पश्चिम का प्रथम हिंदी तीर्थ -त्रिनिदाद का एरी गांव

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30  मई 1845  का दिन जब भारतीय गिरमिटिया मज़दूरों से भरा  फत्तेल रोज़ाक नाम का जहाज़  16  फरवरी 1845  को कोलकाता से चलकर साढ़े3  महीने की यात्रा पूरी करके त्रिनिदाद के नेल्सन द्वीप पर पहुंचा । यह यात्रा अत्यंत दुखद, संघर्षपूर्ण और  कष्टप्रद थी। किसी को विश्वास नहीं था के वे सही सलामत पहुंचेंगे। इस तीन महीनों में उन के कितने ही संगी साथी छूट गए थे, कितने ही काल कवलित हो गए थे। द्वीप पर पहुंचने वाले केवल 227  व्यक्ति थे। इन में पुरुष भी थे  महिला भी थी। छोटे भी थे बड़े भी थे। कुछ में परस्पर जान पहचान थी और कुछ एक दूसरे से अनजान भी थे।  इन लोगों के मन से जाति,धर्म, ऊंच, नीच का भेद भाव मिट चुका था। पेट की भूख और जीवन जीने की इच्छा प्रबल थी। सभी धार्मिक और सामाजिक वर्जना समाप्त सी हो गयी थी।  सभी के मन में एक अजाना भय था।  कॉन्ट्रैक्टर की मीठी और लच्छेदार बातों का विश्वास भी अब समाप्त हो रहा था।

जहाज रवाना होने से पहले कांट्रेक्टर ने इन मज़दूरों को भरती करते समय कहा था ‘जल्दी जल्दी अपना नाम लिखवाओ, भरती हो जाओ, तुम्हें ऐसी जगह ले जायेंगे जहाँ सोना ही सोना बिखरा पड़ा है, काम ही काम है, कोई खाली नहीं रहेगा, सब को पैसा मिलेगा, जमीनमिलेगी, सबका जीवन सुधर जायेगा, जो भर्ती हो जायेगा उस का भविष्य बन जायेगा। साथ में लालच दिया – यदि वे चाहें तो पांच वर्ष के बाद वापिस आ सकते हैं। ये भरती बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से अधिक हुई, कुछ लोग ओडिसा से भी थे और कुछ दक्षिण भारत से भी थे ।  ये सब वायदे तीन महीने की जहाजी यात्रा के दौरान  निर्मूल लगने लगे क्योंकिजहाजी यात्रा ने उन्हें ऐसा ही अनुभव दिया। नेल्सन द्वीप पर जब 30 मई 1845  को जहाज पहुंचा तो वहां घटाटोप अन्धकार, चारों तरफ कीचड़ और जंगली कीड़े मकोड़े थे। कहीं  रहने का स्थान नहीं, पीने को पानी नहीं और खाने को कुछ नहीं। भाग्यवादी होकर काम नहीं चलने वाला था। अतः सभी ने फावड़ा कुदाल लेकर काम शुरू कर दिया।

