उनके खुलने से जो पर्दा सरका था
उनकी आंखों से सबसे पहले
घुप्प अंधेरा डोल रहा था आंखों में
और यहीं समझी थी जीवन का पाठ ।
इस बीच खुलते गये सांसों की डोर
और उसने देखा अपने मम्मी-पापा को
विडियो गेम्स के संग
देखा उसने कमरे की आधुनिकता
अलग-अलग खंबों मे बंटा
कमरे सा ही परिवार के सदस्य ।
उसने कोशिश की
कि कभी भोजन न सही नाश्ता ही सही
सभी एक साथ जमीन पर बैठ खाया जाए
और चखा जाये रिश्तों का स्वाद ।
पर उसने नहीं जाना मम्मी या पापा
कितने सरके हैं बुढ़ापे की ओर
या भाई कालेज पहुंचा या नहीं
और वह खुद जब देखती है आईने को
कुछ काली तिरछी रेखायें
आईने के पार गुजर जाती हैं
जिनके साथ नहीं बंधा रहता
पापा का दुलार, मम्मी की ममता
या भाई का स्नेह और खुद
क्वांरी चिता में स्वाह हो जाती है।
पर सुनो
कुछ जलती है उनकी आंखों में
लोहे गलने का गंध सा
इसलिए नहीं चाहती डोली में बैठना
चाहती है बुनना कुछ सपने
अपने और उन भुतहा कमरों के बीच
और चाहती है बांटना
कुछ पल
अपनों के बीच स्नेह।