कितनी वाजिब है रियायत की मांग ?

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sanjayduttविनायक शर्मा

विगत २० वर्षों से लंबित मुंबई बम विस्फोट की घटनाओं में अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले की मुहर लगा ही दी. अन्य आरोपियों को सजा सुनाने के साथ-साथ सिनेजगत के अभिनेता संजयदत्त की सजा छह वर्ष से घटाकर पांच साल की सजा कर दी है. इस निर्णय के बाद संजय दत्त के पास समर्पण या पुनर्याचिका के लिए मात्र चार सप्ताह का ही समय शेष है. टाडा कोर्ट द्वारा सजा देने के बाद १६ माह तक जेल की सजा काट चुके संजय दत्त की यदि पुनर्याचिका ख़ारिज हो जाती है तो उसे ३४ माह और जेल में बिताने होंगे. १९९३ में हुये बम्बई बम धमाकों पर सुनाये गए अपने निर्णय में कोर्ट ने जहाँ सिने अभिनेता संजय दत्त को ५ वर्ष की सजा सुनाई है वहीँ मुख्य आरोपी याकूब मेमन को फांसी तथा २७ लोगों को उम्रकैद की सजा बरकरार रखी है. ज्ञातत्व हो कि इन धमाकों में २५७ बेकसूर लोगों की जान गई थी जबकि ७१३ जख्मी हुए थे. धमाकों के आरोप में पुलिस ने १२३ आरोपियों को गिरफ्तार किया था. पकड़े गए आरोपियों में सबसे चर्चित नाम था सिनेजगत के सुप्रसिद्ध अभिनेता व केंद्रीय मंत्री रहे कांग्रेस के सुनीलदत के पुत्र अभिनेता संजय दत्त का, जिसके पास से पुलिस को एके-५६ राइफल मिली थी. टाडा में गिरफ्तार किये गए आरोपियों के खिलाफ पुलिस ने ४ नवंबर १९९३ को विशेष टाडा अदालत में संजय दत्त सहित कुल १२३ आरोपियों के खिलाफ आरोप तय किए गए. ३० जून १९९५ को मामले की शुरू हुई सुनवाई ने लगभग १२ वर्षों का समय लिया और १८ मई २००७ को इस मामले की सुनवाई पूरी हुई. १०० आरोपियों जिन्हें अदालत ने दोषी पाया व इनके द्वारा किये गए अपराध के आधार पर १२ दोषियों को फांसी की सजा, २० को उम्रकैद और ६७ को ३ वर्ष से १४ वर्ष तक की सजा सुनाई गई. इसमें विशेष बात यह रही कि संजयदत्त को टाडा के आरोपों से तो बरी कर दिया गया परन्तु आर्म्स एक्ट के तहत ६ साल की सजा सुनाई गई.

