क्या राम से लड़कर भारत में साम्यवाद लाया जा सकता है?

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श्रीराम तिवारी

अयोध्या विवाद के सन्दर्भ में लखनऊ खंडपीठ द्वारा सम्बन्धित पक्षकारों को दी गई ९० दिन की समयावधि वीतने जा रही है. इस विमर्श में जहाँ एक ओर हिंदुत्ववादियों ने अपने पुराने आस्था राग को जारी रखा और धर्मनिरपेक्षता पर निरंतर प्रहार जारी रखे वहीं दूसरी ओर मुस्लिम पक्ष ने भी दबी जबान से कभी न कभी हाँ में लखनऊ खंडपीठ के फैसले को चुनौती देने की बात की है. लगता है की निर्माणी अखाडा भी अपने दूरगामी एकता प्रयासों में असफल होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुका है. इस विवाद में केंद्र की यूपीए सरकार और यूपी की बसपा सरकार बेहद फूंक-फूंक कर अपना -अपना पक्ष रख रहीं हैं इस दरम्यान प्रस्तुत विमर्श में देश के कुछ चुनिन्दा बुद्धिजीवियों ने, स्वनामधन्य इतिहासकारों ने भी तार्किक और अन्वेषी आलेख प्रस्तुत किये हैं. इनमें दक्षिणपंथी हिंदुत्व वादिओं और वामपंथी इतिहासकारों ने जरुरत से ज्यादा बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. कहीं कहीं विषयान्तर्गत भटकाव, तकरार और उपालम्भ भी पढने-सुनने में आया.

उभय पक्ष के कट्टरतावादी तो वैसे भी धर्मनिरपेक्ष बिरादरी के लिए नव अछूत हैं किन्तु वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पक्षधरों ने भी जिस तरह इतिहास और लोक आस्‍था का पृथक्करण किया वो न तो भावी भारत के निर्माण में सहायक है और न ही उस दमित शोषित अनिकेत -अकिंचन भारत का पक्ष पोषण करने में सफल हुआ जिसके लिए उसे साहित्य -इतिहास और राजनीत में पहचना जाता है .इनकी विवेचना के निम्न बिंदु द्रष्टव्य हैं.

एक –अधिकांश विद्वानों ने हिन्दुओं के तमाम पुरा साहित्य-वेद, पुराण, निगम, आगम, दर्शन और और इतिहास को या तो ब्राह्मणवाद के जीवकोपार्जन का साधन माना है या फिर चारणों-भाटों द्वारा गई गई सामंतों की रासलीला- इसे इतिहास नहीं बल्कि ’मिथ ”सबित करने की कोशिश की है .

दो –इन्हीं विद्वानों ने पता नहीं किस आधार पर गैर हिन्दू, गैर सनातनी और विदेशी आक्रान्ताओं की मर्कट लीला को इतिहास सावित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर जगाया है. इन इतिहासकारों को हम वामपंथी नहीं मान सकते क्योंकि इनके अधकचरे ज्ञान को वामपंथी कतारों में संज्ञान लिए जाने से देश के सर्वहारा वर्ग को भारी हानि हुई है .देश के ८० करोड़ हिन्दू जो की आकंठ आश्था में डूबे हैं और खाश तौर से राम के भरोसे हैं उनमें से लगभग ३० करोड़ सर्वहारा हैं और उनके सामने जीवन की तमाम चुनौतियों से निपटने में उन बजरंगवली का ही सहारा है जो स्वयम सर्वहारा थे और उनका ही आदेश था कि ’प्रात ले जो नाम हमारा, तेहि दिन ताहि न मिले अहारा …”

तीन- दक्षिण पंथी, हिंदुत्ववादी-संघपरिवार, विश्व हिन्दू परिषद्, भाजपा इत्यादि का नजरिया तो जगजाहिर है कि वे अपने पूर्वाग्रही चश्में से बाहर देख पाने में अक्षम हैं सो अपनी रस्सी को सांप बताएँगे, अतीत के वीभत्स सामंती शोषण के दौर को स्वर्णिम इतिहास बतायेंगे. वे तो खुले आम कहते हैं कि फलां देवी का फल अंग फलां जगह गिरा सो फलां शक्ति पीठ बन गया. या कहेंगे कि समुद्र इसीलिए खारा है कि अगस्त ऋषि ने सातों सिन्धु अपने पेशाब से भर दिए थे. या कि कर्ण सूर्य से, भीम पवन से, अर्जुन इन्द्र से और युधिष्ठर धर्मराज के आह्वान से कुंती को वरदान में मिले थे या कहेंगे कि धरती शेषनाग पर टिकी है या कहेंगे कि श्री हरि विष्णु जी क्षीरसागर में लक्ष्मी संग शेषनाग पर विराजे हैं, या कहेंगे कि -जिमी वासव वश अमरपुर ,शची जयंत समेत …वगैरह …वगैरह ..