कनाडा के नोव स्कोशिया के प्रेस्बिटेरियन चर्च का एक पादरी रेवरेंड जॉन मोर्टन एक लम्बी बीमारी के बाद स्वास्थ्य लाभ के लिए 1867 में  त्रिनिदाद आया  था। आते ही वह यहाँ के दक्षिणी नगर  सेन फर्नांडो में रहा लेकिन बाद में वह प्रिंसेस टाउन होते हुए एरी गांव पहुंचा।  उसे यह स्थान पसंद आया। अनुमान लगा सकते हैं कि  त्रिनिदाद उस समय कितना अधिक खुला और विस्तृत, लहलहाते खेतों और शांत और सुरम्य वातावरण वाला स्थान था।  30  मई 1845  से प्रारम्भ होकर 1867  तक त्रिनिदाद में लगभग 20,000 भारतीय आ चुके थे। मोर्टन दिन भर गन्ने के खेतों में घूमता, खेतों में काम करते भारतीय मज़दूरों से बात करता और नयीनयीयोजनाएंबनाता।  उस का मस्तिष्क इसी उधेड़ बुन में रहता की इन लोगों को किस तरह से अपने में मिलाया जाये अर्थात इन को  प्रेस्बिटेरियन मतावलम्बी बनाया जाये।  अंततः वह  मन ही मन परेशान  हो गया और कनाडा वापिस आ गया।  आते ही उसने अपने चर्च के मुख्य पादरी से अपने दिल की बात कही कि किस तरह उन लोगों को प्रेस्बिटेरियन ईसाई बनाया जा सकता है। इस काम के लिए उसने अपनी सेवा भी अर्पित की।  चर्च के अधिकारी उस के इस प्रस्ताव से प्रसन्न हो गए और उन्होंने मोर्टन को काम करने की अनुमति दे दी।  इस तरह से मोर्टन अपनी पूरी तैयारी  के साथ, पत्नी सारा और अपनी अकेली नन्हीं बेटी के साथ  अपने मिशन पर  6  जनवरी 1868  को कनाडा पहुँच गया। उन ने सबसे  पहला काम किया – प्रिंसेस टाउन के एरी गांव में एक प्रेस्बिटेरियन चर्च की स्थापना। भारतीय  गिरमिटिया के इस गांव में मुस्लिम संप्रदाय के लोग भी काफी थे।  इस गांव में सं 1830 से पहले से ही स्कॉटलैंड (अमेरिकी) का एक यूनाइटेड प्रेस्बिटेरियन चर्च था लेकिन यह जीर्ण शीर्ण अवस्था में था और कभी भी गिर सकता था।  रेवरेंड मोर्टन के उत्साह को देख कर इस के अमेरिकी मालिकों ने मोर्टन को इस चर्च के पुनरुद्धार की अनुमति दे दी। इसी प्रकार यह  चर्च नए प्रेस्बिटेरियन ईसाई बने भारतीयों का चर्च बन गया।  इसी वर्ष चर्च से प्रेरणा लेकर भारतीय प्रवासी मुस्लिम समूह ने भी एक मस्जिद की  स्थापना की।   इस प्रकार यह गांव एक तरह से सांप्रदायिक सद्भाव और धार्मिक सहिष्णुता का केंद्र बन गया।  यह सं1868 की बात है।

इस से पहले 1854  में भारत के सत्ताधारी अँग्रेज़ों ने कुछ मिशनरियों को हिन्दू संस्कृति, सभ्यता, दर्शन, इतिहास और भारतीय जीवन पद्धति सीखने के लिए भारत भेजा था । इसी दौरान  रेव० मोर्टन ने भारत से हिंदी पढ़ने पढ़ाने की सामग्री मंगाई। उस ने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया। टूनापुना में हिंदी मुद्रण के लिए एक प्रेस भी लगाई। उन की पत्नी सारा ने हिंदी में एक भजनावली  मुद्रित की और उसे  सभी भारतीयों को बांटी।  उन के दोनो  बच्चे – बेटी अग्नेस मोर्टन और बेटा  हार्वे मोर्टन  कुछ दिनों बाद ही न केवल  अच्छी हिंदी बोलने लगे वरन स्थानीय भारतियों को हिंदी सीखाने भी लगे।

धीरे धीरे मोर्टन ने अपना प्रचार के काम को  बढ़ाना शुरू कर दिया। एरी गांव से बाहर निकल कर त्रिनिदाद के दक्षिण में  विभिन्न स्थानों पर उन ने चर्च बनाये, वहां हिंदी भजनों का गायन वादन शुरू किया  इन भजनों के माध्यम से वे हिंदी के  प्रचारक बन गए। उन  ने  स्वयं हिंदी सीखी, अपनी पत्नी और अपने दोनों बच्चों को सिखाया।  इस के साथ ही बच्चों के लिए स्कूल भी खोलने शुरू किये।  1871 से लेकर 1881 तक – एक दशक में उन ने दक्षिणी त्रिनिदाद के दूर दूर स्थानों पर प्राइमरी स्कूल खोल दिए। लेकिन इस सब के पीछे  उद्देश्य एक ही था। सब को प्रेस्बिटेरियन ईसाई बनाना।  देखने और सुन ने में इन के भजन हिंदी में थे लेकिन ये प्रभु यीशु को समर्पित होते थे। कुछ भजनों के बोल इस प्रकार थे –