अब इसे विडम्बना ही कहा जा सकता है कि देश में एक परम्परा सी बन गई है कि हर विषय पर राजनीति कर उसे विवादित बना दिया जाता है, ऐसा ही संजय दत्त की सजा बरकरार रखने के सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर भी हुआ. संजयदत्त की सजा माफी के पक्ष-विपक्ष में वाजिब और गैरवाजिब वक्तव्यों की एक बाड़ सी आ गई है. हर फटे में टांग फसाने की आदत से मजबूर लोगों ने इस विषय को इतना विवादित बना दिया कि जो बड़ा सवाल फैसले में २० वर्षों की देरी का उठाया जाना चाहिए था वह गौण हो गया. कारण जो भी हो, न्यायालयों में फैसलों में हो रही देरी अवश्य ही एक बड़ी चिंता का विषय है. यह जानते हुये भी कि इस देश की न्यायिक व्यवस्था बिना किसी भेदभाव के सभी को समान दृष्टी से देखते हुये केवल तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर निर्णय करती है, फिर भी संजयदत्त की सजा माफी के लिए ऐसे-ऐसे तर्क कुतर्क दिए जा रहे हैं जिससे नादानी या नासमझी से किये गए क्षमायोग्य सामान्य अपराधों जिन्हें करनेवालों को समाज की कुछ सहानुभूति मिलने की सम्भावना रहती है, के विषय में भी समाज का एक बड़ा वर्ग समानता के मापदंड के मध्येनजर कड़ा रुख अपनाने का पक्षधर हो रहा है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि संविधान ने राज्यों के राज्यपालों व राष्ट्रपति को देश सजा की माफी के कुछ अधिकार दिए है जिनका प्रयोग वह मंत्रीमंडल की सलाह व अपने स्वविवेक पर करते हैं. संविधान के अनुच्छेद-161 का सन्दर्भ देते हुये कुछ ने तो महाराष्ट्र के राज्यपाल को पत्र भी लिख दिया है और सजा माफी के लिए जिस प्रकार के तर्कों को आधार बनाया जा रहा है उन पर एक ओर तो हंसी आती है और दूसरी ओर यह प्रश्न उठता है कि उसी आधार पर देश की जेलों में छोटे-मोटे अपराधों या आर्म्स एक्ट के तहत सजा काट रहे हजारों कैदियों की सजा माफ क्यूँ नहीं होनी चाहिए ? यह भी सर्विदित है कि कुछ राज्यों में देशी कट्टा या तमंचा या फिर रामपुरी चाकू रखने के झूठे आरोप में किसी को भी सरलता से जेल की हवा खिलाई जा सकती है क्यूँ कि यह देसी असलाह सरलता से उपलब्ध है और पुलिस के लिए तो कुछ भी पैदा करना बहुत ही आसान है. अभी हाल में ही दिल्ली पुलिस के सिपाही सुभाषतोमर की दामिनी-आन्दोलन के दौरान अकस्मात मृत्यु को हत्या करार देते हुये ८ निर्दोष व्यक्तियों पर जिस प्रकार हत्या का मुकद्दमा बनाया गया था, वह किसी से छुपा नहीं है. यदि दिल्ली उच्च न्यायालय दो चश्मदीद गवाहों को मीडिया द्वारा सामने लाने के प्रकरण पर संज्ञान नहीं लेता तो शायद आज वह ८ व्यक्ति जेल में होते.

ऐसे में जाने अनजाने में यदि किसी के पास कोई हथियार मिलता भी है तो उस व्यक्ति के पूर्व के चाल-चलन और जमानत के दौरान के व्यवहार को देखते हुये क्षमा या सजा में कमी की जा सकती है, संविधान द्वारा राज्यपाल व राष्ट्रपति को ऐसी शक्तियां इसी लिए दी गईं हैं. परन्तु विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग जनसाधारण की कठिनाइयों को कम करने के लिए होना चाहिए ना कि धनाड्य, रसूखदार और हाई कनेक्शन वाले एलीट वर्ग के लिए. दूसरी बड़ी बात यह कि अपराधी अधिनियम की परिवीक्षा यानी कि प्रॉबेशन ऑफ ऑफेंडर एक्ट के तहत दोषी करार दिए जाने के बावजूद सिर्फ उन्हीं लोगों को कोर्ट की तरफ से रियायतें मिलती हैं जिनका आचरण अच्छा होता है. उनकी बैकग्राउंड देखते हुये यह शर्त भी रहती है कि संबंधित आरोपी का वह पहला अपराध हो. हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय ने संजयदत्त को प्रॉबेशन ऑफ ऑफेंडर एक्ट के तहत बरी करने का अनुरोध भी ठुकरा दिया था.

सजा का अर्थ भय दिखा कर व्यक्ति में सुधार लाना होता है ताकि सजा काटते हुये वह मानसिक रूप से भविष्य में ऐसी अपराधिक कारवाई में संलिप्त ना होने के लिए स्वयं को तैयार करे और एक नेक व अच्छा इंसान बन कर समाज व कानून के बनाये अनुशासन में रहे. सजा में रियायत या माफी का देश में एक लंबा इतिहास है. संजय दत्त जैसे हजारों व्यक्ति जो चाहे-अनचाहे या जाने-अनजाने कानून का उल्लंधन करते हुये अपराध कर बैठते हैं परन्तु समय रहते तौबा भी कर लेते हैं, इसके साथ ही उनका चाल-चलन भी ठीक हो जाता है, भी सजा की माफी के सामान रूप से हकदार है. सिने अभिनेता संजयदत्त पर यदि सरकार किसी भी प्रकार की रियायत करते हुये उसकी सजा में कमी या मुआफी देती है यही व्यवहार ऐसा ही अपराध करनेवाले देश की जेलों में सजा काट रहे हजारों लोगों को भी मिलना चाहिए अन्यथा यह देश के कानून व संविधान का खुल्लम-खुल्ला मजाक होगा.

