भद्रजनों ने क्या कभी अपनी अभद्र भाषा पर गौर किया है ?

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विनायक शर्मा

संसद की प्रथम बैठक की 60 वीं वर्षगांठ पर सदन में बोलते हुए लालूप्रसाद यादव ने एक बार फिर सांसदों के आचरण पर बोलनेवालों को घेरते हुए संसद की मर्यादाओं और लोकतंत्र पर खतरे के नाम पर उन्हें लक्ष्मण रेखा में बांधने का प्रयत्न किया है. देश की जनता जनार्धन की समझ से यह परे है कि मंदिर के पुजारी के भ्रष्ट आचरण पर सवाल उठाने से क्या भगवान् की मर्यादा कम होती है या मंदिर का अस्तित्व खतरे में पड़ता है ? भक्त और भगवान् के मध्य तो आस्था का सम्बन्ध है और इस आस्था को मलीन करने का कृत तो भ्रष्ट पुजारी कर रहा है जो कि उस मंदिर का एक नौकर मात्र ही है और जिसे रखने या हटाने की प्रक्रिया पर सुधार की आवश्यकता सभी जता रहे हैं. यहाँ बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि संसद के मान-सम्मान की रक्षा के लिए चिंतित हमारे सियासतदानों ने सार्वजनिक जीवन में विरोधियों पर जबानी हमले करते हुए क्या कभी अपनी असंसदीय भाषा पर भी गौर किया है ?

जनता द्वारा निर्वाचित हमारे कुछ जनप्रतिनिधियों पर विगत दिनों जब भ्रष्टाचार और अपराध में संलिप्त रहने के आरोप लगने लगे तो अपने आचरण को दुरुस्त करने, इस प्रकार की प्रवृति से बचने और अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को राजनीति से दूर रखने की अपेक्षा उन्होंने जनता को ही ऑंखें तरेरनी शुरू कर दीं. अपने मान-सम्मान के लिए चिंतित हमारे इन जनप्रतिनिधियों ने देश की १२५ करोड़ जनता की चिंता छोड़ भ्रष्टाचार से व्यथित किसी साधारण नागरिक द्वारा कहे गए शब्दों को लेकर संसद की अवमानना का प्रश्न खड़ा करने का प्रयत्न किया. इतना ही नहीं बात-बात पर संसद न चलने देने वालों ने विशेषाधिकार का प्रश्न उठा कर उन लोगों को दण्डित करने और हथकड़ी लगा कर संसद में पेश करने तक की मांग कर डाली. देश के स्थापित विधीनुसार क्या किसी को भी किसी के बारे में अपमानजनक शब्दों या अवमानना के भाव से संबोधन करने का अधिकार है ? क्या हमारे नेताओं ने कभी इस पर विचार किया है कि वह अपने विरोधियों के लिए मीडिया में बयान देते समय किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं और जनता में उसका क्या सन्देश जाता है ?

अभी हाल में ही मीडिया में छाये रहने की होड़ में बेवजह बयानबाजी करने वाले लालू प्रसाद यादव ने बाल ठाकरे और राज ठाकरे को लफंगा कह कर संबोधित किया. यहाँ प्रश्न यह पैदा होता है कि सांसद होने के नाते क्या किसी अन्य नेता को लफंगा कहने का उनको अधिकार मिल गया है ? वहीँ दूसरी ओर कांग्रेस के महामंत्री दिग्विजय सिंह ने भी हाल ही में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को लबरा (झूठा) और रोतला (सदा रोनेवाला) कह कर संबोधित किया. बुंदेलखण्ड से शुरू हुई कांग्रेस जनचेतना यात्रा के दौरान एक जनसभा में दिग्विजय ने शिवराज सिंह और उनकी सरकार पर हमला बोलते हुए मान-मर्यादा की तमाम सीमाएं तोड़ते हुए जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया उससे समाज को कैसी चेतना मिली होगी यह तो वह स्वयं ही बता सकते हैं. वैसे इन महानुभाव द्वारा कहे गए विवादित वक्तव्यों को संकलित कर एक ग्रन्थ बनाया जा सकता है. देश को भद्रता का प्रवचन देनेवाले यह सियासी भद्रजन स्वयं अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए देश की आम जनता का कैसा मार्गदर्शन कर रहे हैं ? ऐसा नहीं कि बदजुबानी की इस प्रतियोगिता के केवल यही दो-चार धुरंधर ही प्रतियोगी हैं. एक लम्बी फेहरिश्त है ऐसे महारथियों की और लगभग सभी दलों में ऐसी भाषा का प्रयोग करने वाली मिल जायेंगे.

