‘आर्य समाज क्या है?’

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aaryaमनमोहन कुमार आर्य

इस लेख में हम कुछ प्रश्नों पर अति संक्षेप में विचार करना चाहते हैं जो आर्य समाज के अस्तित्व से जुड़े हैं। यह प्रश्न हमें अपने एक विद्वान मित्र से इमेल पर प्राप्त हुए हैं। पहला प्रश्न है कि आर्य समाज हवन को मानता है और आर्य समाजी हवन करते भी हैं परन्तु आर्य समाज हवन नहीं है। हमें लगता है कि हम यह नहीं कह सकते कि आर्य समाज हवन नहीं है। यदि हम हवन व यज्ञ को आर्य समाज से पृथक मान लें और आर्य समाजी कहलाने वाले गृहस्थी हवन न करें तो क्या आर्य समाज, आर्य समाज रह सकेगा। हमें लगता है कि आर्य समाज के अस्तित्व के लिए आर्य समाज के प्रत्येक अनुयायी को दैनिक हवन के साथ ब्रह्मयज्ञ-सन्ध्या, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ व बलिवैश्व देव यज्ञ का करना आवश्यक है। इसका प्रमुख कारण आर्य समाज वेद विहित कर्मों को करना धर्म मानता है और वेद विरूद्ध कर्मों के आचरण को अधर्म या पाप मानता है। यदि आर्य समाज का अनुयायी यज्ञ नहीं करेगा तो वह वेद विरूद्ध जीवन होगा जिससे वह अधर्मी या पापी कहलायेगा। यदि आर्य समाज का अनुयायी यज्ञ नहीं करेगा तो पंच महायज्ञ, जो आर्य व आर्य समाजी के लिए अनिवार्य हैं, उनके न करने से वह आर्य समाजी न होकर नाम या कथन मात्र का ही आर्य समाजी बचेगा। शरीर से जिस प्रकार से आत्मा के निकल जाने पर शरीर रहता है, उसी प्रकार की कुछ-कुछ स्थिति आर्य कहलाने वाले व्यक्ति की होगी। श्री राम, श्री कृष्ण, महर्षि दयानन्द, चाणक्य, सभी आर्य समाजी व आर्य समाज के अनुयायी यज्ञ करते आ रहें हैं और इसमें सबकी आस्था है। परन्तु यहां यह भी कहना उचित होगा कि यज्ञों में पाखण्ड, अन्धविश्वास, शास्त्र विरूद्ध कर्मकाण्ड कदापि नहीं होना चाहिये। जिस प्रकार से प्रातः काल से उठकर रात्रि शयन तक हम अपने नाना नित्य कर्म करते हैं उसी प्रकार से अग्निहोत्र भी एक दैनिक नित्य कर्म है और उसे महर्षि दयानन्द की संस्कार विधि व पंच महायज्ञ विधि के समन्वयपूर्वक करना उचित है। आजकल हमारे वेदाचार्यों द्वारा जो वेद पारायण यज्ञ किये जाते हैं, यह आज की परिस्थिति में उचित, करणीय, आवश्यक, शास्त्रीय और वेदसम्मत हैं या नहीं, इस पर बहस होनी चाहिये। यदि यह उचित हों और इनसे किसी प्रकार की सिद्धान्त हानि नहीं होती, तो इन्हें किया जा सकता है अन्यथा जो उचित हो वह किया जाना चाहिये। इस प्रकार से यह विषय कुछ-कुछ विवादित सा हो गया लगता है। हम समझते कि विगत दिनों में पं. युधिष्ठिर मीमांसक, डा. रामनाथ वेदालंकार व स्वामी मुनीश्वरानन्द जी आदि वेद एवं यज्ञों के सुपरिचित व विख्यात विद्वान हुए हैं। इनमें से किसी ने भी वेद पारायण यज्ञों का विरोध नहीं किया। इससे यह लगता है कि वेद पारायण यज्ञ करने से कोई सिद्धान्त हानि नहीं होती, अतः इन्हें किया जा सकता है। यह बात अन्य हैं कि न तो इनका विधान महर्षि दयानन्द ने कहीं किया और न ही यज्ञ विषयक प्राचीन मीमांसा आदि दर्शन ग्रन्थों में इनका कहीं विधान है। हम चाहतें हैं कि वेद पारायण यज्ञ के समर्थक विद्वान अपने पक्ष के जो भी प्रमाण हैं वह आर्य समाज के सुधी पाठकों के सामने प्रस्तुत करें जिससे यदि अज्ञानता व अन्य कारण से कोई यज्ञ का विरोध करता है, उसका समाधान हो सके।

 

