पश्चिम बंगाल में जनता द्वारा लिखी गई इबारत के मायने?

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-निर्मल रानी

पश्चिम बंगाल में गत् दिनों स्थानीय निकायों के चुनावों के नतीजे घोषित हो चुके हैं। जैसी कि अपेक्षा की जा रही थी, राज्‍य के अधिकांश नगर निगमों पर ममता बैनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने अपना कब्‍जा जमा लिया है। यहां तक कि कोलकाता महानगर निगम के चुनाव में भी तृणमूल कांग्रेस को बहुमत मिल गया है। हालांकि राजनैतिक पंडित पश्चिम बंगाल की सियासी फिजा को देखकर इस बात का अंदाजा तो लगा रहे थे कि चुनाव परिणामों का झुकाव ममता बैनर्जी के पक्ष में रहेगा। परंतु उन्हें ऐसा अंदाज नहीं था कि वामपंथी उम्मीद से भी यादा ख़राब प्रदर्शन करेंगे। और राज्‍य में अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति पर चलने की कोशिश करने वाली कांग्रेस तो गोया कई जगहों पर मुंकाबले से भी बाहर दिखाई देगी। गौरतलब है कि केंद्र सरकार में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की सहयोगी पार्टी होने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में अपने अकेले दम पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया था। जबकि कांग्रेस पाटी ने भी राज्‍य के निकायों की अधिकांश सीटों पर अपने उम्मीदवार भी खड़े किए थे। इस प्रकार पश्चिम बंगाल में अधिकांशत: त्रिकोणीय मुंकाबले की स्थिति बनी हुई थी जिसमें आंखिरकार तृणमूल कांग्रेस ने ही बाजी मारी।

पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम आ जाने के बाद अब राजनैतिक हलक़ों में तरह-तरह की कयास आराईयां शुरु हो गई हैं। सवाल उठने लगे हैं कि गत् तीन दशकों से राज्‍य विधानसभा पर निंतर अपना लाल परचम लहराने वाला वामपंथी दल 2011 के निर्धारित विधानसभा चुनावों के बाद क्या अब पश्चिम बंगाल के राजनैतिक क्षितिज से अपनी बिदाई लेने वाला है? सोनिया व राहुल के कांग्रेस पार्टी के ‘एकला चलो’ के अभियान पर भी क्या पश्चिम बंगाल में अब ब्रेक लगने वाली है? दिल्ली दरबार की राजनीति में ममता बैनर्जी को अपने पीछे रखकर संप्रग सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी क्या पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी की पिछलग्गू बनी रहकर ही वहां अपने राजनैतिक अस्तित्व को बचा सकेगी?और पश्चिम बंगाल की राजनीति में आने वाला समय क्या अब ममता बैनर्जी का होगा? और एक सवाल यह भी कि अगले एक वर्ष में वामपंथी अपने इस ढहते हुए किले को बचाने के लिए आख़िर अब क्या कोशिश करेंगे? और अपनी इन कोशिशों में वे कितने कामयाब हो सकेंगे। एक और यक्ष प्रश् पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम आ जाने के बाद यह भी खड़ा हो रहा है कि गत् तीन दशकों तक वामपंथी विचारधारा से सराबोर राज्‍य की जनता का ‘वामपंथी सुरूर’ क्या अब टूट रहा है और यदि ऐसा है तो यह जनता वामपंथ के बदले स्वरूप में आंखिर ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को कैसे और क्योंकर देख रही है।

