम हो जाती है। लाइन छोड़ कर न तो कोई पानी पी सकता है और नहीं कोई और काम ही कर सकता है। इससे एक ओर जहां अभ्यर्थीयों पर आर्थिक बोझ पड़ता है। वहीं दूसरी ओर कीमती समय की बर्बादी के साथ ही मांसिक पीड़ा भी झेलनी पड़ती है। ऐसा नहीं है कि इस व्यवस्था से सिर्फ अभ्यर्थीयों को ही परेशानी होती है, बल्कि बैंक भी इससे अछूता नहीं है। किसी खास मौके पर छात्रों की बढ़ती भीड़ से बैंक का सारा निजाम ही ठप हो जाता है। जिससे नियमित ग्राहकों को भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आखिर ई-ग्वर्नेंस की बात करने वाली हमारी सरकारें क्यों नहीं डेबिट कार्ट, क्रेडिट कार्ड या फिर पोस्टल आर्डर को भी इसमें शामिल करती है, ताकि अभ्यर्थी को जिस में सहूलत हो उसका इस्तेमाल करें। सबसे अच्छी बात तो ये है कि फॉर्म के मूल्य के रूप में ही फीस की पूरी राशि वसूल ली जाए। जैसा कि वर्ष 2010 के यूपी. बी.एड कॉमन एंट्रेंस टेसेट में हुआ है। इतना जतन करने के बाद भी परीक्षा कब और कहां होगी ये किसी को मालूम नहीं होता है। कई बार तो फॉम भरने के चार-चार साल बाद एडमिट कार्ड भेजा जाता है। हालत ये होती है कि परीक्षार्थी ये भूल चुका होता है कि उसने कभी कोई आवेदन भी किया था। ऐसे में अभ्यर्थियों के किए कराए यानी पूरी तैयारी पर पानी फिर जाता है। ऐसा ही कुछ यू.पी. पी.एस.सी. में हुआ है। यहां जो आवेदन पत्र साल 2004 मंगाए गए थे। उसका इम्तिहान साल 2008 में लयि गया। आखिर नेट और यूपी.पी.एस.सी. की परिक्षा की तरह सभी विभाग वैकेंसी के साथ ही परीक्षा की तिथि और समय का ऐलान कर उसी तारीख पर परीक्षा लेने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती हैं।
इन सभी परेशानियों का सामना करते हुए अगर किसी प्रकार परीक्षा दे भी दी, तो फिर बारी आती है रिजल्ट से जुड़ी लेटलतीफी और अनयिमित्तओं से जुड़ी परेशानी की। जिन परीक्षाओं में प्री, मेंस और फिर इन्टरव्यूह की व्यवस्था है, वहां यू.पी.एस.सी. और एस.एस.सी को छोड़ कर किसी का भी समय निश्चत नहीं है। कई परीक्षाएं तो ऐसी होती है जिस में परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कॉल लेटर तक नहीं भेजे जाते हैं। रिजल्ट जानने के लिए परीक्षार्थी को पूरी तरह रोजगार समाचार पत्र या फिर नेट पर निर्भर रहना पड़ता है। अगर अभ्यर्थी किसी वजहकर रोजग़ार समाचार पत्र का कोई अंक चूक गया तो परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी उसके किए कराए पर पानी फिर जाता है। अगर भेजा भी जाता है तो तो वह भी साधारन डाक से। जिसकी पोस्टल जिपार्टमेंट में कोई अकाउंटेबिलिटी नहीं होती है। कई बार तो ऐसा होता है कि इन्टरव्यूह के बाद डाकिया कॉल लेटर लेकर पहुंचता है। जब फीस के नाम पर इतनी मोटी रकम वसूली जाती है तो आखिर क्यों नहीं पत्र व्यवहार स्पीडपोस्ट के जरिए की जाती है, जबकि आवेदन भेजने के लिए एक शर्त ये भी होती है कि रजिस्ट्री या फिर स्पीडपोस्ट से भेजे गए आवेदन ही स्वीकार होंगे।
इन सब परेशानियों को पार करते हुए जब अभ्यर्थी इन्टरव्यूह तक पहुंच जाते हैं तो वहां एक नया ही खेल शुरू होता है। साक्षात्कार एक मौखिक प्रक्रिया है। लिहाजा यहां पर साक्षात्कार लेने वाले की खूब मनमानी चलती है। दुख की बात तो ये है कि उन्हें कठघरें में खड़ा करने के लिए कोई सबूत नहीं होता है। जिसके नतीजे में साक्षात्कार के नाम पर भाई-भतीजीवाद, जातिवाद, संप्रदायिकतावाद और भ्रष्टाचार का नंगा खेल खेला जाता है। इस मौके पर दुराग्रह से भरे लोग किसी जाति या संप्रदाय विशेष के साथ खुल कर भेद-भाव