डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले तीन दिनों में तीन ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के नेताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए। ये तीनों घटनाएं ऐसी हैं, जो अटलजी के स्वभाव के विपरीत हैं। यदि अटलजी आज हमारे बीच होते और स्वस्थ होते तो वे चुप नहीं रहते। बोलते और अपनी शैली में ऐसा बोलते कि संघ और भाजपा की प्रतिष्ठा बच जाती बल्कि बढ़ जाती। पहली घटना। स्वामी अग्निवेश जब अटलजी के पार्थिव शरीर पर श्रद्धांजलि अर्पित करने भाजपा कार्यालय गए तो उन्हें कुछ कार्यकर्ताओं ने मारा-पीटा। धक्का-मुक्की की। कुछ बहनों और बेटियों ने उन पर चप्पलें भी तानीं। ये लोग कौन हो सकते हैं ? क्या ये रस्ते-चलते लोग हैं ? नहीं, ये सक्रिय कार्यकर्ता हैं। भाजपा के हैं, संघ के हैं। इसीलिए उन्होंने एक संन्यासी पर हाथ उठाया। उन्हें देशद्रोही कहा। उन्हें नक्सलवादी कहा। उन नौजवानों ने अग्निवेशजी की उम्र (79) का भी लिहाज नहीं किया। अटलजी भी अग्निवेशजी की कुछ बातों से सहमत नहीं होते थे। मैं भी नहीं होता हूं। अटलजी की और मेरी भी विदेश नीति के कुछ मुद्दों पर तीखी असहमति हो जाती थी। मैं ‘नवभारत टाइम्स’ में संपादकीय भी लिख देता था लेकिन वे घर बुलाकर मिठाई खिलाकर मुझसे बहस करते थे। उन्होंने कभी भी किसी अप्रिय शब्द का प्रयोग नहीं किया लेकिन उनकी महायात्रा के समय किसी संन्यासी के साथ ऐसा अभद्र व्यवहार करनेवालों की यदि संघ और भाजपा के नेता भर्त्सना नहीं करेंगे तो क्या यह अटलजी को सच्ची श्रद्धांजलि मानी जाएगी ? दूसरी घटना !! यह हुई बिहार में मोतीहारी के गांधी विश्वविद्यालय में। एक मूढ़मति प्रोफेसर ने इंटरनेट पर लिख दिया कि ‘‘भारतीय फासीवाद का एक युग समाप्त हुआ… अटलजी अनंत यात्रा पर निकल चुके।’’ उस प्रोफेसर को कुछ कार्यकर्ताओं ने इतनी बुरी तरह से मारा कि वह बेचारा अस्पताल में पड़ा हुआ है। जाहिर है कि उस प्रोफेसर की यह टिप्पणी नितांत मूर्खतापूर्ण थी लेकिन अटलजी इसे सुनते तो वे ठहाका लगाकर कहते कि वाह, क्या बात है ? उसे तो नोबेल प्राइज दिलवाइए ! तीसरी बात !!! नवजोत सिद्धू के इमरान खान की शपथ में शामिल होने और पाक सेनापति बाजवा से गल-मिलव्वल को भाजपा और हमारे कुछ टीवी चैनलों ने इतना बड़ा मुद्दा बना दिया कि यह बहस हाशिए में चली गई कि इमरान से कैसे निपटा जाए। मुझे खुशी है कि दो-तीन चैनलों के उग्र एंकरों ने मेरे हस्तक्षेप के बाद अपनी पटरी बदल ली। जब देश के बड़े-बड़े नेता विदेशी विभूतियों से मिलते वक्त उनके गले पड़ने से नहीं चूकते तो बेचारा सिद्धू क्या करता ? उसने भी नकल मार दी। अभी तक तो वह गलेपड़ू नेता का ही चेला था। सिद्धू 12 साल तक भाजपा के सांसद रहे। वे अभी डेढ़—दो साल पहले ही कांग्रेस मे शामिल हुए है।
ऐसा लगा कि “अटलजी को यह कैसी श्रद्धांजलि” पूछने के बहाने कोई मसख़रा घर की छत पर बैठा अपनी कचहरी लगाए हुए है!
kaun sa sanyasi hai?
jiska HINDU se koi lena dena nahi hai