चुनावों के दौरान तो इन नेताओं की भाषा पर गौर करना समय खराब करने वाली बात होगी. पागल, मंदबुद्धि, चोर, डाकू, हत्यारे, लुटेरे, देश के दुश्मन और लाशों के सौदागर जैसे असंसदीय और अवमानना करनेवाले अलंकारों से संबोधित करते हुए वे एक दूसरे की मान-मर्यादा और नेता होने की गरिमा तक भूल जाते हैं. बदजुबानी की इस जंग में कोई भी कम नहीं है. एक ओर सोनिया गांधी गुजरात के नरेन्द्र मोदी को लाशों का सौदागर कह कर विवाद पैदा कर देती हैं तो वहीँ दूसरी ओर भाजपा के मुखिया गडकरी संसद के कटौती-प्रस्ताव का जिक्र करते हुए मुलायम सिंह और लालू यादव के लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग करते हुए उन्हें सोनिया और कांग्रेस के तलवे चाटने वाले बता देते हैं. हालाँकि बाद में उन्होंने हिंदी भाषा के एक मुहावरे के प्रयोग करने की बात कह कर मामले को टालने का प्रयत्न किया था.

हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के चुनावों के दौरान ७२ वर्षीय केंद्रीय इस्पातमंत्री बेनी बाबू ने अपने से मात्र दो या तीन वर्ष बड़े अन्ना हजारे को टोपीवाला बुड्ढा कहकर संबोधित किया. वैसे अन्ना के खिलाफ कांग्रेसी नेताओं की बदजुबानी कोई नई बात नहीं है. इससे पूर्व कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने भी अन्ना के खिलाफ अभद्र और कड़े शब्दों से टिप्पणी की थी और विवाद होने पर उन्होंने बिना शर्त उनसे माफी भी मांग ली थी.

बेंगलूरू में मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर कोरिडोर परियोजना के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले देवगौडा ने बातचीत में येदियुरप्पा के खिलाफ अंससदीय भाषा का कथित इस्तेमाल किया जिसको लेकर भाजपा नेताओं ने कडा विरोध जताया था. पंजाब के वयोवृद्ध मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के विरुद्ध बयान करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह भी तू-तड़ाक की भाषा व बेअदबी के लहजे से बात करते हैं. इसका बदला लेने के लिए ही शायद प्रकाश सिंह बादल के पुत्र सुखवीर सिंह बादल ने भी अमरेन्द्र सिंह के विषय में “काम काज छोड़ कर शाम से ही पटियाला पेग चढ़ा लेता है” जैसी भाषा का प्रयोग कर पलटवार किया था.

भाजपा की उमा भारती को भी अडवानी के विरुद्ध उनकी बदजुबानी के कारण ही भाजपा से बाहर का रास्ता दिखाया गया था. यह बात अलग है कि भाजपा में वापसी के बाद, माया के विरुद्ध मध्यप्रदेश से लाकर उत्तरप्रदेश में नेता बना कर उतरा था ताकि माया को उसी की भाषा में जवाब दिया जा सके. देश के असल मुद्दों की अनदेखी करते हुए और मात्र विरोध करने और मीडिया में स्थान पाने की होड़ में लगे राजनीतिक दलों के यह नेता एक दूसरे को नौटंकीबाज, भांड, ओसामाबिन लादेन और भूत-प्रेत की संज्ञा देते हुए इतने बहक जाते हैं कि महात्मा गाँधी की समाधीस्थल राजघाट को शमशान घाट और नितिन गडकरी को नालायक और भाजपा का जोकर तक बताने से गुरेज नहीं करते. समाजवादी पार्टी के नेता मोहम्मद आजम खान ने तो बदजुबानी की सभी हदें तोड़ते हुए यूपी के पूर्व गवर्नर टी वी राजेश्वर पर निशाना साधते हुए यहाँ तक कह दिया था कि पूर्व गवर्नर टी वी राजेश्वर को लाल किले से फांसी दे देनी चाहिए. इसी प्रकार कश्मीर पर एक अन्य विवादित बयान देने पर उत्तर प्रदेश की एक अदालत को मोहम्मद आजम खां के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज करने का आदेश देना पड़ा था. हालांकि आजम खान ने बाद में अपना यह विवादित बयान वापस ले लिया था.

