अंतत: अमेरिकी नेतृत्व में नाटो गठबंधन बीस वर्ष बाद अफगानिस्तान को कट्टरपन्थी तालिबानियों के हाथों में सौंपने को विवश हुआ l जहां एक ओर तालिबानी एवं उनके साथी अन्धाधुन्ध गोलीबारी करके स्वतंत्रता का उत्सव मना रहे हैं, वहीं वहां के भूमि पुत्रों को इस्लामिक क़ायदे कानून से चलने वाली शासकीय व्यवस्था ने भयभीत करा हुआ है l यह कैसी स्वतंत्रता जहां जनता की बेबसी पर भी सत्ताधारी अति उत्साहित हो रहे हैं ? क्या अफगानिस्तान की जनता को अब तालिबानियों की मध्ययुगीन इस्लामिक बर्बरतापूर्ण कानूनों की सीमाओं में जीने को बाध्य किया जाएगा ? निसंदेह जब तक उदारता आक्रामकता को जन्म देती रहेगी तब तक क्या लोकतांत्रिक व गैर मुस्लिम देशों में जिहाद के लिए इस्लामिक आतंकवाद का भयानक रूप युद्ध पिपासु बना रहेगा ?
मुस्लिम समाज क्योंकि शरिया कानून को पवित्र मानता है इसलिये “इस्लामिक राज” की स्थापना का विचार चाहे कितना ही अमानवीय एवं अत्याचारी हो उनके मन मस्तिष्क से निकलता ही नहीं l इसके लिए उनको चाहे कितने ही मासूमों, अबलाओं और निर्दोषों का रक्त ही क्यों न बहाना पड़े, वे कटिबद्ध है l “इस्लामिक कार्यो की पूर्ति हेतु” तथाकथित मध्यमार्गी शांति प्रिय मुस्लिम समाज ने कभी भी समस्त इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा अपनाई जाने वाली “नरसंहार की संस्कृति” की निंदा नहीं करी l क्योंकि वे भी ‘इस्लामिक राज’ के मौन समर्थक हैं l
परिणामस्वरूप विश्व में कट्टरता और आतंकवाद पिछले कुछ दशक से तेजी से बढ़ रहा हैं l जिसके कारण मानवता पर संकट भी बढ़ता जा रहा है । इन प्रतिकूल परिस्थितियों में दुनिया के विकसित देशों को मिल-जुल कर इसको रोकने के लिए प्रबल सामुहिक प्रयास करने चाहिए l विश्व में बढ़ती इसी तरह की विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक, सांप्रदायिक कट्टरता से उपजी मानसिकता ने आज मानवता को त्राहि-त्राहि कर रखा है l जबकि उच्च स्तरीय वैज्ञानिक और तकनीकी युग में वैश्विक समाज अत्याधुनिक जीवन शैली में आनन्दमय जीवन जीना चाहता है l लेकिन अज्ञानता एवं सांप्रदायिक कट्टरता के रूढ़िवादी उसूलों के बल पर मध्ययुगीन रीतियों को थोपने की प्रवृत्ति के कारण टकराव बढ़ता जा रहा है l मुख्य रूप से इस्लामवाद के समर्थक अपनी इन्हीं कट्टरपन्थी विचारधारा के बल पर एकजुट सांप्रदायिक शक्ति के दुरुपयोग से अपने वर्चस्व को हिंसक व अहिंसक दोनों तरह से फैलाने में लगे हुए हैं l
इस्लाम में भी अनेक वर्ग होने से उनमें परस्पर अपने को श्रेष्ठ स्थापित करने की होड़ लगी होती है l जिसके दुष्परिणाम स्वरुप हिंसा की पराकाष्ठा ने सीरिया, लीबिया एवं इराक़ आदि की धरती को रक्तरंजित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी l अफगानिस्तान भी इसी त्रासदी से दशकों से जुझ रहा है l क्या अल्लाह के नाम पर राजनीति और रक्तपात करने वाले अल्लाह में अविश्वास करने वालों के अतिरिक्त जब अल्लाह के अनुयायियों को भी नहीं छोड़ेंगे तो क्या यह मानवता के साथ-साथ इस्लाम के लिए भी विध्वंसकारी नहीं होगा_?
इस मानसिकता का कुछ शक्तियों ने अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अनुचित लाभ उठाने के लिए भी कुत्सित प्रयास किए है। वैश्विक शक्तियों के ऐसे अमानवीय व्यवहारों पर चिंतन करना चाहिए l अत्यधिक पीड़ित अफगानिस्तान की सुरक्षा के लिये सक्रियता के उपरांत भी विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भूमिका को भी दोष देना अनुचित नहीं होगा ? कोई यह समझने या समझाने का कष्ट करेगा कि संसार का इतना विशाल व विकसित सभ्य समाज क्यों कुछ अत्याचारी, आतंकी, कट्टरवादी, दुराचारी और जिहादी समाज से पराजित हो रहा है ? क्या सज्जनता दुर्जनों के कोप का भाजन बनती रहे और निर्दोष – मासूम बच्चों, युवाओं और बुजुर्गों का रक्तपात होता रहे?
