हमें भारतीयों की दिग्विजयों से परिचित नही कराया जाता

fightersभारतीय इतिहास को अत्यंत दुर्बल और कायर हिंदू जाति का इतिहास सिद्घ करने के लिए तथा यहां 1235 वर्ष तक चले स्वतंत्रता संघर्ष को उपेक्षित करने के लिए हमें भारतीय शासकों के विश्व विजयी अभियानों से अथवा उत्सवों से परिचित नही कराया जाता है।

 

देश की महानता के मापदण्ड

जब आप किसी जाति के इतिहास को और गौरवपूर्ण अतीत को समझने का प्रयास करते हैं तो सर्वप्रथम उस जाति के अथवा देश के गौरवपूर्ण अतीत के मंचन के लिए आपको कुछ मापदण्ड निश्चित करने ही पड़ते हैं जैसे-

 

  • -उस देश की प्राचीन भाषा ने समकालीन इतिहास को कितना प्रभावित किया?
  • -उस देश की संस्कृति ने, धर्म और जीवन प्रणाली ने विश्व को कितना प्रभावित किया?
  • -उस देश की शिक्षा प्रणाली ने विश्व की उन्नति में कितना योगदान दिया?
  • -उस देश की राजनीतिक विचारधारा ने विश्व को कौन सा दर्शन दिया?
  • -उस देश की चिकित्सा प्रणाली ने विश्व की चिकित्सा प्रणाली को किस प्रकार प्रभावित किया?
  • -उस देश के आध्यात्मिक दर्शन ने मानवता का कितना हित किया?
  •  -उस देश की शिल्प-विद्या, वास्तु कला और स्थापत्य कला ने विश्व का किस प्रकार मार्गदर्शन किया?

आप इन बिंदुओं पर भारत के विषय में यदि विचार करें तो ज्ञात होता है कि भारत ने इन सभी मापदंडों पर खरा उतरकर अतीत में अपनी सार्वत्रिक धाक जमाई है। इस विषय पर लिखना यहां उचित नही होगा। यहां संक्षेप में ही प्रसंग वश विचार किया जाना उचित है। परंतु विचार करते करते हम ये भी देखने का प्रयास करें कि जो देश इतनी महान विरासत को लेकर चल रहा हो उसे आप गुलाम कैसे बना सकते हैं? अंतत: इतिहास की उच्च परंपराएं और उनका गौरव बोध ही था जिन्होंने भारतीयों को पतन के उस काल में भी स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया?

 

भाषा आदि के मापदण्ड

भारत की भाषा आदि के उपरोक्त सभी बिंदुओं ने विश्व को बड़ी गहराई से प्रभावित किया है इसीलिए रोम्यां रोलां ने कहा था-‘यदि संसार में कोई ऐसा देश है जहां जीवित मनुष्य के सभी सपनों को, उस प्राचीनकाल से जगह मिली है, जब से मनुष्य ने अस्तित्व का सपना प्रारभ किया तो वह भारत है।’

भारत की प्राचीन आर्यभाषा संस्कृत ने विश्व संस्कृति का निर्माण किया। सारी विभिन्नताओं को एकता में समेटने का कार्य संस्कृत भाषा करने में इसलिए सफल रही, क्योंकि इस भाषा में सोचने वाले प्राचीन आर्य लोग अपने वैदिक चिंतन से एक शांतिमयी वैश्विक-बंधुत्व आधारित विश्व-व्यवस्था के उपासक थे। इसलिए अपनी इस वैश्विक व्यवस्था की स्थापनार्थ उन्होंने ‘एक भाषा’ को विश्व के लिए अनिवार्य किया। आज कल विश्व में जितनी भी भाषाएं हैं उन सबमें प्राचीन संस्कृत के प्रचुर शब्द मिलते हैं। हर भाषा में संस्कृत शब्दों की उपलब्धता यही संकेत करती है कि संपूर्ण विश्व कभी एक भाषा से और एक संस्कृति से शासित और अनुशासित रहा है। विभिन्न भाषाओं के ऐसे शब्दों को भारत के भाषाविदों ने ही नही अपितु विश्व के भाषाविदों ने भी खोजने का श्लाघनीय प्रयास किया है।

