यह कैसा लोकतंत्र

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रोहित पंवार

मतदाता पहचान पत्र हासिल करने की हमारी रूचि छिपी नहीं है. आखिर वोट देने से ज्यादा सिम खरदीने में यह जरुरी जो है वास्तव में जिस दिन मतदाता पहचान पत्र की केवल मतदान डालने में ही प्रयोग की सरकारी घोषणा हो जाए तो, किसी महंगे मल्टीप्लेक्स में सिनेमा की टिकट महंगी होने पर लाइन से हट जाने का जो भाव आता है यही भाव पहचान पत्र हासिल करने की जुगत में लगे लोगों के मन में जरुर आ जाएगा. लोगों के वोट देने का अधिकार देने भर से ही लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता, लोकतंत्र, व्यवस्था या संस्थाओं के लोकतान्त्रिक कार्यों से जाना जाता है, हमारे कार्य, सोच कितनी लोकतान्त्रिक है ये ही एक लोकतान्त्रिक होने के आदर्श मापदंड है! विनायक सेन जैसे आवाज़ उठाने वाले लोगो को जेल में और जनता के पैसे लुटने वाले को सत्ता के खेल में जगह जिस देश में मिलती हो उसे लोकतंत्र कहना बेमानी होगा, इस लिहाज से आजाद होने के ६३ साल में भारत लोकतंत्र के आदर्श मापदंडों पर सही से खरा उरता नहीं दिखाई देता!

मीडिया में सुर्खिया पाए देश के अलोकतांत्रिक कार्यों को छोड़ भी दिया जाए तो, एक आम नागरिक द्वारा किसी पुलिस थाने में शिकायत करने में उसकी हिचकिचाहट, सरकारी दफ्तरों में बार बार जाने में घिसते जूते, अपने ही जन प्रतिनिधियों से बात करने में डर का भाव और जंतर मंतर में आन्दोलन कर रहे आम जन पर पुलिस के डंडों की मार मार चिक चिक कर यह बताती है की हम कितने परिपक्व राजनितिक व्यवस्था के वासी है! इस देश में मीडिया की भूमिका पर नजर दोडाए तो निराशा ही हाथ लगती है, मीडिया न कहकर कॉरपोरेट मीडिया कहे तो तर्कसंगत होगा, आज़ादी की लड़ाई में जिन आन्दोलनों ने हमे आजाद कराया, आज उन्हीं आन्दोलनों को चलाना पैसों पर टिका है. जिसके पास सबसे ज्यादा पैसा उतनी ही आन्दोलन की गूंज गूंजेगी जिसके पास पूंजी नहीं वो जन्तर मंतर पर चिल्लाता चिल्लाता मर जाएगा और कॉरपोरेट मीडिया भी पैसे वालो को कवर करेगी, लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है लेकिन राडिया टैप कांड ने मीडिया का चश्मा पहने लोगों को मीडिया का चश्मा उतारने पर भले ही मजबूर कर दिया हो लेकिन देश को सही मायने में लोकतंत्र बनाने में लम्बी दूरी तय करना अभी बाकी है!