चार- वामपंथी बुद्धिजीवी के लिए भगवद गीता में एक शानदार युक्ति है ..न बुद्धिभेदं ..जनयेद ज्ञानं कर्म संगिनाम..जोषयेत सर्व कर्माणि विद्वान् युक्त समाचरेत …अर्थात् वास्तविक ज्ञानियों {वैज्ञनिक दृष्टिकोण वाले }को चाहिए कि वे अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम युत्पन्न न करें ..जब तक कि वो आपके जैसा समझदार न हो जाये तब तक उसे इसी हिसाब से चलने दे .बल्कि उसके साथ उसकी भाषा में उसी के प्रतीकों और बिम्बों से संवाद स्थापित करे. अब यदि देश के करोड़ों गरीब हिन्दू अभी संघ परिवार के ह्मसोच जैसे हैं तो इसके मायने ये थोड़े ही है कि वे सब भाजपाई या संघी हो चुके हैं. यदि ऐसा होता तो वैकल्पिक प्रधानमंत्री जी संन्यास की ओर अग्रसर क्यों होते? अतएव जिस तरह यह माना जाता है कि हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता. उसी तरह यह भी तो सच है कि हर हिन्दू साम्पदायिक नहीं होता, भले ही वो शंकराचार्य भी क्यों न हो? स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती क्या साम्प्रदायिक हैं? नहीं लेकिन वो संघीय दृष्टिकोण से हिंदुत्व को नहीं देखते. वे रात दिन पूजा पथ और कर्मकांड में निरत होने के वावजूद हिन्दू मुस्लिम ईसाई, सभी धर्मों के साहचर्य की तरफदारी करते हैं. लेकिन जब कोई सूरजभान, इरफ़ान हबीब ये कहता है कि राम, अयोध्या या राम मंदिर सब कोरी लफ्फाजी है, इतिहास नहीं मिथ है तो स्वरूपानंद जी जैसों की हालत दयनीय होती है. उधर मजदूरों किसानों में काम करने बाले वाम काडरों को जन सरोकारों से जूझने के लिए जन सहयोग इस आधार पर कम होता जा रहा है कि ”तुम कम्‍युनिस्‍ट तो नास्तिक हो” बंगाल में तो लगभग आज यही स्थिति है .क्योंकि फलां वाम इतिहासकार का कहना है की राम तो कोरी कल्पना है, बाबर के सेनापति मीर बाकी ने कोई मंदिर नहीं तोडा, वहाँ मंदिर था ही नहीं. रामायण तो मिथक वृतांत है ..इस तरह की बात करने वाले यदि वामपंथ के समर्थन में खड़े हैं तो वामपंथ को किसी और दुश्मन की या वर्ग शत्रु की आवश्यकता नहीं.

पांच -हिंदुत्व और इस्लामिक आतंकवाद दोनों बराबर. यह बार बार दुहराया जा रहा है. आतंक का कोई मज़हब नहीं होता. यह अक्सर वामपंथ की ओर से और धर्मनिरपेक्षता की कतारों से आवाज आती है किन्तु वास्तविक प्रमाण तो जग जाहिर हैं फिर विश्वशनीयता को दाव पर लगाना क्या हाराकिरी नहीं है?

छ – बाइबिल, कुरान ए शरीफ और दीगर धर्म ग्रुन्थ पर किसी भी वामचिन्तक या इतिहाश्कार ने कब और कहाँ नकारात्मक टिप्पणी की? यदि भूले से भी कहीं कोई एक अल्फाज या कोई कार्टून बना तो उसकी दुर्गति जगजाहिर है .राम इतिहास पुरुष नहीं. वेद, पुराण आरण्यक, उपनिषद, गीता रामायण और अयोध्या सब झूंठे …ऐसा कहने वाले लिखने वाले सेकड़ों लोग सलामत हैं क्योंकि अधिकांश हिन्दू अहिंसक, विश्व कल्‍याणवादी, सहिष्णु और धर्मभीरु हुआ करता है. यही वजह है कि उसके पूजा स्थल तोड़े जाते रहे .उसकी आस्‍था लातियाई जाती रही उसका शोषण-दमन किया जाता रहा किन्तु वह सनातन से ही तथा कथित धरम -मर्यादा में आबद्ध होने से अपने ऐहिक सुख को शक्तिशाली वर्ग के चरणों में समर्पित करता रहा और बदले में परलोक या अगला जन्म सुधरने की कामना लेकर असमय ही काल कवलित होता रहा.

अधिकांश आलेखों के लिए शोधार्थी अपने आलेख के अंत में विभिन्न ग्रन्थों और पूर्ववर्ती इतिहास कारों के सन्दर्भों को इसलिए उद्धृत करते हैं कि वे प्रमाणित हों, सत्यापित हों. यह नितांत निंदनीय है और बचकानी हरकत भी कि जिस पुरातन साहित्य को गप्प या अतीत का कूड़ा करकट कहो उसी में से प्रमाणिकता का सहारा. धिक्कार है. पूर्ववर्ती इतिहास कार भी इंसान थे. उन्होंने भी अपने से ज्यादा पुराने और कार्बनवादियों, घोर हिन्दू विरोधी इतिहासकारों की नजर में तो वे और ज्यादा रूढ़ एवं अवैज्ञानिक अतार्किक होने चाहिए.

