आखिर क्या हैं पैसे पेड़ पर नहीं उगते के निहितार्थ ?

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प्रवीण गुगनानी

* अभावपूर्ण मध्यमवर्ग के लिए मनमोहनसिंह का उच्चवर्गीय, निर्मम व भावहीन भाषण

* खाद के मूल्य, गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे अनेक विषय क्यों दूर रहे मनमोहन सिंह के भाषण से!!!

घोर, घनघोर भौतिकता की ओर तेजी से बढती इस दुनिया में भारत ही उन बचे देशों में प्रमुख है जहां भौतिकतावाद के स्थान पर आदर्शों, मनोवेगों, एक दूसरे के दुःख सुख और भावनाओं का महत्व अधिक समझा जाता है. जब हमारी और हमारें देश की संस्कृति में ही यह बात प्रमुखता से व्याप्त हो तब हमारें शासकों और नेताओं का भी कर्तव्य बनता ही है कि वे भी भावनाओं और आवेगों, मनोवेगों को महत्व देते हुए शासन कार्य करें. हाल ही में जब कीमतों में वृद्धि जैसे संवेदनशील मुद्दे पर राष्ट्र की अधिसंख्य जनसंख्या कराहनें, दुखने, चिंतित होनें के बाद आम नागरिकों को अपनी दैनिक आवश्यकताओं में कटौती करने, निम्न वर्ग के एक समय भूखे रहनें जैसे निर्मम तरीके को अपनाने के उपाय पर आ गई तब ऐसे अवसर पर निश्चित ही राष्ट्रप्रमुख का या प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन एक राहत, संवेदना या सुख दुःख बांटने या बोलने सुनने का अवसर हो सकता था. ऐसा होता भी है; किसी भी देश में जब प्रजा किसी मुद्दे पर अत्यधिक दुखी हो, सुखी हो, परेशान हो, प्रसन्न हो, अवसाद में हो या किसी विषय से उसकी दैनिक जीवनशैली प्रभावित हो रही हो तब वहाँ का शासन प्रमुख राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अपने देश को संबोधित कर उन परिस्थितियों को स्पष्ट करता है जिसके कारण तथाकथित परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई हो. वस्तुतः जब प्रधानमंत्री का विशिष्ट स्थितियों में राष्ट्र के नाम भाषण होता है तब भाषण भावपूर्ण, सामंजस्य पूर्ण, सुहानुभूति या प्रसन्नतापूर्ण(जैसी स्थिति हो) और देश की जनता से तादात्म्य स्थापित करने की भाषा भाष्य में होना चाहिए. देश की जनता प्रधानमंत्री के भाषणों से संतप्त्ति, सुविधा, प्रेरणा लेने के साथ साथ स्थितियों की स्पष्टता के प्रकाश में भी आये यह आशा कि जाती है. किंतु प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह भाषण भावहीन, मूल्यहीन, सुहानुभूति विहीन, चेतना-प्रज्ञा-संज्ञा विहीन होने के साथ साथ निर्मम और कठोर भी था. प्रधानमन्त्री का भाषण पूरे मंत्रिमंडल और सत्तारूढ़ दल की भावनाओं का राष्ट्र के समक्ष प्रकटीकरण होता है और इसमें हाल ही के एकाध वर्ष की महत्वपूर्ण घटनाओं, नीतियों या योजनाओं पर स्पष्टीकरण या चर्चा होती है. इस नाते से प्रधानमंत्री, सम्पूर्ण केन्द्रीय मंत्रिमंडल और सत्तारूढ़ सप्रंग मोर्चा और प्रमुख रूप से काँग्रेस पार्टी इस देश को बताएं कि प्रधानमंत्री के भाषण में महंगाई शब्द से परहेज क्यों की गई ?जबकि यह भाषण ही महंगाई के विषय में प्रायोजित था. ये सभी यह भी बताएं कि कुशल अर्थशास्त्री का तमगा पहनें घूमने वाले हमारें प्रधानमंत्री के भाषण में योजना आयोग के उपाध्यक्ष और उनके प्रियपात्र मोंटेक सिंह अहलुवालिया की अट्ठाईस रूपये और पैतीस रूपये वाली परिभाषा पर उन्होंने अपने विचार क्यों नहीं रखें? देश को सबसे अधिक नुक्सान पहुंचाने वाले और सबसे अधिक आंदोलित और उद्वेलित केने वाले भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रधानमंत्री को शब्दों का अकाल क्यों पड़ा? देशके प्रधानमंत्री को देश के सबसे बड़े उत्पादक क्षेत्र कृषि की बढती दुरुहता पर चुप रहना शोभा नहीं देता!! वे बताएं कि अपने भाषण में वे आखिर किसानों की आत्महत्या और यूरिया, डी ए पी के पहुँच से बाहर होती कीमतों पर वे क्यों चुप रहे? एफ डी आई की चर्चा के साथ हमारें अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्रिमंडल को राष्ट्र को यह भी जवाब देना होगा कि आखिर भ्रष्टाचार गरीबी, बेरोजगारी, रूपये की घटती कीमत और सौ दिन में महंगाई घटाने जैसे प्रधानमंत्री के वादों पर इस स्पष्ट या मुखर भाषण में चर्चा क्यों नहीं की गई? आखिर प्रधानमंत्री को यह विचार करना ही होगा कि प्रधानमंत्री का भाषण केवल भाषण नहीं बल्कि राष्ट्रीय नीतियों की सार्वजनिक घोषणा होती है!! तो क्या हमारी राष्ट्रीय नीतियों में अब महंगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार अछूते विषय हो गए हैं? भारतीय प्रधानमंत्री का यह भाषण निश्चित ही घोर वाचाल और चतुराई पूर्ण तो है किंत दुखद रूप से संवेदनहीन, ठंडा और घटाटोप को बढानें वाला मात्र ही है. हम आशा करते थे कि प्रधानमंत्री हमारें विचारों, नीतियों, योजनाओं के मार्ग को प्रकाशित करेंगे किंतु उनकी आशा संभवतः केवल यह थी कि अंतराष्ट्रीय मीडिया से उन्हें जो लगातार धिक्कार, लानतें, मलामतें मिल रही थी वें उससे छुटकारा पा सकें!!

