क्या है आतंकवाद और इस्लाम का संबंध

quran-islamic-terrorism-jihadलोकेन्द्र सिंह

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

बांग्लादेश की राजधानी ढाका के प्रतिष्ठित और सुरक्षित क्षेत्र में आतंकी हमले के बाद आतंकवाद और इस्लाम के संबंधों पर फिर से बहस शुरू हो गई है। महत्त्वपूर्ण बात है कि इस बहस में तीखे सवाल स्वयं मुस्लिम ही पूछ रहे हैं। इसलिए इस बहस को गैर मुस्लिमों द्वारा इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करने के लिए चलाई गई बहस के रूप में नहीं देखना चाहिए। बल्कि यह बहस इस्लाम और मुसलमानों के लिए आत्म विश्लेषण का जरिया बननी चाहिए। आतंकवाद और इस्लाम के संबंध पर सबसे पहली आवाज भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती ने तब उठाई जब आतंकियों ने पंपोर में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के आठ जवानों की हत्या की थी। मुख्यमंत्री मुफ्ती ने कहा था कि मुस्लिम होने के नाते मैं बेहद शर्मिंदा हूं कि पवित्र माह रमजान में आतंकियों ने यह हमला किया है। आतंकियों के इस हमले से जम्मू-कश्मीर ही नहीं, बल्कि इस्लाम और मुसलमान भी बदनाम हुए हैं।

मुफ्ती के बयान की भारत में तथाकथित सेकुलरों ने खूब लानत-मलामत की गई। लेकिन, उनके इसी विचार को सीमा पार बांग्लादेश की राजधानी ढाका में जब माहे रमजान के आखिरी रोजे के दिन आतंकियों ने गला रेतकर 20 लोगों की जान ली, तब वहाँ की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने दोहराया। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा कि पवित्र माह रमजान में कोई मुसलमान इंसानों का खून कैसे बहा सकता है? दरअसल, आतंकियों ने जिस तरह से बंधकों की हत्या की, उससे यह बहस और अधिक जोर पकड़ गई। इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने कुरान की आयतें सुनकर बंधकों की धार्मिक पहचान की। जो लोग आयत सुना सके, उन्हें छोड़ दिया और जिन्होंने आयतें नहीं सुनाईं, उनका गला रेत दिया। यानी आतंकियों ने धर्म को आधार बनाकर लोगों की हत्या की।

आतंकवाद और इस्लाम के संबंधों पर सबसे कठोर टिप्पणी बांग्लादेश से निर्वासित प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन ने की। उन्होंने ट्वीट पर ट्वीट कर कहा कि कृपया मानवता के लिए अब यह कहना बंद कीजिए कि इस्लाम शांति का धर्म है। उन्होंने आतंकवादी बनने के लिए सीधे तौर पर इस्लाम को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखा कि कृपया यह मत कहिए कि गरीबी और निरक्षरता लोगों को इस्लांमिक आतंकवादी बनाती है। इस्लामिक आतंकवादी बनने के लिए आपको गरीबी, निरक्षरता, तनाव, अमेरिका की विदेश नीति और इस्राइल की साजिश की जरूरत नहीं है। आपको इस्लाम की जरूरत है। बॉलीवुड अभिनेता सलमान खान के पिता और प्रख्यात पटकथा लेखक सलीम खान ने यहां तक कह दिया कि यदि आतंकवादी मुस्लमान हैं, तब फिर वह मुस्लिम नहीं है।

वहीं, ईद पर दी जाने वाली निरीह बकरों की कुर्बानी पर बयान देकर मौलानाओं के निशाने पर आए बॉलीवुड अभिनेता इरफान खान मुसलमान, इस्लाम और उसकी परंपराओं को लेकर सवाल उठा रहे हैं। उन्होंने सबसे पहले पूछा था कि बाजार से बकरे खरीद कर कुर्बान कर देना, क्या वाकई कुर्बानी है? इस संबंध में उन्होंने अपनी राय भी जाहिर की। इस बयान के बाद इरफान कट्टरपंथी सोच के मौलानाओं के निशाने पर आ गए। मजेदार बात यह है कि असहिष्णुता की बात करने वाला एक भी प्रगतिशील बुद्धिजीवी इरफान खान के समर्थन में आगे नहीं आया। जबकि शाहरूख और आमिर खान के मामले में ढेरों बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा उठाकर आ गए थे। खैर, खुद पर हो रहे हमलों का कड़ा जवाब इरफान ने स्वयं ही दिया। उन्होंने कहा कि वह किसी धर्मगुरु से नहीं डरते। उनके एक बयान ने भारत को असहिष्णु बताने वालों का मुंह भी नोंच लिया। इरफान ने कहा कि शुक्र है कि वह ऐसे देश में नहीं रहते हैं, जहाँ धर्म के ठेकेदारों का शासन चलता हो।

बहरहाल, अब इरफान खान ने उन पर हमला करने वालों से पूछा है कि बांग्लादेश हमले पर मुसलमान चुप क्यों हैं? कुरान की आयतें न जानने की वजह से रमजान के महीने में लोगों को कत्ल कर दिया गया। हादसा एक जगह होता है और बदनाम इस्लाम और पूरी दुनिया का मुसलमान होता है। ऐसे हमलों पर क्या मुसलमान चुप बैठा रहे और मजहब को बदनाम होने दे? इरफान ने कहा है कि मुसलमान आतंकी हमलों का विरोध करने आगे क्यों नहीं आते हैं? इस्लाम को सबसे अधिक बदनाम करने वाले आतंकी हैं। लेकिन, आतंकी हमलों पर मुसलमान चुप्पी साधकर बैठ जाते हैं।

यह बात सच है कि आतंकी हमलों का विरोध मुसलमानों की तरफ से उस तीव्रता से नहीं होता है, जितना इस्लाम के खिलाफ किसी व्यक्ति की टिप्पणी पर होता है। इसलिए इस वक्त और बहस का उपयोग मुसलमान और इस्लाम को खुद के भीतर झांकने के लिए करना चाहिए। यह बहस इस्लाम, मुसलमानों और समूची दुनिया के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसे व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप में जाया होने से बचाना भी मुसलमानों की जिम्मेदारी है। बहस की अनदेखी न करें, तर्क करें और आत्म विश्लेषण करें। उसके बाद सकारात्मक बदलाव की ओर आगे बढ़ें।

1 COMMENT

  1. लेखक बिलकुल सही है। आज इस्लामिक विचारकों को आत्मंथन करने का समय है। वैसे देर ही हो चुकी है। पर अब यदि सुधार नहीं विचारे और अपनाए गए, तो इस्लाम को अति भीषण परिणाम भुगतने पड सकते हैं।
    लेखक लोकेन्द्र सिंह को समयोचित आलेख लिखने के लिए बधाई। पर, सुधार को इस्लाम में प्रवर्तित करना भी अति कठिन है, शायद असंभव।

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