हमें इतिहास में जीना छोड़ना होगा

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यह विवाद जोरों पर है कि सत्ता पक्ष देश के इतिहास को परिवर्तित कर नया इतिहास गढ़ रहा है जो उचित नहीं है। सत्ता हमेशा ही इतिहास का उपयोग अपनी नीतियों और विचारधारा को उचित ठहराने के लिए करती रही है और इतिहास की पुनर्व्याख्या होती रही है। वर्तमान कोशिश में नया कुछ भी नहीं है और यह सत्ता के चरित्र का एक वैसा ही उदाहरण है जैसा हम पहले भी देखते रहे हैं। यह कहा जाता है कि इतिहास विजेताओं के द्वारा लिखा जाता है और इसमें उनके गौरव गान के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। थॉमस कार्लाइल ने कहा इतिहास और कुछ नहीं बस महापुरुषों की जीवन गाथा है। इस प्रकार इतिहास लेखन की ग्रेट मैन थ्योरी का जन्म हुआ। स्पेंसर(1860) ने इसमें संशोधन किया और कहा कि महान व्यक्ति अंततः अपने समाज की पैदाइश हैं और इनके कार्य इनके जीवनकाल से पूर्व मौजूद सामाजिक परिस्थितियों पर पूर्णतः निर्भर रहते हैं। इतिहास की पुनर्व्याख्या की पहेली को लेकर चकित भ्रमित आम पाठकों को यह बताना आवश्यक है कि इतिहास लेखन अनेक दृष्टि से किया जाता है। 1980 के दशक में प्रचलन में आई बिग हिस्ट्री इतिहास के बड़े कालखंडों का बहुअनुशासनात्मक विवेचन करती है। क्लिओमेट्रिक्स गणितीय अर्थशास्त्र के आधार पर इतिहास की व्याख्या करती है। कम्पेरेटिव हिस्ट्री(मूर, बोल्टन, टॉयनबी जैसे इतिहासकार और मैक्सवेबर और सोरोकिन जैसे समाज शास्त्री) किसी कालखंड विशेष में विभिन्न समाजों का तुलनात्मक अध्ययन करती है। काउंटर फैक्चुअल या वर्चुअल हिस्ट्री काल्पनिक प्रश्न उठाती है और यदि ऐसा हुआ होता तो क्या होता के आधार पर इतिहास का अवलोकन करती है। कल्चरल हिस्ट्री सोशल एंथ्रोपोलॉजी और कन्वेंशनल हिस्ट्री दोनों के टूल्स का इस्तेमाल करती है। डिप्लोमेटिक हिस्ट्री विभिन्न देशों के सत्ताधारी राजनीतिज्ञों एवं कूटनयिकों के व्यवहार और उनकी नीतियों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर प्रभाव का अध्ययन करती है। कार्ल मार्क्स ने अनुसार व्यक्ति की चेतना उसके अस्तित्व का निर्धारक नहीं है बल्कि उसका सामाजिक अस्तित्व व्यक्ति की चेतना के स्वरूप को तय करता है। कार्ल मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद उत्पादन, श्रम, वर्ग संघर्ष और आर्थिक जीवन को आधार बनाकर इतिहास को समझने का प्रयास करता है। ब्रिटेन के मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा हिस्ट्री फ्रॉम बिलो को लोकप्रिय बनाया गया जिसमें किसानों, मजदूरों और आम तबकों को केंद्र में रखकर इतिहास को व्याख्यायित किया गया। हिस्ट्री ऑफ आइडियाज या इंटेलेक्चुअल हिस्ट्री दर्शन,विज्ञान, साहित्य आदि विषयों के इतिहास के अध्ययन से संबंधित है। मेटा हिस्ट्री(हेडन व्हाइट1974) ऐतिहासिक घटनाओं को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों की पड़ताल करती है और इतिहास के दर्शन के अध्ययन से संबंधित है। यह हिस्टॉरिकल नैरेटिव की संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास है। माइक्रो हिस्ट्री के अंतर्गत किसी सीमित क्षेत्र के इतिहास की केस स्टडी व्यापक महत्व के निष्कर्षों को प्राप्त करने हेतु की जाती है।