“करो मेरी सहाय, प्रभु।”

यीशु ने कहा था , ” मैं  ही तुम्हारा सहायक हूँ।

येशु, मेरे प्राण बचाओं” , आदि।

इन नव स्थापित चर्चों के नाम भी हिंदी में रखे गए जैसे फैज़ाबाद के चर्च का नाम रखा  भोर का तारा (Morning Star Presbyterian Church), सिपरीया के चर्च का नाम रखा – जगत का प्रकाश (Light of the World Church) . रुज़िलेक चर्च का नाम था धर्म का सूरज (Sun of Righteousness). .

कनाडा स्थित प्रेस्बिटेरियन अधिकारियों ने मोर्टन के काम की सफलता को देख कर नोव स्कोशिया के ही दूसरे मिशनरी डॉकेन्ग्रांट को भी त्रिनिदाद भेज दिया।  ग्रांट ने मोर्टन के काम को आगे बढ़ाया।  चर्च के स्थापना के साथ इन ने अपना ध्यान कालिज और सेकंडरी स्कूल खोलने पर लगाया।  काफी स्ट्रीट पर बने चर्च का नाम ग्रांट ने ‘सुसमाचार चर्च  रखा। इन ने अपना कार्य क्षेत्र बदला अर्थात इन ने लोगों के रहन सहन को बदलने का काम शुरू किया। भारतीयों  में संस्कार वंश आगे बढ़ने, प्रगति करने, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने और अपना स्तर सुधारने की इच्छा होती है।

ग्रांट  ने इस का लाभ उठाया और इस काम में गिरमिटियों की मदद करना शुरू किया।  धीरे धीरे अपनी भी शर्तें जोड़ने लगे।  जैसे थोड़ा सा अपना नाम बदलना होगा, थोड़ा सा अपना दृष्टिकोण बद्लना होगा, प्रभु यीशु की प्रार्थना करनी होगी, अर्थात सीधे सच्चे तौर पर प्रेस्बिटेरियन बनना होगा। लालच दिया कि ऐसा करने पर उन्हें अनेक सुविधाएँ मिलेंगी, शिक्षा मिलेगी, नौकरियांमिलेंगी, उन के रहन सहन का स्तर ऊंचा हो जायेगा।  इस का ज्वलंत उदाहरण बने – लाल बिहारी जो ग्रांट और मोर्टन के सुझाये रास्ते पर चलकर एक सम्मानित और शिक्षित व्यक्ति बने और  अंत में अपने स्थानीय प्रेस्बिट्रेरियन चर्च के उच्च अधिकारी बने।  इसी तरह के समाज में उच्च स्थान प्राप्त करने वाले थे रेवरेंड विंस्टन गोपाल। रेव०  गोपाल ने जॉन मोर्टन के बारे में लिखा है की “उन की सफलता का रहस्य उन की  अपने काम के प्रति निष्ठा, आत्म विश्वास, लग्न और जनून था।  उन का लक्ष्य था ग्रामीण समुदाय का उत्थान और इस के लिए उन ने स्थान चुना शांत और सरल ‘एरी’ गाँव और लक्ष्य रखा  प्रेस्बिटेरियन मिशन।

परिणाम स्वरुप  इस गांव को त्रिनिदाद के इतिहास में स्थान  मिला – एक वैविध्य पूर्ण गांव होने का।  इसी गांव से सूत्रपात हुआ स्कूली शिक्षा का और यहीं बना देश का सबसे पहला  प्रेस्बेट्रियन चर्च। दक्षिणी  त्रिनिदाद  के शहर प्रिंसेस टाउन के उत्तर पश्चिम में बसेएरी गांव को सौभाग्य मिला सबसे पहले हिंदी  पठन पाठन शुरू करने का।  क्या किसी  ने कभी सोचा था कि भारत से हज़ारोंमील दूर ग्लोब के दूसरी तरफ बसे त्रिनिदाद के इस  छोटे से गांव ‘एरी’  को पश्चिम में हिंदी का प्रथम पौधा लगाने का श्रेय प्राप्त होगा। कारण अथवा उद्देश्य कुछ भी रहा हो लेकिन यह एक सूत्रपात था।  इस गांव को पश्चिम का प्रथम हिंदी तीर्थ कहा जा सकता है।