अयोध्या विवाद पर निर्मोही अखाडा, राम लला विराजमान और हाकिम अंसारी जी और उनके संगी साथी आइन्दा क्या करेंगे ये तो नहीं मालूम. संघ परिवार क्या करेगा नहीं मालूम. सर्वोच्च अदालत का फैसला क्या होगा नहीं मालूम. लेकिन ये हमें मालूम है कि अयोध्या में राम लला का मंदिर अवश्य बनेगा. और इसका श्रेय अकेले संघ परिवार को नहीं बल्कि देश की तमाम जनता को -हिदुओं, मुस्लिमों और दीगर धर्मावलम्बियों को और वामपंथियों को क्यों नहीं मिलना चाहिए? क्या राम से लड़कर भारत में साम्यवाद लाया जा सकता है? एक बार मंदिर बन जाने दें. उसके बाद देश की शोषित पीड़ित अवाम को एकजुट कर वर्गीय चेतना से लैस कर, शोषण की पूंजीवादी सामंती और साम्प्रदायिक नापाक ताकतों को आसानी से बेनकाब कर साम्यवादी क्रांति का शंखनाद किया जा सकता है. हिन्दुओं की सहज आस्था से किसी भी तरह का टकराव सर्वहारा क्रांति में बाधा कड़ी कर सकता है अतः स्वनाम धन्य बुद्धिजीवियों और उत्साहिलालों से निवेदन है कि अयोध्या विवाद में न्यायिक समीक्षा के नाम पर अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करने से बाज आयें.

5 COMMENTS

  1. राम से लड़कर भारत में साम्यवाद तो क्या कुछ भी नहीं लाया जा सकता यही बात तो संघ समझता है इसलिए वो राम के साथ है सभी वर्गों में समानता लाने के लिए लड़ने की क्या जरूरत संघ की प्रक्रिया धीमी जरूर है लेकिन है प्रभावकारी इस प्रक्रिया में २० वर्ष तक लग सकते है अगर वामपंथी और कांग्रेस इसमें बाधा न बने तो

  2. भारत में राम राज्य लाया जा सकता है, भारत में रहीम और कबीर की वाणी तथा नानक का सन्देश फैलाया जा सकता है, भारत में ईसा का प्रेम महकाया जा सकता है, भारत में अकबर का दीन-ए-इलाही भी बढाया जा सकता है, दारा शिकोह की सहिष्णुता समझाई जा सकती है, इस्लाम का भाई चारा बढाया जा सकता है – अगर साम्यवाद इनमें से कुछ-कुछ है तो उसका भी स्वागत है, परन्तु यदि वह कुछ और है तो उसे मार्क्सवाद कहिये, या कि कॉमरेड वाद कहिये, या कुछ और कहिये, साम्यवाद न कहिये. भारत तो है ही समभाव का देश, और राम उसकी समभाव में आस्था के प्रतीक, रोम रोम में बसने वाले राम से क्या लड़ाई होगी समभाव रखने वालों की !

  3. “क्या राम से लड़कर भारत में साम्यवाद लाया जा सकता है?”
    उत्तर: नहीं। और शायद उसके बिना भी, नहीं लाया जा सकता है।ऐसा मेरा प्रामाणिक मत है।

  4. आज आपकि धार अपने आपको कम्युनिस्ट कहने वालो की तरफ़ क्युं मुड गयी है??संघ ने कभी नहि कहा जो जो आपने लिखा है आपको संघ के भैय्या जी दाणी की किताब पढनी चाहिये जिसमें उन्होने प्राचीन पुराणॊ की व्याख्या आधुनिक संध्र्भ मे की है या नरेन्द्र कोहली जी के उपन्यास भी पढ सकते है ,आपने संघ के संध्र्भ देते हुवे जो भी बाते लिखी है वो सब पुराणॊ व दैवी भागवत मे वर्णित है अत उसका मिथ्या आरोप संघ पर लगाना अनुचित है आपने राम मन्दिर को हिन्दु-मुस्लिम के तोर पर देखा है लेकिन संघ ने कभी इसे इस रुप मे नही देखा है राम हमारे युग पुरूष है उनका मन्दिर तोडने के पीछे इस देश के लोगो को अपमानित कर उन्हे उन्कि प्राजय क हमेशा स्मरण दिलाते रहना था,स्वाधिन राष्ट्र गुलामी को बर्दाश्त नहि करते है तब ही तो हिन्दु समाज ने राम जन्म भुमि आन्दोलन को सम्र्थन दिया था आपकि जानकारि के लिये बता दु,अभी पुरे भारत मे लाखो कि संख्या मे हिन्दु राम मन्दिर निर्माण के लिये संकल्प ले रहे है कुछ दिन पुर्व राज्स्थान के ओंसिया जैसि छोटि तहस्लि मे १५००० हिन्दु बन्धु थे,राजनीति कभि पैमान नही थी इसका,राजनिति से जोड कर आप उन लाखो लोगो का अपमान कर रहे है जो शायद अपने पीम का नाम भी नही जानते हो लेकिन राम के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार है…………………

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