यह तो कुछ उल्लेखनीय वृतांत थे हमारे जनप्रतिनिधियों की बदजुबानी के. परन्तु अब देखने में यह भी आ रहा है कि नेताओं की बदजुबानी की बीमारी का असर अधिकारियों पर भी पड़ने लगा है. विगत दिनों उत्तरप्रदेश पुलिस के दो बड़े अधिकारियों की असंवेदनशीलता और बदजुबानी के किस्से को तमाम टीवी चैनलों पर सारे देश ने देखा. अधिकारियों में बढती सामंतवादी प्रवृति और कर्तव्यविमुखता का यह एक उदाहरण मात्र है. अपराध से दुखी जनता से इस प्रकार का व्यव्हार कैसी मानसिकता को दर्शाता है ? मीडिया में मामले के उछलने और राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा सरकार से रिपोर्ट मांगने पर मामले ने जब तूल पकड़ा तो अंततः अखिलेश यादव की सरकार को डीआइजी एसके माथुर और एसपी धर्मेन्द्र कुमार का स्थानांतरण करना पड़ा.

राजनीति और सार्वजनिक जीवन से जुड़े यह भद्रजन इस प्रकार की बदजुबानी की जंग से अंततः हासिल क्या करना चाहते है यह तो वही जाने, परन्तु देशवासियों को तो उस दिन की प्रतीक्षा है जब शालीनता को तोड़ने व अमर्यादित और असंसदीय भाषा का प्रयोग करनेवाले राजनीतिज्ञों के विरुद्ध भी हमारी संसद ठीक उसी प्रकार की कारवाई करने में सफल हो सकेगी जैसी कारवाई उसने पैसा लेकर प्रश्न पूछनेवाले सांसदों के विरुद्ध की थी.

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विनायक शर्मा
संपादक, साप्ताहिक " अमर ज्वाला " परिचय : लेखन का शौक बचपन से ही था. बचपन से ही बहुत से समाचार पत्रों और पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं में लेख व कवितायेँ आदि प्रकाशित होते रहते थे. दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के दौरान युववाणी और दूरदर्शन आदि के विभिन्न कार्यक्रमों और परिचर्चाओं में भाग लेने व बहुत कुछ सीखने का सुअवसर प्राप्त हुआ. विगत पांच वर्षों से पत्रकारिता और लेखन कार्यों के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर के अनेक सामाजिक संगठनों में पदभार संभाल रहे हैं. वर्तमान में मंडी, हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र में संपादक का कार्यभार. ३० नवम्बर २०११ को हुए हिमाचल में रेणुका और नालागढ़ के उपचुनाव के नतीजों का स्पष्ट पूर्वानुमान १ दिसंबर को अपने सम्पादकीय में करने वाले हिमाचल के अकेले पत्रकार.

3 COMMENTS

  1. शर्मा जी आप सरीखे जागरूक मीडियाकर्मी व विचारक जनमत को दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं. ये बिका मीडिया तो देश को बहकाने और भटकाने में लगा हुआ. ऐसे में आप सरीखे सज्जनों के प्रयास अत्यंत महत्व के हो जाते हैं जो झूठ के अँधेरे को भेद कर सच को सामने लाने का काम करते हैं. इसी प्रकार जन जागरण की प्रक्रिया चलती रहे, यही जनता इन नेताओं की करनी का जवाब इन्हें बड़ी अच्छी तरह देगी इन नेताओं को. समय निकट है.

  2. डाक्टर साहेब आपका कहना सर्वथा उचित है परन्तु यहाँ समस्या यह है की जनसाधारण केवल दबाव ही बना सकते हैं, इस प्रकार का विधेयक पारित कर उसे विधी का रूप देना तो इन जनप्रतिनिधियों का ही काम है जो यह कभी नहीं करेंगे. लोकपाल विधेयक का हश्र तो देश देख ही चुका है. लाभ-हानि की गन्ना करने और राजनीति खूंटे से बंधे इस देश की जनता भी राजनीतिक दलों पर दबाव नहीं बनाती.
    ऐसी परिस्थिति का निर्माण हो चुका है की हम ” इनको सदबुद्धी दे भगवान ” कहने के अतिरिक्त देशवासी और कुछ नहीं कर सकते.

  3. आप सही कहते हैं. संसद में बैठ कर देश की गरिमा को गिराने वालों के विरुद्ध भी तो कानून होना चाहिए. इनकी अवमानना अपराध की श्रेणी में आता है और जो ये लोग देश की अवमानना अपनी असभ्य भाषा और व्यवहार से करते हैं, उसके विरुद्ध भी कानून क्यूँ नहीं होना चाहिए. मेरा अनुमान है की देश के ९९% लोग चाहेंगे कि सांसदों के विरुद्ध एक ऐसा अंकुश लगाने वाला कानून बने. ये स्व विवेक से सुधरेंगे, ऐसी आशा तो करना कठिन है.

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