जब यह कहा जाता है कि इतिहास बदलता है तब भी चकित होने की आवश्यकता नहीं है। अनेक बार पुरातात्विक महत्व के नए प्रमाण अन्वेषण के दौरान मिलते हैं और इतिहासकारों को अपनी राय बदलनी पड़ती है। कई बार नई वैज्ञानिक तकनीक पुराने प्रमाणों को नए ढंग से समझने का मार्ग प्रशस्त कर देती है। वर्तमान का प्रभाव भी इतिहास पर पड़ता है। कई बार इतिहास के किसी कालखंड विशेष में या किसी सभ्यता में जो रीति रिवाज और सामाजिक नियम लोकप्रिय होते हैं उनकी आवश्यकता वर्तमान समाज को अपने तात्कालिक हितों की पूर्ति हेतु पड़ती है और वह अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप इतिहास को व्याख्यायित करता है। परम्पराओं का संरक्षण इन परम्पराओं के उत्तराधिकारियों की आवश्यकताओं के द्वारा तय होता है। परंपराएं तभी जीवित रह पाती हैं जब वे वर्तमान समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल होती हैं या उनमें ऐसे तत्व होते हैं जिनमें अपनी जरूरतों के मुताबिक आज का समाज फेरबदल कर सकता है। इसी प्रकार से जो महान व्यक्तित्व मिथक बन कर हमारी स्मृतियों में जीवित रहते हैं उनकी छवि में भी हम इस प्रकार से परिवर्तन कर लेते हैं और इस तरह के गुणों को आरोपित कर लेते हैं कि वे हमें प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार्य हो जाएं। मिथक बन चुके महान व्यक्ति की वास्तविकता कई बार उसके साथ जोड़ी गई विशेषताओं की तुलना में बिल्कुल भिन्न और कमतर होती है। सत्ता, समाज की अभिरुचि का प्रतिनिधित्व करने और उसे रूपाकार देने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कई बार सत्ता अपने अस्तित्व की रक्षा करने और अपनी विचारधारा को समाज द्वारा स्वीकार्य बनाने के लिए भी पुराने मिथकों में नए रंग भरती है या इन मिथकों की गौण विशेषताओं को मुख्य विशेषता में परिवर्तित कर देती है। यह कार्य केवल सत्ता ही नहीं करती बल्कि विभिन्न विचारधाराओं के प्रचारक और जातीय, नस्ली या धार्मिक संगठनों का नेतृत्व भी यह कार्य करता है। यहाँ यह तथ्य भी रेखांकित किया जाना आवश्यक लगता है कि इन सभी के द्वारा नए मिथकों को गढ़ने के बजाए पुराने मिथकों को नए ढंग से सजाने को प्राथमिकता दी जाती है संभवतः ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि पुराने मिथक जनता द्वारा पहले से स्वीकृत होते हैं। ऐसा नहीं है कि मिथकों को या निकट भूत के महान व्यक्तियों को हमेशा महिमामंडित ही किया जाता है कई बार इन्हें नकारात्मकता के प्रतिनिधि के रूप में भी प्रोजेक्ट किया जाता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि यह मिथक व्यक्ति ही हों, यह ऐतिहासिक धरोहरें भी हो सकती हैं। विदेशों में इस पर बहुत काम हुआ है और लिंकन फैलेसी तथा बकिंघम पैलेस फैलेसी  इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
आज ऐसे कई उदाहरण देखने में आते हैं। सत्तारूढ़ दल की विचारधारा के अनुरूप गाँधी जी की हिंदूवादी छवि और स्वच्छता के प्रति उनके आग्रह को बड़ी प्रबलता से रेखांकित किया जा रहा है। जबकि सर्वधर्म समभाव का उनका आदर्श पीछे धकेल दिया गया है। न तो स्वतंत्रता के बाद उनकी जो छवि पेश की गई थी और न अब उनकी जो छवि पेश की जा रही है वह पूर्ण है। वास्तविक गाँधी की समग्रता में से अपनी पसंद के कुछ गुण छाँट लिए गए हैं और कुछ आरोपित किए जा रहे हैं। इसी प्रकार सत्ता पक्ष द्वारा अम्बेडकर, लोहिया, भगत सिंह आदि राजनीतिक क्षेत्र की विभूतियों का भी पुनर्पाठ किया जा रहा है। आध्यात्मिक क्षेत्र में विवेकानंद का पुनर्पाठ जारी है। सत्तारूढ़ दल की इन कोशिशों