क्यों ना हम पहले अपने अन्दर के रावण को मारें


“रावण को हराने के लिए  पहले खुद राम बनना पड़ता है ।“
विजयादशमी यानी अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि जो कि विजय का प्रतीक है।
वो विजय जो श्रीराम ने पाई थी रावण पर, वो रावण जो पर्याय   है बुराई का, अधर्म का ,अहम् का, अहंकार का और पाप का,
वो जीत जिसने पाप के साम्राज्य का जड़ से नाश किया।
लेकिन क्या बुराई हार गईं?
पाप का नाश हो गया?
क्या रावण वाकई मर गया?
युगों से साल दर साल पूरे देश में रावण का पुतला जलाकर दशहरे का त्यौहार मनाया जाता है।
अगर रावण सालों पहले मारा गया था तो फिर वो आज भी हमारे बीच जीवित कैसे है?
अगर रावण का नाश हो  गया था तो वो कौन है जिसने अभी हाल ही में एक सात साल के मासूम की बेरहमी से जान लेकर एक माँ की गोद ही उजाड़ दी?
वो कौन है जो आए दिन हमारी अबोध बच्चियों को अपना शिकार बनाता है?
वो कौन है जो हमारी बेटियों को दहेज के लिए मार देता है?
वो कौन है जो पैसे और पहचान के दम पर किसी और के हक को मार कर उसकी जगह नौकरी ले लेता है?
वो कौन है जो सरकारी पदों का दुरुपयोग करके भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है?
वो कौन है जो किसी दुर्घटना में घायल व्यक्ति के दर्द को नजरंदाज करते हुए घटना का वीडिओ बनाना ज्यादा जरूरी समझता है बजाए उसे अस्पताल ले जाने के ?
एक वो रावण था जिसने सालों कठिन तपस्या करके ईश्वर से शक्तियां अर्जित की और फिर इन शक्तियों के दुरुपयोग से अपने पाप की लंका का निर्माण किया था।
और एक आज का रावण है जो पैसे पद वर्दी अथवा ओहदे रूपी शक्ति को अर्जित करके उसके दुरुपयोग से पूरे समाज को ही पाप की लंका में बदल रहा है।
क्या ये रावण नहीं है जो आज भी हमारे ही अन्दर हमारे समाज में जिंदा है?
हम बाहर उसका पुतला जलाते हैं लेकिन अपने भीतर उसे पोषित करते हैं।
उसे पोषित ही नहीं करते बल्कि आजकल तो हमें राम से ज्यादा रावण आकर्षित करने लगा है
हमारे समाज में आज नायक की परिभाषा में राम नहीं रावण फिट बैठ रहा है
किस साजिश के तहत आधुनिकता कि आढ़ में  हमारे समाज के  नैतिक एवम सामाजिक मूल्यों की विचारधारा पर प्रहार कर के उन्हें बदलनें की कोशिशें की जा रहीं हैं ?
रावण जो कि प्रतीक है बुराई का अहंकार का अधर्म का आज तक जीवित इसलिए है कि हम उसके प्रतीक एक पुतले को जलाते हैं न कि उसे।
जबकि अगर हमें रावण का सच में नाश करना है तो हमें उसे ही जलाना होगा उसके प्रतीक को नहीं।
वो रावण जो हमारे ही अन्दर है लालच के रूप में, झूठ बोलने की प्रवृत्ति के रूप में, अहंकार के रूप में, स्वार्थ के रूप में,वासना के रूप में,आलस्य के रूप में, उस शक्ति के रूप में जो आती है पद और पैसे से,ऐसे कितने ही रूप हैं जिनमें छिपकर रावण हमारे ही भीतर रहता है, हमें उन सभी को जलाना होगा।
इसका नाश  हम  कर सकते हैं और हमें ही करना भी होगा।
जिस प्रकार अंधकार का नाश करने के लिए एक छोटा सा दीपक ही काफी है, उसी प्रकार हमारे समाज में व्याप्त इस रावण का नाश करने के लिए एक सोच ही काफी हैं।
अगर हम अपने आने वाली पीढ़ी को संस्कारवान बनाएंगे ,उन्हें नैतिकता का ज्ञान देंगे,स्वयं राम बनकर उनके सामने उदाहरण प्रस्तुत करेंगे तो इतने सारे रामों के बीच क्या रावण टिक पाएगा?
क्यों हम साल भर इंतजार करते हैं रावण वध के लिए?
वो सतयुग था जब एक ही रावण था लेकिन आज कलयुग है, आज अनेक रावण हैं।
उस रावण के दस सिर थे लेकिन हर सिर का एक ही चेहरा था जबकि आज के रावण का सिर भले ही एक है पर चेहरे अनेक हैं,
चेहरों पे चेहरे हैं जो नकाबों के पीछे छिपे हैं।
इसलिए इनके लिए एक दिन काफी नहीं है, इन्हें रोज मारना हमें अपनी दिनचर्या में शामिल करना होगा।
उस रावण को प्रभु श्रीराम ने तीर से मारा था,
आज हम सबको राम बनकर उसे संस्कारों से,ज्ञान से और अपनी इच्छाशक्ति से मारना होगा।
डॉ नीलम महेंद्र

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