 

पराभव और धर्म

भारत के आर्यजन प्राचीन काल से ही भाषा और संस्कृत के क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करते आ रहे थे। इसलिए जब उनकी भाषा व संस्कृति पर विदेशियों का आक्रमण हुआ, तो इस देश की आत्मा आंदोलित हो उठी। राजनीतिक पराभव को धर्म ही उठाता है, और धर्म ही गतिशील करता है-उस मरणासन्न व्यवस्था को जो विश्व के लिए अनिवार्य है। इसलिए जब भारत पतन की ओर जा रहा था तभी उसे उस पतितावास्था से उबारकर पुराने वैभव पूर्ण दिनों में लौटाकर ले चलने का प्रयास होना भी आवश्यक था। इसलिए राष्ट्रचिंतक लोगों ने अपनी साधना जारी रखी।

विक्टर कोसिन का कथन है-‘जब हम पूर्व की ओर उसमें भी शिरोमणि स्वरूप भारत की साहित्यिक एवं दार्शनिक वृत्तियों का अवलोकन करते हैं, तब हमें ऐसे अनेक गंभीर सत्यों का पता चलता है, जिनकी उन निष्कर्षों से तुलना करने पर जहां पहुंच कर यूरोपीय प्रतिभा कभी कभी रूक गयी है, हमें पूर्व के तत्वज्ञान के आगे घुटना टेक देना पड़ता है।’

भारत की भाषा का आदर्श था-विश्व भ्रातृत्व की स्थापना करना, और भारत की संस्कृति का आदर्श था सुर संस्कृति को स्थापित करना। वास्तव में विश्व भ्रातृत्व और सुर संस्कृति की स्थापना करना मानव का सपना नही है, अपितु ऐसा करने और ऐसा बनने का उसके द्वारा ईश्वर को दिया गया वचन है। इसलिए भारत का धर्म अपने इसी वचन के निर्वाह के लिए कृतसंकल्प रहता है। इसीलिए भारत का धर्म अहिंसा है। वह आपदकाल में अहिंसा की रक्षार्थ ही हिंसा करता है। इसीलिए भारतीय क्षत्रियों के विजय अभियानों में कभी निर्दोषों और निरपराधों का रक्त नही बहाया गया।

 

ईश्वर के प्रति वचन भंग

जब मानव का परिचय मजहब (सम्प्रदाय) से हुआ तो मनुष्य अपनी मानवता से गिरा और उसने ईश्वर को दिया गया अपना वचन भुला दिया। 1000 ई. के लगभग या उससे पूर्व सन 712 से जो लोग आक्रांता के रूप में यहां आ रहे थे उनका मजहब उन्हें एक विशेष वर्ग के लोगों को मिटाकर विश्व भ्रातृत्व और सुर संस्कृति स्थापित करने के लिए भटका रहा है। इसलिए अब ये दोनों चीजें एक सपना बनकर रह गयी हैं। जब भारतीयों ने ऐसे आक्रांताओं को अपनी पवित्र भूमि पर आते देखा तो उन्होंने तलवार से उनका प्रतिकार किया।

हममें और इन आक्रांताओं में अंतर इतना ही था कि हम मात्स्य न्याय से बहुत आगे निकल चुके थे और ये मात्स्य न्याय की ओर विश्व को ले जाना चाहते थे। इसलिए संघर्ष अनिवार्य था। हम एक व्यवस्था के अनुयायी और संस्थापक थे, जबकि ये लोग व्यवस्था को तार तार करके रख देना चाहते थे। इसलिए न्यायपूर्ण व्यवस्था को बनाये रखने हेतु लंबे संघर्ष के लिए भारत ने कमर कस ली।

 

विश्व पर भारत का ऋण

 

आज विश्व पर भारत का भारी ऋण है, क्योंकि विश्व में यदि कहीं नैतिकता है, या न्याय है तो वह भारत के उस अथक संघर्ष का परिणाम है, जिसे उसने 1235 वर्ष तक संघर्ष करते करते किसी प्रकार बचाने में सफलता प्राप्त की है। इस संघर्ष को ‘पराधीन भारत का पूर्ण पराभव काल’ कहना अन्याय और अनैतिकता का समर्थन करना होगा।