-विनायक शर्मा

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विनायक शर्मा
संपादक, साप्ताहिक " अमर ज्वाला " परिचय : लेखन का शौक बचपन से ही था. बचपन से ही बहुत से समाचार पत्रों और पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं में लेख व कवितायेँ आदि प्रकाशित होते रहते थे. दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के दौरान युववाणी और दूरदर्शन आदि के विभिन्न कार्यक्रमों और परिचर्चाओं में भाग लेने व बहुत कुछ सीखने का सुअवसर प्राप्त हुआ. विगत पांच वर्षों से पत्रकारिता और लेखन कार्यों के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर के अनेक सामाजिक संगठनों में पदभार संभाल रहे हैं. वर्तमान में मंडी, हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र में संपादक का कार्यभार. ३० नवम्बर २०११ को हुए हिमाचल में रेणुका और नालागढ़ के उपचुनाव के नतीजों का स्पष्ट पूर्वानुमान १ दिसंबर को अपने सम्पादकीय में करने वाले हिमाचल के अकेले पत्रकार.

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  1. किसी भी बात का विरोध कर सुर्ख़ियों में बना रहना कुछ लोगों का टशन बन गया है,चाहे वह वाजिब हो या गैर वाजिब.गैर कानूनी हथियार रखने के लिए पुरे देश में हजारों अपराधी जेल में बंद हैं, उनके लिए इनका दर्द नहीं जगता,जो दलीलें संजय दत्त को छोड़ने के लिए दी जा रहीं हैं,कमोबेश वे अन्य लोगों पर भी लागू होती हैं इसलिए वे भी छोड़ दिए जाने चाहिए.यदि देश में कानून अलग अलग लोगों के लिए अलग होंगे तो क्या नतीजा होगा,इसका भी अंदाज लगा लेना चाहिए.

  2. मुंबई १९९३ के श्रंखला धमाकों के वादों का अंतिम निर्णय देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा किये जाने के बाद से ही एक वर्ग द्वारा उसमे शामिल सिने अभिनेता संजय दत्त को पांच वर्ष की सजा दिए जाने को लेकर सजा माफ़ी के लिए अभियान छेद रखा है मानो संजय दत्त को सजा देना कोई बड़ा गुनाह हो. ये मांग सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश, जो वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष हैं, द्वारा सबसे पहले उठाई गयी और बाद में उसमे औरों के स्वर भी जुड़ गए.ये सभी महानुभाव इस बात का जवाब क्यों नहीं देते की उस कांड में २५७ निर्दोष लोगों की जान गयी थी और ७१३ लोग घायल हुए थे.दावूद इब्राहीम उसके बाद से ही देश से फरार हो गया था.और संजय दत्त के पास एके.५६ थी. जिसे सुरक्षा के लिए अपने पास रखना बताया गया था.क्या किसी को भी निजी सुरक्षा के लिए एके ५६ रखने की अनुमति है?और निश्चय ही अगर कभी इसे चलने की नौबत आती तो अनेकों निर्दोषों का खून बहता.
    इन अपराधियों को माफ़ी की मांग करने वाले सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े कर रहे हैं.
    जसिटस काटजू इस सन्दर्भ में नानावटी के मामले का उदहारण प्रस्तुत करते हैं.लेकिन नानावटी का मामला बिलकुल भिन्न था. वहां देश के एक प्रमुख नौसेना अधिकारी को अपनी पत्नी के अपने एक मित्र के साथ नाजायज संबंधों का पता चलने पर नानावटी ने पत्नी का क़त्ल कर दिया था.जबकि प्रस्तुत मामला बिलकुल भिन्न है. और जघन्य अपराधियों से नजदीकी संबंधों और अवैध रूप से घातक हथियार रखने का है.अगर उन्हें सजा देना गलत है तो फिर पूरी न्याय प्रणाली के अस्तित्व पर पुनर्विचार की आवश्यकता है.

  3. अच्हे लेख के लिये बधाइ , किसई को भी कनून क मजआक बनाने की इजाजत नही होनी चाहिये.

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