प्रधानमंत्री ने जिस डीजल औए गैस की बढती कीमतों के त्वरित और प्रमुख कारण को अपने भाषण में केंद्रित किया उस डीजल और गैस के उत्पादन और क्रय विक्रय की प्रमुख जिम्मेदार कम्पनियों की तिलिस्मी बेलेंसशीट का अध्ययन क्या हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने किया है? पिछले दिनों विकास गहलोत नामक शख्स ने सुचना के अधिकार के अंतर्गत इन सरकारी प्रतिष्ठानों से उनकी आय का आंकड़ा पूछा तब उन्हें २५ हजार करोड़ के शुद्ध लाभ की जानकारी दी गई. क्या उन्होंने सोचा कि मुनाफें की चाशनी में सराबोर और बढते प्रशासनिक खर्चों से लबालब ये हिन्दुस्तान पेट्रोलियम, भारत पेट्रोलियम, इन्डियन आइल आदि सरकारी कंपनियां पिछले वर्ष २०१०-११ में इस राष्ट्र की जनता से पच्चीस हजार करोड़ रूपये की मुनाफाखोरी करके भी अपने दाम क्यों बढ़ा रही है?

आंकड़ों की दृष्टि से केन्द्रीय मंत्रिमंडल, योजना आयोग और सप्रंग सरकार इस देश के सामनें नई नई जगलरी प्रस्तुत कर सकती है किंतु यथार्थ के धरातल पर हमारें देश की गरीबी, बेरोजगारी, रासायनिक खाद के बेतहाशा बढते मूल्य, गरीबी के मापदंड, दवाओं के मूल्यों पर किसी स्पष्ट व सख्त नीति के न होनें, आपरेशन फ्लड की घनघोर सफलता के बाद भी भुमिपुत्रों के शिशुओं को दूध न मिलने आदि की स्थितियां सरकार के मुखिया से स्पष्टीकरण और सुहानुभूति पूर्ण नीतियों की मांग कर रही है.

भारत की केन्द्रीय राजनीति में हाल ही में तेजी से घटे घटनाक्रम में जिस प्रकार की घटनाएं घटी हैं वे हैरान व हतप्रभ कर देनें वाली, सोचने समझनें को मजबूर करने वाली तो हैं ही किंतु उससे कुछ अधिक हास्यास्पद भी हैं. हास्यास्पद इस नातें से कि काँग्रेस की अंदरूनी वंशवादी राजनीति जिसके तहत तथाकथित राजकुमार के राजतिलक की खातिर ऐसे षड्यंत्र किये गए कि पश्चिमी मीडिया ने हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंडर एचीवर, कठपुतली और न जानें क्या क्या कह दिया..! प्रधानमंत्री ने तो पूरी बात दिल पर ही ले ली और लग गए ताबड़तोड़ हाथ पैर मारनें!! हास्यास्पद इस नाते से भी कि ठीक मेरे और सभी के बचपन की भांति ही कि –जैसे ही हमें गली मोहल्ले में कोई चिढ़ा देता था हम दौड़ते हुए अपनी माँ के पास जाते और फिर माँ या तो उन दोस्तों को डांटती आँख दिखाती जिन्होंने मुझे चिढ़ा कर रुलाया होता या फिर मुझे राजा दुलारा कहकर मेरा मन रखनें बढानें के प्रयत्न करती. ठीक उसी प्रकार हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पश्चिमी मीडिया की डांट चिटकोली खाकर रोते हुए अपनी मम्मी के पास गए और देश को संबोधित करनें की लालीपाप लेकर आ गए. ये लालीपाप अच्छी है मम्मी देकर खुश और मनबाबू चूसकर खुश. किंतु भगवान के लिए इस लालीपाप बाजी से इस देश की जनत, इसकी मर्यादा और इसकी नीतियों को बचाइए और बख्शियें.

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