पुरस्कार वापसी पर क्या कहते हैं बुद्धिजीवी

अक्षय दुबे ‘साथी’

 

राहुल देव (वरिष्ठ पत्रकार)

मैं ये मानता हूँ कि कोई भी राष्ट्रीय पुरस्कार कोई दल नहीं देता बल्कि एक चयन प्रक्रिया के बाद देश के द्वारा दिया जाता है,तो ऐसे में यह पुरस्कार लौटाना उचित नहीं है.लेकिन जो कुछ हो रहा है उसको सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता मगर आज विरोध की बजाय संवाद की ज़रूरत है.अब हमको पूरी सावधानी के साथ षड्यंत्रों और असहमतियों को समझना होगा.

मालिनी अवस्थी (प्रख्यात लोक कलाकार)

साहित्यकारों का आदर इसलिए होता है क्योंकि वे समाज में समरसता घोलते हैं लेकिन आज वही भय का वातावरण बना रहे हैं.कुछ दिन पहले मुन्नवर राणा जी पुरस्कार वापसी के खिलाफ लिखते हैं कि “क्या कलम की स्याही सुख गई है” फिर एकाएक क्या होता है कि मुन्नवर जी नाटकीय ढंग से पुरस्कार वापसी की घोषणा कर देते हैं,क्यों न हम इसको एक साजिश के तौर पर देखें.

कमलकिशोर गोयनका

मैं चालीस वर्षों से उस विचारधारा वर्ग से संवाद कायम करने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन वे संवाद के लिए तैयार नहीं हैं ,वे स्वयं को श्रेष्ठ विचार वाले बताते हैं.उदय प्रकाश जी छःमहीने पहले वक्तव्य देते हैं कि ‘अकादमी सम्मान उनके चेहरे में लगे दाग के समान है’ उनसे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं? कुछ लोगों को अपने एनजीओ में घट रहे विदेशी चंदों की फ़िक्र सता रही है,ऐसे में ये केंद्र सरकार को बदनाम करने की साजिश के अलावा कुछ भी नहीं है.

दया प्रकाश सिन्हा (प्रख्यात नाटककार)

साहित्यकार व्यक्तिगत रूप से कोई विचार रखे तो अलग बात है लेकिन एक साजिश के तहत संगठन बनाकर विरोध करने वाले लोगों को साहित्यकार नहीं बल्कि राजनितिक कार्यकर्ता मानना चाहिए.

अच्युतानंद मिश्र (वरिष्ठ पत्रकार)

पुरस्कार लौटाने की तात्कालिक उत्तेजना क्या थी यह समझ से परे है ये जिस चिंतनधारा से निकले हुए लोग हैं उनका अपना इतिहास रहा है वे महात्मा गाँधी को भी अंग्रेजों का  एजेंट कहा करते थे.पुरस्कार लौटाने की तात्कालिक उत्तेजना के रूप में केवल और केवल २०१४ में का लोकसभा चुनाव दिखाई देता है.

बलदेव वंशी (कवि)

साठ वर्ष तक जिन शक्तियों के सहारे वे पुरस्कार पाते रहे उनका दबाव है कि वे पुरस्कार वापस करें और उनकी उत्तेजना की बिंदु बिहार चुनाव है.अब हमारा दायित्व बनता है राजनीति का उत्तर प्रबल राजनीति से देना.

नरेन्द्र कोहली (प्रख्यात लेखक)

कांग्रेस का इंटलेक्चुअल लोबिंग वामपंथी ही रहे हैं और साठ वर्षों से एक ही विचार पक्ष को पुरस्कृत किया जाता रहा है.और इनका बल एक विशेष प्रकार की असहिष्णुता पर है वे अन्य प्रकार की असहिष्णुता पर बात नहीं करते लेकिन आज ऐसा क्या बदला कि उन्हें पुरस्कार लौटाने पड़ रहे हैं?दरअसल बदली है केंद्र की सरकार.और वे अपने लाभ के लिए एक समुदाय विशेष को डराकर इस देश को दुर्बल बना रहे हैं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here