दूसरा प्रश्न जिसमें इस लेख में विचार करना चाहते हैं वह है कि क्या यौगिक जीवन व्यतीत करना भी आर्य समाज है व आर्यों के लिए आवश्यक है? यदि हम योग को स्वीकार न करें तो क्या हम सही अर्थों में आर्य समाजी हो सकते हैं? इसका उत्तर भी हमें यह लगता है कि योग व यौगिक जीवन में आस्था, विश्वास व उसका अभ्यास या आचरण एक आर्य व आर्य समाजी को अवश्य करना चाहिये। योग दर्शन महर्षि पतंजलि की रचना है जिसका आधार ईश्वरीय ज्ञान वेद हैं। ‘‘नास्तिकों वेद निन्दकः’’ के अनुसार वेदों की आज्ञा को न मानना या उसके विपरीत आचरण करना ही वेदों की निन्दा है। यदि कोई आर्य वेद निन्दा का दोषी पाया जाये तो वह किसी भी प्रकार से आर्य समाजी कहलाने का अधिकारी नहीं रहता। महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज के तीसरे नियम में वेदों को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक कहकर व उसको स्वयं पढ़ने व दूसरों को पढ़ाने तथा स्वयं सुनने व दूसरों को सुनाने को परम धर्म कहा है। इसमें यह भावना भी सम्मिलित है कि वेदों के अनुसार ही आचरण करना धर्म व वेद के अनुसार आचरण न करना वा विरूद्ध आचरण करना अधर्म है। योग दर्शन के वेद के उपांग होने के कारण इसको जीवन में धारण करना भी वेदाज्ञा का पालन करना व आवश्यक कर्तव्य है।

 

इसी प्रकार से हम सभी दर्शनों की शिक्षाओं पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि दर्शनों की रचना हमारे वेदों के ऋषियों ने की है जो ईश्वर का साक्षातकार किये हुए वेदानुयायी स्थिति-प्रज्ञ महात्मा थे। अतः सभी दर्शनों का अध्ययन करना, उनका संरक्षण करना व उनकी शिक्षाओं को जीवन में अपनाना भी आवश्यक है अन्यथा हम ईश्वर, वेद, ऋषियों की अवज्ञा के दोषी होगें। आर्य समाज के पास वेद हैं परन्तु वेद आर्य समाज नहीं हैं। यदि ऐसा है तो फिर आर्य समाज क्या हैं? यह तो ऐसा ही है कि यह कहा जाये कि मनुष्य के पास शिर, आंख, नाक, कान, मुंह व जिह्वा आदि इन्द्रियां व अंग हैं परन्तु यह सब मनुष्य नहीं है। यदि मनुष्य में से इन सबकों निकाल दिया जाये तो क्या मनुष्य बचेगा?, कदापि नहीं। अतः हवन, योग, दर्शन व वेद सभी मिलकर व इनको धारण व पालन करने से आर्य समाज बनता है और इनका पालन व आचरण करने वाला वैदिक धर्मी या आर्य समाजी होता है।

 

हम अपने इमेल प्रेषक आदरणीय मित्र की इस बात से सहमत हैं कि हमें आर्य समाज के 10 नियमों पर अपना ध्यान देना चाहिये। यह नियम ही आर्य समाज की पहचान हैं। इसके साथ हम यह भी कहना चाहते हैं कि इसके लिए हमें हवन, योग, दर्शन व वेद को भी साथ रखना पड़ेगा, नही ंतो हम प्रचार क्या करेगें और करणीय व अकरणीय कर्तव्यों का निर्णय कैसे होगा? वेद आर्य समाज की आत्मा है जिससे पृथक होकर आर्य समाज जीवित नहीं रह सकता। वेद के साथ-साथ पंच महायज्ञों में से सन्ध्या, हवन व अन्य तीन यज्ञों के साथ हमें योग, दर्शन व वेद को भी अग्रणीय व उच्च स्थान देना होगा। जब तक ऐसा करेगें आर्य समाज जीवित रहेगा और इन्हें छोड़ने से आर्य समाज लड़खड़ा कर गिर सकता है। हम अनुमान करते हैं कि हमारे इमेल मित्र हमारे विचारों से सहमत तो नहीं होगें परन्तु हमें लगता है कि हमारे विचार भी महर्षि दयानन्द की मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुरूप हैं। हम अनुभव करते हैं कि हमारे मित्र यदि अपने विचारों को विस्तार से व्याख्या के साथ प्रस्तुत करें तो इससे विद्वानों को लाभ होगा।

 

-मनमोहन कुमार आर्य

 

 

1 COMMENT

  1. परिस्थितियों की मार से त्रस्त सनातन धर्म का सुधारवादी रूप ही आर्य समाज है जिससे पुन: कोई काला पहाड़ जैसा राजा हिंदू होने के बावजूद धर्म की कट्टरता से तंग आकरके पूर्वी क्षेत्र में गैर हिंदू साम्राज्य स्थापित करने को मजबूर न हो — तिरुपति और केरल के मंदिरों से लेकर स्विस बैंक में पैसे जमा करने वाले अधिकांश हिंदू हैं ( अम्बानी परिवार के तो तीन खाते हैं ) जनता त्रस्त है ! अरबों रुपये खर्च करके अम्बानियों के गुरू पोरबंदर में आश्रम के नाम पर अथाह सम्पत्ति बनाते चले जा रहे हैं —- राम मंदिर के पैसे का कोई हिसाब नहीं —– ध्यान रहे इनमें कोई भी आर्यसमाजी नहीं है —–

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