कथित पराभव के इस काल में हमने इतिहास बनाया-अपने बलिदानों का और इतिहास ने हमें बनाया अपने वरदानों से। पर, दुख की बात ये रही कि कमाया तो हमने पर खाया किसी और ने। इतिहास हम बनाते रहे और इतिहास कोई और लिखता रहा। इसलिए संपूर्ण भारत में जब मंदिरों की स्थापना हो रही थी तो स्थापत्य कला भारत में सिर चढ़कर बोल रही थी। वास्तुकला विदेशियों को अचंभित करती थी, परंतु इतिहास लेखन में इस ‘मंदिर क्रांति’ को तथा इसके पवित्र उद्देश्य (राष्ट्र और धर्म जागरण) को उचित स्थान नही दिया गया। यदि इतिहास में इस क्रांति के पवित्र उद्देश्य को स्थान दिया जाता तो ‘मंदिर क्रांति’ कभी भ्रांति का शिकार नही बनती। वह जैसी दिव्य थी कैसे ही भव्य भारत का निर्माण कराने में सहायक हो जाती। यहां ‘मंदिर क्रांति’ को अलग तथा राजनीतिक उत्थान पतन को अलग कहानी के रूप में निरूपति किया गया। अंत में निष्कर्ष केवल पतन तक सीमित होकर रह गया। इसलिए ‘मंदिर क्रांति’ अपनी भव्यता से भटक गयी और उस पर कई स्थानों पर अपात्र लोगों का कब्जा हो गया।

 

स्थानों के संस्कृत सूचक नाम

भारत ने अपने विश्व साम्राज्य के काल में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृत सूचक प्रांतों, क्षेत्रों अथवा देशों के नाम रखें। जैसे बलूचिस्थान, अफगानिस्थान तुर्कीस्थान, कुर्दिस्थान, अर्बस्थान, कजाकिस्थान, उजबेकिस्थान आदि शब्दों में संस्कृत का स्थान प्रत्यय लगा है, जो भारत के चक्रवर्ती सम्राटों के विजय अभियानों का उत्सव मना रहा है। ब्रह्मदेश (म्यांमार) जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहपुर, इराक, ईरान आदि भी संस्कृत सूचक शब्द है। इसके अतिरिक्त विश्व के अन्य सभी प्रांतों में भी वैदिक संस्कृति के अवशेष मिलते हैं।

 

हम व्यक्ति को जोड़ें

किसी व्यक्ति ने अथक प्रयासों से विश्व का मानचित्र तैयार किया। वर्षों के परिश्रम से उसने यह मानचित्र तैयार किया था। मानचित्र तैयार होने पर संयोग से वह इसे अपने पुस्तकालय में रखकर कहीं बाहर चला गया। तभी उनका एक चार पांच वर्ष का बच्चा उस कक्ष में घुसता है और अपने पिता द्वारा बनाये गये विश्व मानचित्र को टुकड़े टुकड़े कर फाड़ डालता है। घंटे दो घंटे बाद बच्चे का पिता आता है तो अपने वर्षों के परिश्रम पर बच्चे की नादानी से फिरे पानी को देखकर वह बहुत दुखी होता हैै। दुखी मन से वह उस मानचित्र को जोड़ने लगता है, पर टुकड़े थे कि एक साथ जुड़ने में ही नही आ रहे थे। तब तक उनकी पत्नी भी कक्ष में आ चुकी थी। उसने पति की दुखितावस्था में हाथ बंटाने के लिए अंतत: एक युक्ति खोजी।

पत्नी ने पतिदेव से कहा कि इस मानचित्र के दूसरी ओर एक मनुष्य का चित्र इस कागज पर बना हुआ है। आइए, पहले उसी को जोड़ते हैं। अब मनुष्य को दोनों ने जोड़ना आरंभ किया, और जब वह जुड़ गया तो दोनों ने कागज को जैसे ही पलटा तो देखकर अत्यंत प्रसन्न हो उठे। क्योंकि व्यक्ति के जुड़ने से संसार भी जुड़ गया था।