जहां तक पश्चिम बंगाल से वामपंथ की बिदाई की बात है तो ममता बैनर्जी अथवा राजनैतिक समीक्षक जो भी अंदाज लगा रहे हों परंतु वाम नेताओं का यही मानना है कि राज्‍य की जनता के लिए वे इतना कुछ नहीं कर पाए जितना कि जनता उनसे अपेक्षा रखती थी। वे 2011 के विधानसभा चुनाव से पूर्व अवश्य इस बात की कोशिश करेंगे कि वे मात्र इस एक वर्ष में यह देखें कि किन कारणों के चलते जनता उनसे दूर होती जा रही है तथा उन्हें पुन: अपने विश्वास में कैसे लिया जाए। स्थानीय निकायों के चुनावों में हुए पार्टी प्रदर्शन को हालांकि वाम नेता अपने लिए ख़तरे की घंटी जरूर स्वीकार कर रहे हैं। परंतु साथ-साथ उनका यह भी कहना है कि पार्टी ने कई चुनाव क्षेत्रों में 2009 में हुए संसदीय चुनावों से भी बेहतर प्रदर्शन किया है। अर्थात् वामपंथ की स्थिति सुधरनी शुरु हो चुकी है। रहा सवाल कांग्रेस व तृणमूल के बीच रिश्तों का तथा इन रिश्तों के बीच पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पार्टी के अपने अकेले अस्तित्व का, तो इस विषय पर कांग्रेस पार्टी अवश्य पसोपेश में पड़ती दिखाई दे रही है। गत् कई वर्षों से यह देखा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश व बिहार तथा अब पश्चिम बंगाल सहित कई राज्‍यों में अपने अकेले दमंखम पर चुनाव लड़ने की रणनीति पर काम करती रही है। उत्तर प्रदेश में हालांकि इस रणनीति के सकारात्मक परिणाम जरूर मिले। परंतु बिहार में अपेक्षाकृत कम। परंतु पश्चिम बंगाल के इन ताजातरीन स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों ने तो गोया कांग्रेस की ‘एकला चलो’ की रणनीति पर सवालिया निशान ही खड़ा कर दिया। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि 2011के विधानसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में चुनावी परिदृश्य आख़िर क्या होगा? एक बार फिर राज्‍य में इसी प्रकार का त्रिकोणीय मुकाबला होगा या कांग्रेस पार्टी अपनी ही गोद में पाली-पोसी नेत्री ममता बैनर्जी द्वारा गठित तृणमूल कांग्रेस के पीछे चलकर तथा उनकी शर्तों,उनके रहमोकरम व उन्हीं के द्वारा तय की गई सीटों को लेकर अपने अस्तित्व को पश्चिम बंगाल में कायम रखने के लिए मजबूर होगी?

इस विषय पर हालांकि किसी निर्णय पर पहुंचना अभी जल्दबाजी होगी परंतु इतना जरूर है कि स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम आने के बाद जिस प्रकार राज्‍य कांग्रेस अध्यक्ष एवं वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने ममता बैनर्जी को उनकी जीत हेतु बधाई दी है तथा ममता बैनर्जी ने भी भविष्य में कांग्रेस के साथ चलने की संभावना से इंकार नहीं किया है उससे अभी से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि संभवत: 2011 के चुनाव में कांग्रेस को टी एम सी की शर्तों पर ही पश्चिम बंगाल में अपने अस्तित्व को जिंदा रखना होगा। और निश्चित रूप से यह स्थिति वामपंथी दलों के लिए और अधिक चुनौतिपूर्ण साबित हो सकती है। कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी कम से कम बंगाल में तो जरूर अपने ‘एकला चलो’ के मिशन पर एक बार पुनर्विचार करने की स्थिति में पहुंच चुकी है। कांग्रेस निश्चित रूप से इस समय देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल है। परंतु इस विशल भारत वर्ष के अनेक राज्‍यों की अपनी अलग-अलग प्रकार की समस्याएं हैं तथा राज्‍य के लोगों के भी अलग-अलग तरह के मिजाज। इन क्षेत्रीय व स्थानीय समस्याओं को तथा क्षेत्र की जनता की नब को भी उसी राज्‍य के प्रतिनिधि नेतागण कहीं अधिक बेहतर समझते हैं। इस समय लगभग पूरे देश का अधिकांश मतदाताअपने राज्‍य से जुड़ी समस्याओं, उसके विकास तथा उत्थान की बातों को सुनने में यादा दिलचस्पी लेता दिखाई दे रहा है। अर्थात् क्षेत्रीय समस्याएं राष्ट्रीय सोच व समस्याओं पर हावी होती जा रही हैं। लिहाजा ऐसे में क्षेत्रीय राजनीति करने वालों तथा सीमित क्षेत्रीय सोच रखने वाले नेताओं की पौबारह होती जा रही है। जाहिर है ऐसे में क्या कांग्रेस तो क्या भारतीय जनता पार्टी अथवा वामपंथी दल इन सभी पर क्षेत्रीयता के बादल मंडराते सांफ नजर आ रहे हैं।