करते हैं। यहीं वजह है कि आजादी के छ: दसक बीत जाने के बाद भी आज न सिर्फ हमारे समाज में असमानता कायम है, बल्कि दिन-बदिन बढ़ती ही जा रही है। जिसे पाटने के लिए अलग-अलग जाति और धर्म के लोगों ने अब आरक्षण की मांग शुरू कर दी है। जहां देश की दबी कुचली जातियां आरक्षण की मांग कर रही है। वहीं अब तक 100 प्रतिशत मलाई चट करने वाले दबे कुचले लोगों की इस मांग को देश को बांटने वाली कृत बता कर निंदा कर रहे हैं। अब सवाल ये पैदा होता है कि ये कौन से शास्त्र में लिखा है कि अशक्त को सशक्त बनाने से देश कमजोर होगा। अगर आरक्षण में कोई खामी है तो उसे दूर किया जाए। इसका ये मतलब तो नहीं की आरक्षण को ही समाप्त कर दिया जाए। अगर पिछले साठ सालों से भेद-भाव नहीं होता तो आज आरक्षण की मांग ही क्यों उठती। आरक्षण विरोधियों का अपना ही घिसा-पिटा तर्क है। वे कहते है कि आरक्षण के माध्यम से अयोग्य व्यत्कियों का चयन होता है, जिससे देश का भला होने वाला नहीं है, लेकिन दसकों से साक्षातकार के नाम पर भाई-भतीजावाद, जातिवाद, संप्रदायिकतावाद और भ्रष्टाचार का नंगा खेल खेला जाता रहा तो इसके विरोध में उस तरह की आवाजें नहीं सुनाई देती है, जैसा कि आरक्षण के विरोध में सुनाई देती है, जबकि इन्टरव्यूह में जो खेल खेला जाता है उससे सूबे के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधान मंत्री तक सभी वाकिफ है। यहीं वजह है कि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने अपने समय में कई भर्तियों में इन्टरव्यूह को यह कहते हुए समाप्त कर दिया था कि साक्षात्कार भ्रष्टाचार का केन्द्र है। वहीं सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में देशभर के मुसलमानों की बदतरीन हालत सामने आने पर केन्द्र की यूपीए सरकार ने प्रत्येक साक्षात्कार कमेटी में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की बात कही है। भेद-भाव और भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुके प्रक्रिया में साक्षात्कारकर्ता की टीम में किसी जाति या समुदाय को प्रतिनिधित्व देने से इस समस्या का हल नहीं होने वाला है। अब ये तय करने का समय आ गया है कि क्या सरकारी पदों पर चयन के लिए साक्षात्कार जरूरी है या इसकी जगह कोई और विकल्प भी हो सकता है? शायद भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के लिए इसका विकल्प न हो, लेकिन इसका आसान सा विकल्प है, नेट परीक्षा का पैटर्न। गौरतलब है कि नेट परीक्षा में तीन पेपर होते है। इसमें पहला और दूसरा ऑब्जेटिव होता है, जबकि तीसरा पेपर विरणात्मक होता है। ये तीनों पेपर एक साथ होते हैं, लेकिन जब अभ्यर्थी पहले और दूसरे पेपर में पास हो जाता है तभी तीसरा पेपर चेक किया जाता है। ठीक इसी तरह दूसरे प्रतियोगी परीक्षाओं में भी मुख्य परीक्षा के साथ ही इन्टरव्यूह से सम्बंधित प्रश्न पूछे जा सकते हैं। जब परीक्षार्थी पहले पेपर को पास करलें फिर साक्षात्कार से सम्बंधित उत्तर चेक कर फाइनल रिजल्ट घोषित किया जा सकता है, जैसा कि जेएनयू में एंट्रेंस एग्जाम के दौरान किया जाता है। ऐसा करने से जहां भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगा। वहीं परीक्षार्थी को बार-बार आने जाने से भी निजात मिल जाएगी।
54 करोड़ यूवाओं के इस देश में, यूवाओं का वोट हासिल करने के लिए तो सभी राजनीतिक पार्टियां यूवाओं का हमदर्द होने का दम भर्ती है, लेकिन बेरोजगारी का दंश झेल रहे इन यूवाओं की इस परेशानी की चिंता शायद ही किसी को है।

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