हमें भी विश्व के संदर्भ में यही करना था। बड़े यत्न से हमने सुसंस्कृत संसार बनाया था जिसे कुछ बच्चों ने फाड़ डाला। अब यदि हम इसे जोड़ना चाहते हैं, तो यत्र तत्र भारत के इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों के टूटे फूटे टुकड़ों को एक साथ करके जोड़ना होगा।

 

हिंदुओं की दिग्विजय

हिंदुओं ने जब अपनी दिग्विजय की तो उनका उल्लेख करते हुए वीर सावरकर लिखते हैं-साधारणत: सन 550 के बाद हिंदू राजाओं ने सिंधु नदी को विभिन्न मार्गों से लांघकर आज जिन्हें बलोचिस्तान , अफगानिस्तान, हिरात, हिंदूकुश गिलगित, कश्मीर इत्यादि कहा जाता है, और जो प्रदेश सम्राट अशोक के पश्चात वैदिक हिंदुओं के हाथ से यवन, शक, हूण आदि म्लेच्छों ने छीनकर लगभग पांच सौ वर्ष तक अपने अधिकार में ले रखे थे, वे सिंधु नदी के पार के समस्त भारतीय साम्राज्य के प्रदेश उन सभी म्लेच्छ शत्रुओं को ध्वस्त करते हुए वैदिक हिंदुओं ने फिर से जीत लिए।…एक समय ऐसा भी था कि जब कश्मीर के उस पार मध्य एशिया के खेतान में भी हिंदू राज्य प्रस्थापित थे। इतिहासकारों के अनुसार गजनवी में भी राजा शिलादित्य शासन करते थे।’ इतिहासकार स्मिथ ने भी यही कहा है। उनका कथन है-‘हिंदुओं के हाथों मिहिरगुल की पराजय तथा हूण शक्ति के संपूर्ण विनाश होने के उपरांत लगभग पांच शताब्दी तक भारत ने विदेशी आक्रमणों से मुक्ति का अनुभव किया। भारत के इन राजाओं के विश्व विजयी अभियानों को बड़ी सावधानी से इतिहास से हटा दिया गया है।’

 

पाचन शक्ति की दुर्बलता

 

जो हिंदू स्वधर्म को किसी भी कारण से त्यागकर मुस्लिम बन गये थे या बना दिये गये थे, उनकी बड़ी संख्या ने आदि शंकराचार्य से प्रार्थना की कि वे उन्हें पुन: हिंदू बना लें। परंतु शंकराचार्य से भूल हुई और उन्होंने कह दिया कि दूध से मठ्ठा तो बन सकता है परंतु मठ्ठे से दूध नही बना करता है। इसलिए वापस जाओ और वहीं रहो।

शंकराचार्य की इस निराशाजनक टिप्पणी से बलात् धर्मान्तरित वैदिक धर्मियों को बड़ी ही ठेस पहुंची। परंतु आदि शंकराचार्य के स्वर्गारोहण के पश्चात उन्हीं के उत्तराधिकारी ने युक्ति से काम लिया। वह उदार थे और उदारतावश बिछ़ुड़े भाईयों को गले लगाकर संगठन शक्ति को बढ़ाने के पक्षधर थे। अत: बिछुड़े हुए भाई पुन: अपने शंकराचार्य के पास आए। तब अपने गुरू की बात को भी सम्मान देते हुए उन्होंने इन मुस्लिम बने हिंदुओं से कह दिया कि मैंने एक ताबीज बनाकर अमुक पीपल के वृक्ष पर रख दिया है। आप उसके नीचे से निकल जाइए। बस आप पुन: शुद्घ हो जाएंगे।

वैज्ञानिक आधार पर ताबीजों में कोई शक्ति नही होती, परंतु तत्कालीन रूढ़िवादी लोगों और अपने गुरू के प्रति विद्रोही होने के आघात से बचने के लिए शंकराचार्य ने यह युक्ति सोची थी। अर्थों को और संदर्भों को सही अर्थों में लेकर देखा जाए तो थोड़े पाखण्ड के साथ शंकराचार्य ने जो कार्य किया वह उनकी देशभक्ति का ही परिचायक था।