ममता बैनर्जी ने निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी के सदस्य व नेत्री के रूप में वामपंथियों के समक्ष कांग्रेस के पक्ष में जबरदस्त संघर्ष किया है तथा राज्‍य में कांग्रेस को जिंदा रखे रहने में अपना पूरा योगदान दिया। परंतु राजीव गांधी के समय में जब उन्हें यह आभास होने लगा कि राष्ट्रीय राजनीति को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस पार्टी अब वामपंथियों की ओर झुकने लगी है तथा भाजपा को रोकने के लिए वामपंथियों से हाथ मिलाने की तैयारी कर रही है उसी समय राजीव गांधी की हत्या के पश्चात ममता बेनर्जी ने कांग्रेस पार्टी से अपना नाता तोड़ लिया और 1997 में अपनी अलग पार्टी गठित कर ली। ममता का यह मानना है चूंकि कांग्रेस व वामपंथी दो अलग-अलग विचारधाराएं हैं अत: यह दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। परंतु ममता बैनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी के बीच केंद्र सरकार के लिए हुए गठबंधन के समय अपने इस वचन को नज़र अंदाा कर दिया था। जाहिर है यहां ममता ने अपनी दोहरी राजनैतिक सोच का परिचय दिया।

वामपंथियों को नुकसान पहुंचने का एक और कारण यह भी रहा है कि वामपंथी आमतौर पर गरीबों, किसानों, श्रमिकों, कर्मचारियों,कामगारों व दिहाड़ीदारों के पक्ष में बोलते नजर आते हैं। परंतु सत्ता में आने के बाद सत्ता की मजबूरियों ने तथा देश के विकास के साथ-साथ राज्‍य के भी कदमताल करने की माबूरियों ने पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के समक्ष लगभग धर्मसंकट सा खड़ा कर दिया। अर्थात् यदि सरकार विकास की बात करे तो वह पूंजीवाद व उद्योगपतियों की समर्थक नजर आने लगती है। ऐसे मे सिंगूर जैसी घटना होने पर किसानों व मजदूरों के पक्ष में जहां वामपंथी खड़े नजर आते थे वहां ममता की टी एम सी खड़ी दिखाई दी। तो दूसरी ओर वामपंथी सरकार के पहरेदार के रूप में सशस्त्र बंगाल पुलिस। ऐसे में वामपंथी मिजाज रखने वाली बंगाली जनता ने वामपंथी दलों के बजाए ममता बैनर्जी को अपने पक्ष में संघर्ष करते पाया। राज्‍य के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम में सिंगूर व नंदीग्राम जैसी घटनाओं की छाया भी सांफ देखी जा सकती है। कुल मिलाकर राज्‍य की जनता ने स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों के माध्यम से राज्‍य की भविष्य की राजनीति के मस्तक पर जो इबारत लिखी है उसके मद्देनजर इन परिणामों को पश्चिम बंगाल राज्‍य का सेमीफाईनल चुनाव माना जा रहा है। इबारत की बाकी तंफसील 2011 के फाईनल चुनावों में और भी स्पष्ट हो जाएगी।

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