पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी धींगामुश्ती पहुँची दिल्ली

Mamta-banerjee -- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

               पश्चिमी बंगाल में जब से मार्क्सवादी पार्टी की सरकार को ममता ने बिना किसी ममता के उलटा दिया है , तब से उनकी व्याकुलता बढ़ती जा रही है । दरअसल सोनिया कांग्रेस की मार्क्सवादी पार्टी के प्रति ममता ही बंगाल में उनके शासन को बचाने का काम करती रही है । सोनिया कांग्रेस को केन्द्र में सरकार बनाने और विरोधियों को डराने धमकाने के लिये मार्क्सवादी पार्टी की ज़रुरत पड़ती रहती थी , इसलिये केन्द्र सरकार वहाँ उनकी सभी प्रकार की गुंडागर्दी से आँखें मूँदे रहती थी । ममता बनर्जी को कांग्रेस इसीलिये छोड़नी पड़ी थी , क्योंकि कांग्रेस अपने दलीय हितों व सत्ता की ख़ातिर मार्क्सवादियों को ख़ुश करने के लिये बंगाल के लोगों की बलि देती रहती थी । कामरेडी शासन के दिनों में पूरा बंगाल एक बहुत बड़ा यातना गृह बन गया था , लेकिन आम आदमी भय के मारे बोल नहीं सकता था । पुलिस विभाग का मार्क्सवादियों ने पूरी तरह कैडरीकरण  ही कर लिया था । इसलिये पुलिस आम जनता की रक्षा करने की बजाय , पार्टी के कैडर की तरह आचरण करने लगी थी । ममता बनर्जी ने तमाम ख़तरों के बाबजूद आम आदमी की घुटन को वाणी दी और बंगाल को मार्क्सवादी यातनागृह से मुक्त करवाया । परन्तु बंगाल के मुक्त होने से ,सोनिया कांग्रेस और मार्क्सवादी पार्टी दोनों ही दुखी हैं । कांग्रेस ममता की गुर्राहट से और मार्क्सवादी अपना तीस साल का साम्राज्य छिन्न जाने से । 
                                 ळेकिन दोनों दल अपने इस दुख को जिस तरह अभिव्यक्त कर रहे हैं वह अलोकतांत्रिक भी है और देश की आधारभूत संरचना के लिये ख़तरनाक भी । बंगाल में पिछले दिनों मार्क्सवादी पार्टी की छात्र शाखा स्टुडैंट फ़ेडरेशन आफ इंडिया ने पश्चिमी बंगाल सरकार की कुछ नीतियों और क्रियाकलापों को लेकर प्रदर्शन किया था । लोकतंत्र में उन्हें यह अधिकार है और हर हालत में इस अधिकार की रक्षा की ही जानी चाहिये । छात्रों के इस प्रकार के प्रदर्शन आम तौर पर उग्र हो जाते हैं । एस . एफ . आई के प्रदर्शनों के उग्र होने की संभावना ज़्यादा ही रहती है क्योंकि हिंसा का प्रयोग मार्क्सवादी पार्टी की विचारधारा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । कार्ल मार्क्स वर्ग संघर्ष में सशस्त्र संघर्ष को ही एक मात्र माध्यम मानते थे । कामरेडों के दुर्भाग्य से लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है । वहाँ सारा कामकाज आपसी विचार विमर्श से चलता है । मार्क्सवादी कोशिश तो करते हैं कि वे अपने आप को लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरुप बनायें , लेकिन वैचारिक आधार उनकी इन कोशिशों के रास्ते में बाधा बन जाता है । उनके प्रदर्शन शुरु तो ज़िन्दाबाद मुर्दाबाद से ही होते हैं , लेकिन अन्त में उनके हाथ में लाठी आ जाती है । जो ज़्यादा ग़ुस्सैल हैं वे लाठी छोड़ बन्दूक़ पकड़ते हैं और माओ के गीत गाने शुरु कर देते हैं । कोलकाता में सरकार के विरुद्ध किये जा रहे , एस एफ आई के एक ऐसे ही प्रदर्शन में एक छात्र की मृत्यु हो गई । अब उस की मृत्यु के लिये कौन ज़िम्मेदार है , इस का पता तो जाँच के बाद ही चलेगा , लेकिन मार्क्सवादियों के पास इतना धैर्य नहीं है कि वे उस जाँच की प्रतीक्षा कर सकें । उन्होंने अपना वही पुराना तरीक़ा इस्तेमाल किया । 