जिससे उन्होंने भारत के संत समाज की दुर्बल पाचन शक्ति को अपनी युक्ति से ठीक किया और बिछ़ड़े हुए भाईयों को मिलाने का प्रशंसनीय कार्य किया। जिस समय शंकराचार्य ये कार्य कर रहे थे, उसी समय हमारे क्षत्रिय वृहत्तर भारत में वृद्घि कर रहे थे। अत: स्पष्ट है कि सीमाओं पर ‘शस्त्र’ और घर में ‘शास्त्र’ अपने अपने कार्य का सफल संपादन कर रहे थे। भारत में राष्ट्रवाद की आंधी चली और जहां मुस्लिम आक्रांताओं ने अपना राज्य स्थापित कर लिया था, वहां से उन्हें भगाने के लिए हिंदुत्व की शक्ति उठ खड़ी हुई।

 

प्रबल शक्ति का उत्थान

 वीर सावरकर ने मुसलमान लेखकों को उदृत करते हुए इस संबंध में लिखा है-

 ‘प्रबल हिंदू काफिरों के भय से हम अरबों के बाल बच्चे, स्त्री, पुरूष, जंगल जंगल मारे फिरते हैं। हमारे द्वारा जीते गये सिंध प्रांत के अधिकांश भागों को पुन: जीतकर वहां हिंदुओं ने अपना राज्य स्थापित कर लिया है। हम निराश्रित अरबों के लिए ‘अल्लाह फजाई’ नामक किला ही एक मात्र शरण का स्थल बचा है। अरबी झण्डे के नीचे हमारे हाथ में केवल यही एक स्थान है। केवल राजकीय मोर्चे पर ही हम अरबों को धूल नही चाटनी पड़ी है, अपितु राजा दाहिर का कत्ल करने के पश्चात जिन हजारों हिंदुओं को सौ वर्ष के परिश्रम से हमने भ्रष्ट करके मुसलमान बनाया था और हिंदू स्त्रियों को दासी बनाकर मुसलमानों के घर घर घुसेड़ रखा था, उस धार्मिक मोर्चे पर भी हमारी वैसी ही दुर्गति हुई है। हिंदुओं में उत्पन्न क्रांतिकारी एवं प्रभावी आंदोलन के कारण इस्लाम द्वारा भ्रष्ट किये गये समस्त स्त्री पुरूषों ने फिर से अपना काफिर धर्म अपना लिया है।’

इस्लामिक जगत में छायी ऐसी निराशा सचमुच हमारे पराक्रम के सामने उसके द्वारा घुटने टेकने का प्रमाण है। मेधातिथि जैसे परम् विद्वानों ने इस समय (सन 800 से 900 के मध्य) शास्त्रों की युग सम्मत व्याख्याएं कीं और देशवासियों को पूर्ण पराक्रम के साथ इस्लाम की आंधी से टकराने का आवाहन किया।

मेधातिथि ने कहा था-‘आर्यावर्त्त पर म्लेच्छों के चढ़ाई करने के पूर्व ही उन पर आक्रमण कर देना चाहिए। एक बार शत्रु से शत्रु के रूप में टकराव होते ही फिर राजा को दया मया का विचार न करते हुए शत्रु को कुचल कर उसकी चटनी ही बना डालनी चाहिए। परकीय कपटी शत्रु को आवश्यक निमित्त बनाकर उसे कपट से ही मार गिराना चाहिए। युद्घ में ढीलापन, भोलापन, सीधापन और बोलचाल की सुसंगति व सभ्यपना आदि तथाकथित सदगुण राष्ट्रनाशक दुर्गुण सिद्घ होते हैं। इसलिए राजा के हित में यही है कि वह उनका शिकार न बने।’

मेधातिथि ने आर्यों को विश्व साम्राज्य अथवा चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। उसने आवाहन किया-‘आर्य धर्म ने यह आज्ञा कभी नही दी कि आर्य अपने को आर्यावर्त्त में ही बंद करके रखें।इसके विपरीत शास्त्रीय आज्ञाओं का मर्म यह है कि यदि बलशाली आर्य राजा आर्यावर्त्त के बाहर के म्लेच्छ राजाओं पर चढ़ाई करके उन्हें जीत ले और सर्वत्र आर्य धर्म का प्रचार करे तो वे समस्त म्लेच्छ देश भी आर्य देश माने जाएं और उन्हें भी आर्यावर्त्तीय साम्राज्य में समविष्ट कर लेना चाहिए।’