निःसंदेह इस्लामिक सिद्धान्तों पर चलने वाले इस्लामिक स्टेट और तालिबान जैसे सभी आतंकवादी संगठनों का एक ही संकल्प है कि इस्लामिक कायदे कानूनो से चले दुनिया l इस्लामिक आतंकवाद को नष्ट करने के लिए जेहादियों के मन-मस्तिष्क में कट्टरपंथी मौलवियों द्वारा भरे हुए विष को क्या कोई निकाल पाया है या पायेगा ? इस्लाम का सिद्धांत है कि “वह गैर मुसलमानों के मुस्लिम मित्रों, सहयोगियों और समर्थकों आदि को भी कभी स्वीकार नहीं करता और उन्हें भी अन्य काफ़िरों के समान काफ़िर ही मानता है l”
हमे सीरिया, लीबिया व इराक आदि में दुर्दांत आतंकवादियों का सरगना और इस्लामिक शिक्षाओं का एक बड़ा विद्वान बगदादी एवं उसके साथियों द्वारा वर्षो हुए क्रूरतम अत्याचारों को भी भूलना नहीं चाहिए l उसमें भी इस्लाम के अनुयायियों को भी अन्य गैर मुस्लिमों के साथ लुटा -भगाया – मारा गया था l सभ्य समाज को समझना चाहिए कि मुसलमानों के अनेक फिरके (संस्करण) अपने आप को मुसलमानों में भी श्रेष्ठ स्थापित करने की घिनौनी सोच के कारण आपस में भी एक-दूसरे का रक्त बहाने में भी उसी तरह लिप्त हो जाते हैं जिस प्रकार गैर मुस्लिमों का उत्पीड़न करते हैं l अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा गैर मुसलमानों सहित वहीं के मुसलमानों का भी वर्षो से रक्त बहाया जाना शरियत, इस्लामिक सिद्धान्तों और इनकी देवबंदी शिक्षाओं पर ही आधारित हो l
इसलिए जब तक इस्लामिक स्टेट व तालिबान जैसे सभ्य समाज के शत्रु जेहादियों के मन में गहराई से बैठा हुआ काफ़िर और नॉन काफिर या मुसलमान और गैरमुसलमान का विभाजनकारी संकल्प मिटाया नहीं जाएगा तब तक जिहाद के विरूद्ध कोई भी संघर्ष सफल नहीं हो सकता l इस मानसिकता के मूल आधार की जड़ों पर जब तक प्रबल वैचारिक प्रहार नहीं किया जायेगा तो अत्यधिक आधुनिक शस्त्रों के प्रहार भी बार-बार असफल होते रहेंगे?
विश्व के अधिकांश नेता मानवता की रक्षा करके शांति बनाये रखने की बड़ी-बड़ी बातें अवश्य करते हैं, परंतु उस जिहादी विचारधारा जिससे मानवता बार-बार चीत्कार कर उठती हैं के मूलभूत कारणों पर कोई चिंतन नहीं करते ? अत: इस्लामिक धार्मिक पुस्तकों और विद्याओं में समाज को विभाजित करके उनसे वैमनस्य का भाव भरने वाले कट्टर विचारों में परिवर्तन करने से ही अलगाववाद और आतंकवाद को नियंत्रित किया जा सकता है l इसीलिए वैश्विक समाज को सौहार्द पूर्ण वातावरण बनाते हुए मानवता की रक्षार्थ “जियो और जीने दो” के लिये विशेष रूप से इस्लामिक जगत में सहिष्णुता और सद्भावना हेतु विशेष अभियान चलाने होंगे l
क्या चार दशक से महा शक्तियों ने अफगानिस्तान का अपने-अपने राजनैतिक स्वार्थो के कारण उनका तथाकथित विकास किया वह सार्थक हुआ, इसका विश्लेषण कौन करेगा ? जिसकी परिणति अब अत्यन्त दर्दनाक हो रही है l इन्हीं उलझनों भरी विकट परिस्थितियों का अनुचित लाभ उठाते हुए अब महत्वाकांक्षी चीन अफगानिस्तान को अपनी छत्रछाया में लाकर उनका संकट दूर करने के लिए प्रयास करना चाहता है l लेकिन इसमें भी यह सन्देह बना हुआ है कि अफगानिस्तान के नागरिकों की मूल पीड़ा को कौन कितना समझ रहा है? जबकि चीन एक दुर्दांत आतंकवादी संगठन तालिबान को यह सुझाव दे रहा है कि “वह आतंकवादी संगठनों से दूर रहे” अपने आप में एक हास्यास्पद व मूर्खतापूर्ण सुझाव है l क्या तालिबान स्वयं आज भी अफगानिस्तान सहित अधिकांश सभ्य समाज की शांति के लिये एक बड़ा अवरोधक नहीं बना हुआ है?
इस सबके उपरांत भी क्या अफगानिस्तान की परिवर्तित परिस्थितियों में कुछ निम्न बिंदुओं पर विचार किया जाना सार्थक होगा __
क्या तालिबानी कट्टरता और महाशक्तियों की स्वार्थी मनोवृत्ति में वहां की सामान्य जनता का उत्पीड़न व दोहन होता रहे और विकसित समाज उदासीन बना रहे_?
क्या अफगान भूमि की संतानें अपनी प्राचीन वैदिक संस्कृति पर आधारित “जियो और जीने दो” के लिए अग्रसर होकर मानवतावादी संस्कृति को अपनाएगी_?
क्या वसुधैव कुटुम्बकम की संस्कृति के वाहक भारत वर्ष को अपनी भूमिका की अभी और प्रतीक्षा करनी होगी_?
विनोद कुमार सर्वोदय