हम जीत कर भी हार गये!

1
159

manजब कुछ अनचाहा सा,

अप्रत्याशित सा घट जाता है,

जिसकी कल्पना भी न की हो,

साथ चलते चलते लोग,

टकरा जाते हैं।

जो दिखता है,

या दिखाया जाता है,

वो हमेशा सच नहीं होता।

सच पर्दे मे छुपाया जाता है।

थोड़ा सा वो ग़लत थे,

थोड़ा सा हम ग़लत होंगे,

ये भाव कहीं खोजाता है।

कुछ लोग दरार को खोदकर,

खाई बना देते हैं,

जिसे भरना,

हर बीतते दिन के साथ,

कठिन होता जाता है।

माला का धागा टूट जाता है,

मोती बिखर जाते हैं।

आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला,

चलता है, समाप्त हो जाता है,

पूरा सच अधूरा ही रह जाता है।

सामने नहीं आता है,

अटकलों का बाज़ार लगता है,

मीडिया ख़रीदार बन जाता है।

आम  आदमी जहाँ था,

वही खड़ा रह जाता है।

1 COMMENT

  1. बिलकुल ठीक कहा बीनाजी आपने । यह एक बारीक सच है जिसे लोग देखकर और जानकर भी समझना नहीं चाहते ।

    जितेन्द्र माथुर

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here