इस विलय का मतलब क्या है

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janta pariwarपीयूष द्विवेदी

पिछले कई महीनों से विलय की चर्चाओं और बैठकों के बाद आख़िरकार गत १५ मार्च को जनता परिवार के दलों का विलय हो ही गया। इसमें कुल छः दलों का विलय हुआ है। यूपी से मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, बिहार से लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश की जनता दल यूनाइटेड, हरियाणा से आईएनएलडी, कर्नाटक से जेडीएस समेत समाजवादी जनता पार्टी भी शामिल हैं। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के घर हुई इस विलय बैठक में शरद यादव, नीतीश कुमार, लालू यादव, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा, अभय चौटाला आदि उपस्थित रहे। इन सब दलों के विलय के बाद बने इस नए दल का नेतृत्व मुलायम सिंह यादव के हाथों में सौंपा गया, वे इसके अध्यक्ष चुने गए हैं। हालांकि अभी इस नवगठित दल के नाम और चुनाव चिन्ह पर कोई भी सहमति नहीं बन सकी, इनका ऐलान टाल दिया गया। दरअसल आगामी छः महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में इस विलय को उस चुनाव में भाजपा को रोकने की एक कवायद के रूप में देखा जा रहा है। अब भले ही इस नए संगठन में सबसे बड़ी भाजपा विरोधी पार्टी यानि कांग्रेस फिलहाल किसी भी तरह से मौजूद न हो, लेकिन बावजूद इसके यह निर्विवाद है कि यह नया राजनीतिक मोर्चा भाजपा को ही रोकने के उद्देश्य से तैयार किया गया है। इस बात को और अच्छे से समझने के लिए इस बैठक में मौजूद नेताओं के बयानों पर यदि एक नज़र डालें तो इस नवगठित दल के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कहा कि नई सरकार बहुत घमंडी हो गई है, हमारी एक नहीं सुनती इसलिए ये मोर्चा बना है। वही लालू यादव ने तो खुलकर कहा कि हमने भाजपा को रोकने के लिए अपने अस्तित्व को एक किया है। स्पष्ट है कि यह सारा चक्रव्यूह केवल भाजपा को ध्यान में रखकर रचा गया है और इस नए संगठन के सभी घटक बेशक अभी गैर-कांग्रेसवाद की बात करें, लेकिन आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि देर-सबेर इस संगठन में कांग्रेस भी बाहर से ही सही अपनी मौजूदगी दर्ज करा दे। बहरहाल, इसी क्रम में अब सवाल ये उठता है कि क्या ये नवगठित मोर्चा भाजपा को रोक सकेगा ? गौर करें तो इस नए दल के सभी घटक दलों की लोकसभा में १५ और राज्य सभा में ३० सीटें हैं यानि कुल मिलाकर राष्ट्रीय राजनीति में इन छः दलों का अस्तित्व महज ४५ सीटों पर सिमटा हुआ है। इसके अलावा क्षेत्रीय राजनीति के स्तर पर भी सपा और जदयू को छोड़ दें तो किसी दल की हालत ठीक नहीं कही जा सकती। सपा के पास यूपी में बहुमत है और जदयू के पास बहुमत तो नहीं, पर वो बिहार में सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन इनके बाद बचे दलों में राजद के पास बिहार में महज २४ सीटें, आईएनएलडी के पास हरियाणा की ९० विधानसभा में से महज १८ सीटें और कर्नाटक की जेडीएस के पास वहां की २२५ में मात्र ४० सीटें ही हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि यूपी में मुलायम और बिहार में नीतीश को छोड़ इस नए मोर्चे का और कोई भी दल बेहतर स्थिति में नहीं दिखता। मुलायम और नीतीश भी फिलहाल सीटों के मामले में भले अच्छे हों, पर पुख्ता तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि उनका जनाधार अब भी अच्छा है। क्योंकि उनकी ये सीटें अबसे काफी पहले यानी पिछले विधानसभा चुनावों की हैं और तबसे अबतक उनके विरुद्ध जनता में काफी सत्ता विरोधी रुझान पनपा है, तो जाहिर तौर पर अब यदि चुनाव होते हैं तो उनकी सीट संख्या में गिरावट आने की पूरी संभावना है। एक और बात जो इस नवगठित दल के विरुद्ध जाती दिख रही है, वो ये कि इसके घटक दल भानुमती के कुनबे की तरह हैं। तात्पर्य यह है कि इन दलों का ये सम्मिलन विचारधारा, एजेंडे आदि से इतर केवल भाजपा को रोकने के अन्धोत्साह में बनाया गया है। गौर करें तो लालू-नीतीश-मुलायम आदि जो नेता पहले एक-दूसरे को जरा भी नहीं सुहाते थे, अब भाजपा विरोध के नाम पर अपनी सब विचारधारा आदि को तिलांजलि देते हुए एक-दुसरे से गलबहियां कर रहे हैं, तो क्या जनता इसे स्वीकृति देगी ? इन सब बातों को देखते हुए पूरी संभावना है कि जनता को ये जबरन का गठजोड़ रास न आए और ये नवगठित मोर्चा इसके घटक दलों का नुकसान ही करे। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के सन्दर्भ में देखें तो फ़िलहाल बिहार में नीतीश नंबर एक, भाजपा नंबर दो तो लालू नंबर तीन की पार्टी हैं। यह भी सर्वस्वीकार्य तथ्य है कि बिहार चुनावों में जातिगत समीकरण खूब काम करते है। लालू के अपने वोट हैं, नितीश के अपने वोट हैं..अब जब ये दोनों दल एक मोर्चे के अंतर्गत आ गए हैं तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इनके मतदाता अपने मत को लेकर भ्रम में आ जाएं और अपना मत इन दोनों से इतर भाजपा-लोजपा गठबंधन या कांग्रेस आदि को दे दें। स्पष्ट है कि ये नवगठित मोर्चा इसके घटक दलों के मौजूदा क्षेत्रीय वजूद को क्षति जरूर पहुँचा सकता है, लेकिन उन्हें कोई बड़ा राजनीतिक लाभ नहीं दे सकता। उसपर अभी तो यह मोर्चा बना है, धीरे-धीरे इसमें महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई भी छिड़ेगी ही, जिससे पार पाना इसके दलों के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। उपर्युक्त सब बातों को देखते हुए कह सकते हैं कि इस गठजोड़ को और कुछ तो नहीं पर ‘दिल बहलाने को ख्याल ठीक है ग़ालिब’ जरूर कहा जा सकता है।

 

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