नववर्ष के मौके पर प्रधानमंत्री ने नए साल में निराशावाद को दूर करने की अपील तो की लेकिन वह भूल गए कि निराशा फैलाने वालो में इस देश की राजनितिक व्यवस्था का हाथ सबसे बड़ा रहा, राजनीतिक दलों के दलिये प्रणाली के दुरूपयोग ने इसका और भी ज्यादा विकास किया खुद को लोकतान्त्रिक तरीके से कार्य का दम भरने वाली इन पार्टियों में आलाकमान का चलन शुरू हुआ है, आलाकमान यानि जिसके हाथ में सारी कमान हो जो खुद निर्णय अपने तरीके से ले ऐसा लगता है जैसे कोई तानशाह डंडा दिखाकर पार्टी को चलाता हो वाकई में पार्टियों की ऐसी प्रणाली सही मायने में तानाशाह लगती है ऐसे में लोकतंत्र की चादर ओड़े तानाशाह रवैय्या अपनाए इन दलों से लोकतान्त्रिक व्यवस्था देने की बात हज़म नहीं होती! सांविधानिक पदों का इस्तेमाल यह दल अपने हितों की पूर्ति करने में जरा भी नहीं चुकते. जैसे बरसों पहले राजा अपने करीबी और हितो की पूर्ति करने वाले को मंत्री पद देता था! सरकारी योजनाएं, योजनाएं कम नेताओं, नोकरशाहों के लिए बीमा पॉलिसी ज्यादा लगती है खुद सरकार ने अपने विकास कार्यक्रम को अच्छा दिखाने के लिए बीपीएल सूची में हकदार गरीबों को शामिल ही नहीं किया , बीपीएल सूची में गरीबों के आकड़ो को लेकर सरकार और तेंदुलकर समिति के आकड़ों में ही खासा अंतर है ऐसे में सरकार से यह अपेक्षा करना की वो सही मायने में आम जन विकास करेगी किताबी बाते लगती है, लेकिन फिर भी हमे दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक, महान देश होने का गुरुर है वास्तव में महानता को सही अर्थो में देखे जाने की जरुरत आ पड़ी है जिस देश में सड़क पर ठण्ड में सिकुड़ते लोगो के लिए उच्चतम न्यायालय खुद हस्‍तक्षेप करके सरकार को रेन बसेरा बनाने का आदेश देता हो क्या वो देश वाकई में महान है? स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा देश को विश्व का सबसे बड़ा और सफल लोकतान्त्रिक देश बताना जायज है? क्या वाकई में हम लोकतान्त्रिक हो गए की हमें अपनी बात रखने की आज़ादी है? इन सवालो पर आत्ममंथन करने की जरुरत है, संसद ठप (करोड़ का नुकसान) करके जिस तरह इस देश के विपक्ष ने जेपीसी को लेकर कोशिश की है अगर इस सवालों को सुलझाने में गंभीरता दिखाई होती तो सही मायने में हम महान और आदर्श लोकतान्त्रिक देश कहलाते!

लम्बे समय से ठन्डे बसते में पड़ा लोकपाल बिल आज भी बसते से बाहर निकलने को आतुर है लेकिन हमारे सांसदों की पैसो की भूख इस विधयक के प्रति तो उदासीनता दिखाती है लेकिन अपने आमदनी बड़ाए जाने के प्रति रूचि, तो वही आरटीई, शिक्षा का अधिकार कितने सही तरीके से लागू किया गया यह सबके सामने है! लगातार आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याए हो रही है, समाज के गरीब वंचित तबके के बच्चे स्कूलों में दाखिला , पड़ने के मकसद से नहीं बल्कि पेट भरने के कारण लेते है ऐसे में देश का सर्व शिक्षा अभियान कहा गया? यह प्रश्न चिन्ह बनकर खड़ा है? विदेशी प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के भारत दोरे पर भारत को उभरती हुई ताकत बता देने से हम गर्व से फुले जाते है, स्टेडियम में भारतीय धावक को दौड़ में आगे बड़ने का होसला देकर हम एकता की मिसाल दिखाते है लेकिन मेक्डोनाल्ड, डोमिनोज में किसी गरीब वंचित बच्चे के आ जाने पर हेरानगी जताते, दयनीय तोर पर देखते है शायद यही महानता है इस देश की, इसे ही ताकत कहते है! भूखे देश में राजीव गाँधी का यह कथन की “एक रूपये देने की सरकार की कोशिश जरुरतमंदो तक दस पैसे के रूप में पहुचती है” आज भी काफी प्रसांगिक है” यानि नब्बे पैसे देश के पिछड़े, वंचित लोगो की भूख नहीं मिटाता लेकिन भ्रष्ट नेताओ, कॉरपोरेट दलालों, नोकरशाहो की लालची भूख को बढ़ाता है

देखा जाए तो लोकतंत्र व्यापक एक आदर्श व्यवस्था है हम इस आदर्श व्यवस्था के बालकाल में ही खड़े दिखाए देते है, परिपक्व लोकतंत्र तब ही बन सकेंगे जब कहने भर से ही नहीं अपने विचार और कार्यों से लोकतंत्र को साबित कर सकेंगे!

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