 

भारत की प्राचीन परंपरा

विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का पूर्ण पराक्रम से सामना करना हमारी राजकीय शक्ति ने इसलिए भी उचित माना था कि ऐसा करना हमारे यहां शास्त्र संगत था। महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठर को राजधर्म का उपदेश करते हुए कहा है-‘बलवान पुरूष को चाहिए कि वह दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना न करे, उसे छोटा न समझे, क्योंकि आग थोड़ी सी भी हो तो भी जला डालती है और विष अल्प मात्रा में होने पर भी मार डालता है।’ आगे भीष्म कहते हैं-‘कुरूनंदन! राजा को उचित है कि सात वस्तुओं की अवश्य रक्षा करे। वे सात वस्तुएं कौन सी हैं। यह मुझसे सुनो, राजा का अपना शरीर, मंत्री, कोष, सेना, मित्र, राष्ट्र तथा नगर-ये राज्य के सात अंग हैं। राजा को इन सबका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए।’ अत: जिस देश की परंपरा शत्रु के प्रति सदा सावधान रहने की तथा राष्ट्र की रक्षा में सदा तत्पर रहने की रही हो, उस देश से यह उपेक्षा नही की जा सकती कि वह बालू की दीवार की भांति पहले झटके में ही गिर गया होगा।

आश्रम वासिक पर्व के श्लोक 28 में धृतराष्ट्र युधिष्ठर से कहते हैं-‘कुंतीनंदन जब अपना पक्ष बलवान और शत्रु का पक्ष बलहीन हो उस समय शत्रु के साथ युद्घ छेड़कर विपक्षी राजा पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।’

भारत की इसी प्राचीन परंपरा का निर्वहन करते हुए विदेशी आक्रांताओं को पद दलित करने हेतु भारत की सेनाएं देश से बाहर निकलीं। इसी बात को मेधातिथि राजकीय शक्ति को यों बता रहे थे -‘दूसरे के और विशेषकर संभाव्य शत्रु के राज्य पर चढ़ाई करना राज्य शास्त्रानुसार कोई अन्याय नही होता। यही नही राजा का तो यह कर्त्तव्य भी है कि जब शत्रु दुर्बल हो जब हम पर आक्रमण करने की उसमें सामर्थ्य न हो तभी उस म्लेच्छ शत्रु पर आक्रमण करके उसे पीस डालना चाहिए।’

 

हिंदुओं का अजेय ध्वज

 

इस प्रकार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का फलितार्थ हमें बताते हुए वीर सावरकर लिखते हैं-‘जिस समय उत्तर में मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी हिंदुओं की एक के बाद दूसरी राजधानी, क्षेत्र के बाद क्षेत्र और मंदिर के बाद मंदिर उजाड़ते हुए हिंदू राज्य सत्ता को परास्त कर रहे थे और राजेन्द्र चोल के समान हिंदू सम्राट ब्रह्मदेश, पंगू, अंडमान, नीकोबार आदि पूर्वी समुद्र के द्वीप समूहों को अपनी विशाल जलवाहिनियों की वीरता से जीतते चले जा रहे थे, तथा उसके बहुत पूर्व से स्थापित जावा से लगाकर हिंदूचीन (इण्डोनेशिया) तक हिंदू राज्यों से संबंध स्थापित कर रहे थे। इधर पश्चिमी समुद्र में स्थित लक्ष्यद्वीप, मालद्वीप और अन्यान्य द्वीपसमूहों को जीतकर उसने सिंहलद्वीप पर भी अपना राज्य स्थापित किया था और उसी समय दक्षिण महासागर में हिंदुओं का अजेय ध्वज लहराया गया।’

पता नही, आज के इतिहासकारों को भारत का वह अजेय ध्वज आज तक क्यों नही दिखाई दिया? जबकि विदेशी आक्रांताओं का पराजित ध्वज उन्हें आज भी दिखाई दे रहा है। सचमुच यह एक छल है।

9 COMMENTS

  1. आर्य जी ने एक और मौलिक और मार्मिक विषय को प्रभावी ढंग से उठाया है. इस विषय ( आर्यों या हिन्दुओं की विश्व विजय, आर्यों का मूल स्थान भारत है ) पर विश्व भर के विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है जिसे सामने लाने की आवश्यकता है.