का प्रतिकार हो रहा है और विशेषकर वामपंथी बुद्धिजीवी इन महान व्यक्तियों की उन विशेषताओं को रेखांकित कर रहे हैं जो उनकी विचारधारा के अनुकूल हैं। सोशल मीडिया पर भी एक नई प्रवृत्ति देखने में आ रही है- प्रसिद्ध व्यक्तियों और इतिहास पुरुषों के कथन और रचनाओं के रूप में अपनी विचारधारा की ऐसी बातों को प्रचारित करना जिनका इन विभूतियों से कोई लेना देना भी नहीं है। झूठी कविताओं और असत्य सुभाषितों की एक आँधी सी चल रही है। गौतम बुद्ध, अम्बेडकर, लोहिया,हरिवंशराय बच्चन,गुलज़ार,नाना पाटेकर आदि के नाम से सूक्तियों का जलजला सा आया हुआ है। यह इतिहास के जानकारों द्वारा किए जाने वाले सॉफिस्टिकेटेड मैनीपुलेशन से बिल्कुल अलग इतिहास की शायद जरा कम किन्तु लोगों के मनोविज्ञान की गहरी और अनेक उदाहरणों में आपराधिक समझ रखने वाले लोगों द्वारा छवि परिवर्तन तथा मिथक के निर्माण का उदाहरण है और सच तो यह है कि मिथक संभवतः ऐसे ही बनते हैं। किसी महापुरुष के साथ अलौकिक घटनाएं और किंवदंतियाँ इसी तरह जुड़ती चली जाती हैं और जिस मिथक के रूप में वह हमारी स्मृतियों में जीवित रहता है वह हमें तो प्रिय होता है लेकिन वह वह नहीं होता जो वह था। इतिहास के पुनर्पाठ का असर ताजमहल के इतिहास पर भी पड़ रहा है। ताजमहल की खूबसूरत इमारत पहले भी उतनी ही खूबसूरत थी जितनी अब है। अंतर(केवल?) इतना आया है कि इसे प्रेम का स्मारक और हिंदुस्तान की गंगा जमुनी तहजीब का उदाहरण न कहकर दासता का प्रतीक या भारतीय जनता की खून पसीने की कमाई और भारतीय मजदूरों की कड़ी मेहनत से बनी विश्व की अनुपम धरोहर कहा जा रहा है। इसे शिव मंदिर के रूप में स्थापित करने के लिए इसके स्थापत्य की कतिपय विशेषताओं को अलग ढंग से व्याख्यायित किया जा रहा है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कुछ लिखित और पुरातात्विक प्रमाण भी पेश कर दिए जाएं।       पौराणिक इतिहास का एक पाठ यह कहता है कि रावण प्रजापिता ब्रह्मा के पौत्र पुलत्स्य ऋषि(विश्रवा मुनि) और राक्षस सुमाली की पुत्री कैकसी की संतान था। इस प्रकार रावण पितृ पक्ष से ब्राह्मण था। हाल ही में कुछ आदिवासी समुदायों द्वारा रावण को पूज्य बताते हुए दशहरा उत्सव का विरोध किया गया था। यह विरोध आर्य अनार्य संघर्ष पर आधारित था। इसके पीछे यह तर्क था कि रावण की माता चूंकि राक्षस जाति की थी जो वास्तव में भारत के मूल निवासी आदिवासी समुदायों को षड्यंत्रपूर्वक दिया गया संबोधन है,इसलिए रावण आदिवासी समुदायों हेतु पूज्य है और विजयादशमी को उसने आर्यों के साथ संघर्ष में अपना बलिदान दिया था न कि उसका वध हुआ था। यह पौराणिक इतिहास की उस समानांतर व्याख्या का एक अंग है जो ब्राह्मणवादी और मनुवादी व्यवस्था के विरोध में खड़ी की जा रही है। नई नई व्याख्याओं के इस दौर में हो सकता है कि आने वाले दिनों में रावण, ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रतिद्वंद्विता की स्थिति में ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व करता पाया जाए। यह कथित प्रगतिशील रणनीतिकारों का एक अजीब किन्तु रोचक कदम है कि वे पौराणिक इतिहास को नकारने के बजाए उसकी पुनर्व्याख्या के सहारे अपने लिए जमीन तलाश रहे हैं। इससे भी रोचक यह है धार्मिक क्षेत्र में पौराणिक इतिहास को विज्ञान सम्मत बनाने के लिए शोध और अन्वेषण चल रहा है ताकि उसे आधुनिक जनमानस के लिए स्वीकार्य बनाकर भारत को विश्व गुरु का दर्जा दिलाया जा सके। यह भुला दिया गया है कि आस्था के प्रश्न वैज्ञानिकता से हल नहीं होते। ईश्वर के अस्तित्व से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसके अस्तित्व में हमारे विश्वास की प्रगाढ़ता क्योंकि यह विश्वास ही हमारे जीवन में परिवर्तन लाता है।