               पिछले दिनों  राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने वित्त मंत्री समेत दिल्ली ,योजना आयोग के अधिकारियों को मिलने के लिये आईं थीं । मार्क्सवादियों ने योजना भवन आने पर उनका घेराव करने का निर्णय किया । मान लेना चाहिये कि लोकतंत्र में उनके पास विरोध का यह अधिकार भी सुरक्षित है । लेकिन सोनिया गान्धी की सरकार को उसके गुप्तचर विभाग ने इतना तो बता ही दिया होगा कि कामरेडों के विरोध प्रदर्शन का क्या अर्थ होता है ? ख़ासकर तब जब यह प्रदर्शन ममता बनर्जी के खिलाफ होने वाला हो । लेकिन इसके बाबजूद केन्द्रीय सरकार ने ममता बनर्जी की दिल्ली में सुरक्षा के लिये कोई व्यवस्था नहीं की । कामरेडों ने बंगाल के वित्त मंत्री के कपड़े ही नहीं फाड़े , उन्होंने ममता बनर्जी के साथ धक्कामुक्की भी की । क्या सोनिया कांग्रेस ममता बनर्जी को यू पी ए से समर्थन वापिस लेने की सजा , मार्क्सवादियों के साथ मिल कर दे रही थी ? उसके बाद ममता बनर्जी वित्त मंत्री चिदम्बरम को बिना मिले वापिस कोलकाता चली गईं । अब कमल नाथ बगैरहा सरकार से जुड़े कुछ लोग इस घटना पर खेद प्रकट कर रहे हैं । लेकिन मार्क्सवादी यदि दिल्ली में ही केन्द्र सरकार की नाक के नीचे एक राज्य के मुख्यमंत्री से इस प्रकार का व्यवहार कर सकते हैं तो वे अपने शासन काल में विरोधियों से बंगाल में किस प्रकार निपटते होंगे , इसका सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है । पश्चिमी बंगाल में लोगों का तीन दशकों से साम्यवादियों के प्रति छिपा ग़ुस्सा अनेक बार प्रकट हो जाता है । उसी का परिणाम वहाँ वामपंथियों की पराजय में हुआ था । मार्क्सवादियों को यदि इस देश की राजनीति में कोई सार्थक भूमिका निभाना है तो उन्हें , हिंसा और नक्सलवाद का रास्ता छोड़ कर लोकतंत्र का रास्ता अख़्तियार करना होगा । छत्तीसगढ़ में सशस्त्र पुलिस बल के लोगों के मारे पर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में जश्न मनाने का रास्ता त्यागना होगा । किसी महिला मुख्यमंत्री से धक्कामुक्की करना वैचारिक राजनीति नहीं है , बल्कि यह लाठी के बल पर भैंस हाँकने का धंधा है , जिसके बलबूते वामपंथी आज तक एक दो प्रान्तों में राज करते आये हैं । लेकिन जनता अब न तो भैंस रही है और न ही वह ज़्यादा देर तक उनके हाथ में डंडा रहने देगी । यदि उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शित अपना व्यवहार न छोड़ा तो पहले ही देश की राजनीति में हाशिये पर जा चुके कामरेड अप्रासांगिक भी हो जायेंगे । 

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डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री
यायावर प्रकृति के डॉ. अग्निहोत्री अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी लगभग 15 पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से शिक्षक, कर्म से समाजसेवी और उपक्रम से पत्रकार अग्निहोत्रीजी हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय में निदेशक भी रहे। आपातकाल में जेल में रहे। भारत-तिब्‍बत सहयोग मंच के राष्‍ट्रीय संयोजक के नाते तिब्‍बत समस्‍या का गंभीर अध्‍ययन। कुछ समय तक हिंदी दैनिक जनसत्‍ता से भी जुडे रहे। संप्रति देश की प्रसिद्ध संवाद समिति हिंदुस्‍थान समाचार से जुडे हुए हैं।

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