–बी एन गोयल

 

 

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बी एन गोयल
लगभग 40 वर्ष भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रक्षा मंत्रालय, सूचना प्रसारण मंत्रालय तथा विदेश मंत्रालय में कार्य कर चुके हैं। सन् 2001 में आकाशवाणी महानिदेशालय के कार्यक्रम निदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए। भारत में और विदेश में विस्तृत यात्राएं की हैं। भारतीय दूतावास में शिक्षा और सांस्कृतिक सचिव के पद पर कार्य कर चुके हैं। शैक्षणिक तौर पर विभिन्न विश्व विद्यालयों से पांच विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर किए। प्राइवेट प्रकाशनों के अतिरिक्त भारत सरकार के प्रकाशन संस्थान, नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए पुस्तकें लिखीं। पढ़ने की बहुत अधिक रूचि है और हर विषय पर पढ़ते हैं। अपने निजी पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकें मिलेंगी। कला और संस्कृति पर स्वतंत्र लेख लिखने के साथ राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विषयों पर नियमित रूप से भारत और कनाडा के समाचार पत्रों में विश्लेषणात्मक टिप्पणियां लिखते रहे हैं।

1 COMMENT

  1. श्रीमान गोयल महोदय ने, यह अनजाना इतिहास शब्दांकित कर, हिन्दी की ही नहीं, पर हिन्दुत्व की भी सेवा की है।
    साथ साथ अंग्रेज़ को उपकार कर्ता, कल्याणकारी माय बाप माननेवालों को पुनर्विचार करने के लिए बाध्य किया है।

    आप के प्रत्येक आलेख में ऐसा कोई न कोई नया दृष्टिकोण उजागर होता है।
    ————————————
    २००७-०८ में मैंने गयाना, त्रिनिदाद, और सुरीनाम लगभग १७-१८ दिन का कुल प्रवास किया था।
    सुरीनाम में अभी भी हिन्दी बोली जाती है, पढी जाती है।
    रेडियो साक्षात्कार भी हिन्दी में हुआ था।
    अनेक धार्मिक संस्थाएँ और मंदिरों में वार्तालाप भी हिन्दी में होते हैं।
    भारत के, बाहर गिरमिटिया प्रजाने मात्र तुलसी रामायण के सहारे हिन्दी भी टिका के रखी है।
    मैं ने वहाँ रामायण की पोथी की आरती होते हुए देखी थी।
    भगवान की मूर्ति के साथ साथ आरती के समय, रामायण भी रखी जाती है।
    त्रिनिदाद में, एक मन्दिर जो समुद् रमें मानव निर्मित टापू पर बना था, उसे, देखकर भी, भावुक हुए बिना रहा नहीं जा सका।
    सुरीनाम में हर मन्दिर में मुझे निम्न चार पंक्तियाँ सुनाने का आग्रह होता था।जो, उसी अवसर पर लिखने की प्रेरणा हुयी थी।
    ==>
    शब्द-कोश का एक शब्द है।
    शब्द-कोश का एक शब्द, जो शक्ति-कोश है।
    शब्द सिन्धु का एक बिन्दू है।
    शब्स सिन्धु का एक बिन्दू जो शक्ति सिन्धु है।
    कौन शब्द है? कौन बिन्दु है, कौन सिन्धु है।
    फिर उत्तर देता—वह शब्द हिन्दू है।
    जो आप को और हम भारतीयों को भी जोडता है।

    श्रोताओं को बहुत पसन्द होता था। कितनों को कागज पर लिख कर दिया गया था।
    जय हिन्दी-जय हिन्दुत्व -जय हिन्दुभूमि।

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