    • परम आ० डा० कपूर जी,
      सादर प्रणाम,
      विषयांतर के भय से इस विषय पर मेरी प्रस्तुत लेखमाला में अभी लिखा जाना उचित नहीं है। श्रद्धेय डा० मधुसूदन जी ने मा० तिवारी जी को उत्तर भी दे दिया है परंतु आपका यह कहना उचित ही है कि इस विषय पर अभी और भी लिखा जाए। आपके संकेत को समझ सकता हूँ। आज हमारे लिए उचित यह होगा कि हम आर्य या हिन्दू के विवाद से स्वंय को बचाएं। हिन्दू इसके उपरांत भी आज का वह घाट है जिसपर आर्यसमाजी,वैष्णवी,पौराणिक आदि सभी लोग निसंकोच पानी पी लेते है । आर्यसमाज का उद्देश्य भी किन्ही और\ लोगों से फलीभूत नहीं होगा बल्कि उसे पूर्ण कराने में भी सबसे अधिक विश्वसनीय साथी आर्यसमाज के लिए हिन्दू ही होगा। इसके उपरांत ही हमे अपनी मानसिकता को संकीर्ण नहीं बनाना है ।
      वसुधैव कुटुंबकम की भावना को सार्थक बनाने के लिए सार्थक प्रयास करने होंगे जिसमे हिन्दू की अहम भूमिका रहेगी इसलिए हिन्दू पर विवाद करना निरर्थक है ।
      सादर।

  2. shriram tiwari says:
    October 8, 2013 at 6:34 pm ===> “हिन्दू शब्द भारतीय या संस्कृत वांग्मय से उत्पन्न नहीं हुआ”
    —————————————————————————————————————–
    श्री. तिवारी जी के विचारार्थ।
    मेरी सोच और अध्ययन में, ऐसा नहीं है।
    हिन्दू शब्द का मूल सिंधु माना जा सकता है।
    विद्वान लेखक, स्व. “बेचरदास जीवराज दोशी” जी की “प्राकृत मार्गोपदेशिका” के ५४ वें पृष्ठ पर —२४ वे अनुक्रम में मूल (१) ’स’ को ’छ’ और (२) ’स’ को ’ह’ ऐसे दो प्रकार के परिवर्तन नियम बताकर कुछ उदाहरण भी दिखाए गए हैं। मुझे यहाँ (२)’स’ से ही संबंध जोडना है।
    (२)”स –>ह” का उदाहरण दिया गया है।
    दिवस–>(क)दिवह और (ख)दिअह और(ग) दिवस
    अब सुरती गुजराती में (जो एक प्राकृत भाषा मानता हूँ) प्रक्रिया देखिए।
    ===> मूल सुरत को भी गुजरात में सुरत, पर==> सुरत में, “हुरत” कहा जाता है।
    गुजराती में, सुपारी–से गुजराती सोपारी बनता है, पर सुरत में, “होपारी” का प्रयोग हुआ करता है।
    सीधी दिशा का —गुजराती “सिद्धी” दिशा होता है, पर सुरती गुजराती में “हिद्धी” दिशा हो जाता है।
    (३) स से निकट के “ष” का भी “ह” हो जाने के उदाहरण मिल ही जाएंगे।
    गुजराती में, पाषाण —>से पासाण और फिर “पाहाण” भी चलता है, और ह का लोप होकर ’पाण’ भी चलता है।
    अंतमें आपसे उपरोक्त तर्क धारा से, स्वतंत्र विचार करने का अनुरोध करता हूँ।
    संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है।