मूल प्रश्न यह है कि क्या इतिहास निष्पक्ष हो सकता है? इतिहास लेखक की विचारधारा, प्राथमिकताओं और उसे उपलब्ध सामग्री तथा संसाधनों का प्रभाव अनिवार्य रूप से उसके द्वारा रचित इतिहास पर पड़ता है। मानवीय इंद्रियों की सीमाएं एवं बौद्धिक क्षमता और मनःस्थितियों की भिन्नताएं भी इतिहास लेखन पर प्रभाव डालती हैं। किसी तत्काल घटित हो रही घटना को देखकर उसका विवरण दर्ज करने हेतु यदि व्यक्तियों के किसी समूह को कहा जाए तो सभी के विवरण भिन्न भिन्न होते हैं।वर्तमान समाज और शासक वर्ग की आवश्यकताएं एवं  प्रतिबद्धताएं भी इतिहास को व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं। शासक वर्ग के हित और राष्ट्र हित भी इतिहास को निर्धारित करते हैं। अंग्रेज शासकों के लिए जो अराजकतावादी और आतंकवादी थे वे हमारे लिए स्वाधीनता संग्राम के वीर हैं। दो युद्धरत देशों के संदर्भ में एक देश के नायक दूसरे देश के लिए खलनायक होते हैं। भारत जैसे देश में – जहाँ इतिहास लेखन की कोई स्पष्ट परंपरा नहीं रही है और प्राचीन इतिहास पौराणिक साहित्य एवं धर्म ग्रंथों के रूप में है जो वाचिक परंपरा से हमें प्राप्त हुए हैं तथा जिनकी रचना का उद्देश्य ऐतिहासिक-सामाजिक से अधिक धार्मिक है- इतिहास का पुनर्निर्माण एक खतरनाक चुनौती है। पौराणिक विवरणों को तैथिकी की कसौटी पर कसना और इनमें से काल्पनिक अंशों और गल्प आदि को पृथक करना नितांत कठिन है। प्राचीन इतिहास के स्रोत के रूप में उपलब्ध ब्राह्मण ग्रंथों (वेद, वेदांग,उपनिषद,रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य, अठारह पुराण,स्मृतियाँ) की तुलना में अब्राह्मण ग्रंथों(जैन और बौद्ध ग्रंथ) तथा धर्मनिरपेक्ष साहित्य (ऐतिहासिक, अर्द्ध ऐतिहासिक,विदेशी विवरण, जीवनियां और विशुद्ध साहित्य) की उपयोगिता कुछ अधिक है। मध्यकालीन इतिहास राज्याश्रय प्राप्त दरबारी विद्वानों द्वारा रचा गया है जिनमें राजाओं, सुल्तानों और बादशाहों की विजय गाथाओं का विवरण अधिक है। सल्तनत कालीन और मुग़लकालीन इतिहास अधिक व्यवस्थित और तथ्यपरक तो है लेकिन केवल शासक वर्ग की विशेषताओं को दर्ज करने के कारण अपूर्ण है और इससे आम जनता के जीवन के विषय में जानकारी कम ही मिलती है। अंग्रेज शासकों द्वारा रचित इतिहास भी अंततः शासक वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रभावशाली या शासक वर्ग की इच्छा के अनुसार इतिहास की बदलती व्याख्याओं के मध्य अब आम जनता को तय करना है कि उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं। यदि एक दूसरे के लिए जान की बाजी लगा देने वाले दो मित्रों को पता चलता है कि सैकड़ों वर्ष पहले उनके पूर्वज जानी दुश्मन थे और उन्होंने एक दूसरे को मार डाला था तो इस ऐतिहासिक खुलासे पर उनका क्या रुख होना चाहिए? क्या वे एक दूसरे की हत्या कर अपना जीवन नष्ट कर लें या इस खुलासे को रद्दी की टोकरी में डाल कर शांतिपूर्वक जीना जारी रखें। समाज को चाहिए कि वह इतिहास की उन्हीं व्याख्याओं को स्वीकृति प्रदान करे जिनसे शांति,समृद्धि और समरसता का मार्ग प्रशस्त हो।

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