    • श्रद्धेय डा० मधुसूदन जी,
      सादर प्रणाम,
      बहुत उत्तम। सार्थक और सटीक उत्तर के लिए धन्यवाद।
      वास्तव में भाषा की विकृति का ही परिणाम है कि हमारी कई वैदिक मान्यताएँ या हमारे लिए राष्ट्रियता का बोध कराने वाले मानदंडों की लोगों ने भ्रामक व्याख्याएँ करली हैं। उनमे से हिन्दू और हिन्दुत्व भी है।
      सादर।

  3. हिन्दू शब्द भारतीय या संस्कृत वांग्मय से उत्पन्न नहीं हुआ,इसीलिये हिन्दू विश्व विजय या हिन्दू ‘दिग्विजय’ दोनों ही धारणाएं बकवास हैं . हाँ आर्यों ने जरुर विश्व विजय की थी किन्तु इसमें संदेह है की वे मूलतः भारत के थे या मध्य एसिया से सारे संसार में फैले .ऋग्वेद की रचना जरुर ‘पंचनद’ प्रदेश अर्थात ‘पंजाब’ में हुई थी किन्तु इसकी पूर्वपीठिका का सृजन एक लम्बी साहसिक और दीर्घकालीन ‘यायावर’ यात्रा के प्रतिनिधि आर्यों के नाम है .आर्यों में और हिन्दुओं में उतना ही अंतर है जितना ‘नार्मानो’ और अंग्रेजों में या फारस के आर्यों और आज के ईरानी मुसलमानों में . भारत में हिन्दू दिग्विजय जैसी कोई मिसाल नहीं है भारत के बौद्धों ने जरुर दुनिया में धूम मचाई थी किन्तु वो तलवार के जोर पर नहीं बल्कि अहिंसा, त्याग जैसे ‘पंचशील’ के सिद्धांतों से तत्कालीन भारत ने चीन ,तिब्बत,जापान,कोरिया ,हिन्देसिया श्रीलंका,म्यांमार मलाया ,लाओस ,वियतनाम और कम्बोडिया में भारतीय आर्यों अर्थात बोद्ध धर्म या दर्शन के झंडे गाड़े थे .भारत को यह जताने की जरुरत नहीं की वो जब -जब भी किसी विदेशी से हारा है तब -तब उसके ही आस्तीन के साँपों ने उसे डसा था . इतिहास में भारत [धर्मनिरपेक्ष भारत] ही जीता है वो भी सिर्फ एक बार यानि -१९७१ में .उसमें तत्कालीन सोवियत संघ की मदद का स्वर्णिम इतिहास भी
    यादरखा जाना चाहिए .

    • आ० तिवारी जी,
      आपके प्रति पूर्ण सम्मान भाव प्रकट करते हुए मेरा निवेदन है कि आर्यों और हिंदुओं में उतना ही अंतर है जितना चारों वेदों के ज्ञाता ऋषि और आज के चतुर्वेदी में हैं। हमारे नामों के पीछे लगने वाले विशेषणों का भी गौरवपूर्ण इतिहास रहा है लेकिन हमने ही इसकी सार्थकता को मिटा दिया है । हमने इतिहास उधारा लिया,संविधान उधारा लिया,मान्यताएँ उधारी ली और अपने आप को ही कोसने में हमने भलाई समझी है। यह केवल भारत वर्ष ही है जहां स्वंय को कोसने से ही व्यक्ति को विद्वता का सम्मान मिलता है जो स्वंय को कोसे नहीं और वस्तु परक और तथ्य परक इतिहास या अतीत का गुणगान करने का पुरुषार्थ करे उसे सांप्रदायिक कहा जाता है। इसी सोच के कारण हम राष्ट्रवाद की सही अवधारणा का विकास नहीं कर पाए। बड़े दुख की बात है कि आने वाली पीढ़ियों को हम तथ्यों को नकारने और वैचारिक मतभेदों की ऊंची ऊंची दीवारों के अतिरिक्त और कुछ नहीं देने जा रहे है । ऐसे लोग जो स्वंय को ही कोसते हैं वे उधारी मनीषा के सहारे चलने की प्रवृति से बाहर निकलें तो ही देश का कल्याण संभव है। आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद कि आपने मेरे लेख को पढ़ा और उसपर टिप्पणी देकर मुझे अपने प्रेम का पात्र बनाया।
      धन्यवाद।

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