मनुष्य अपने अगले जन्मों को उन्नत व श्रेष्ठ बनाने के लिए क्या करे?

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-मनमोहन कुमार आर्य

               मनुष्य एक चेतन व अल्पज्ञ आत्मायुक्त शरीर को कहते हैं जिसके पास दो हाथ व दो पैरों सहित बोलने के लिये वाणी होती है तथा एक विवेकवान व मनन करने की क्षमता से युक्त बुद्धि व मस्तिष्क होता है। मनुष्य की मृत्यु होने पर उसका शरीर अन्त्येष्टि कर्म के द्वारा नष्ट होकर अपने कारण पंचतत्वों में विलीन हो जाता है। मृत्यु के समय शरीर में रहने वाली जीवात्मा अपने सूक्ष्म शरीर सहित भौतिक शरीर को छोड़कर बाहर चली जाती है। आत्मा स्वयं शरीर से बाहर नहीं निकलती अपितु यह ईश्वर की व्यवस्था व उसकी प्रेरणा का परिणाम होता है। यदि ईश्वर जीवात्मा को शरीर से बाहर न निकाले तो फिर आत्मा शरीर से स्वमेव नहीं निकल सकती। ईश्वर भी आत्मा को तभी निकालते हैं जब मनुष्य का शरीर आत्मा के निवास के योग्य नहीं रहता। हम सामान्य रूप से देखते भी हैं कि मनुष्य की मृत्यु का कारण रोग, दुर्घटना, हृदयाघात, पक्षाघात वा मस्तिष्काघात आदि हुआ करते हैं। आत्माहत्या से भी मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। मृत्यु से पूर्व शरीर में कुछ ऐसे विकार हो जाते हैं कि आत्मा शरीर में रहकर शरीर व अपनी क्रियाओं को सुचारु रूप से नहीं कर पाता है।

               आत्मा को परमात्मा शरीर से निकालने के बाद क्या करते हैं, यह प्रश्न विचारणीय है। आत्मा के निकलते समय आत्मा के पास अपने कर्मों की पूंजी होती है जिसका ज्ञान आत्मा को तो नहीं होता परन्तु परमात्मा को होता है। परमात्मा सर्वव्यापक एवं सर्वान्तयामी सत्ता है। परमात्मा की यह सत्ता जीवात्मा के सभी कर्मों की साक्षी होती है। परमात्मा को विस्मृति नहीं होती। अतः उसे जीवात्मा के जीवन भर के कर्मों सहित उसके पूर्वजन्मों सभी कर्मों का ज्ञान भी होता है। वह कर्म जिनका भोग जीवात्मा ने नहीं किया होता है उनका कर्म जीवात्मा को भोगना होता है। जब अल्पज्ञ मनुष्य न्यायालय बनाकर वहां लोगों के कर्मों व अपराधों का निर्णय कर सकते हैं तो परमात्मा तो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापक है। वह जीवात्माओं का माता-पिता, मित्र, सुहृद बन्धु होने के साथ न्यायाधीश भी है। वह सभी अल्पज्ञ मनुष्यों व इतर प्राणियों से अधिक अच्छा अर्थात् आदर्श न्याय जिसमें कहीं कोई भूल-चूक या कमी व अधिकता नहीं होती, ऐसा न्यूनताओं से रहित सराहनीय एवं मान्य करने योग्य न्याय करता है। इस कार्य को करने के लिए परमात्मा को मृतक शरीर की जीवात्मा को उसके कर्मों के अनुसार नया शरीर देना होता है जिसे जीवात्मा का पुनर्जन्म कहते हैं।

               पुनर्जन्म होने पर सभी जीवात्मायें अपने पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगती हैं। इसी को मृतक जीवात्मा की गति कहते हैं। मनुष्य को उसके शुभ कर्मों का फल सुख व अशुभ व पाप कर्मों का फल दुःख के रूप में मिलता है। संसार में हम देखते हैं कि मनुष्य ही नहीं अपितु सभी प्राणियों को सुख व दुःख दोनों प्राप्त होते रहते हैं। विचार करने पर इन सुख व दुःख का परिणाम जीवात्मा के पूर्वजन्म के कर्म ही सिद्ध होते हैं और अन्य कोई कारण मनुष्य को सुख व दुःख प्राप्ति का नहीं होता। शास्त्रों के अनुसार मनुष्य को जीवन में तीन प्रकार के दुःख प्रापत होते हैं। यह आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःख कहलाते हैं। आधिभौतिक दुःख क्या है? यह वह दुःख होता है जो दूसरे मनुष्य व पशु आदि प्राणियों से हमें होता है। इन दुःखों का कारण हमारे कर्म भी हो सकते हैं और नहीं भी। इसका कारण यह है कि मनुष्य वा जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में परतन्त्र है। अतः जीवात्मा की इस स्वतन्त्रता के कारण कोई भी अन्य मनुष्य व प्राणी अपनी अविद्या, अज्ञान, स्वार्थ वा लोभ आदि कारणों से हमें उचित व अनुचित रूप से दुःख दे सकता है। इस प्रकार से मनुष्य को जो दुःख प्राप्त होता है वह प्रायः उसके कर्मों का हो भी सकता है और नहीं भी। यदि मनुष्य को प्राप्त दुःख उसके पूर्व कर्मों के कारण से नहीं हुआ है तो परमात्मा इस प्रकार से प्राप्त दुःखों के बदले में कालान्तर में उस जीवात्मा व मनुष्य को उसके अनुरूप सुखों की प्राप्ति कराता है। हमें लगता है कि जिस प्रकार हमें किसी का कुछ धन या द्रव्य देना हो और हम उसे आने व अनजाने में देय धन से अधिक धन का भुगतान कर देते हैं तो जो अधिक धन देते हैं उसका ज्ञान होने पर हम उस धन को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। जिसे अधिक धन देते हैं वह भी भूलचूक से दिया गया अधिक धन लौटा देता है। ऐसा ही हमें अन्य भूतादि प्राणियों से अकारण प्राप्त दुःखों के बदले में परमात्मा से उतनी व कुछ अधिक मात्रा में सुख प्राप्त होते हैं।

               आधिदैविक दुःखों पर विचार करते हैं तो प्रकृति में होने वाली अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प व अन्य प्राकृतिक व दैवीय कारणों से होने वाले जो दुःख होते हैं वह इस श्रेणी में आते हैं। यह दुःखों एक साथ अनेकों मनुष्यों व प्राणियों को होते हैं व हो सकते हैं। यह भी हमारे किन्हीं कर्मों का फल प्रतीत नहीं होते। इनसे हमें जो दुःख होता है उसके बदले में भी हमें परमात्मा की व्यवस्था से कालान्तर में सुखों की प्राप्ति होती है। तीसरी श्रेणी में आध्यात्मिक दुःख आते हैं। यह हमें शरीर में अनेक प्रकार के विकार वा आदि-व्याधियों से उत्पन्न होने से होते हैं। इसमें हम ज्वर, उदरशूल व उदर आदि अनेक प्रकार के शारीरिक रोगों व अन्य सभी प्रकार के रोगों को ग्रहण कर सकते हैं। यह दुःख कुछ ईश्वर की व्यवस्था से हमारे प्रारब्ध व इस जन्मों के भोजन आदि दोषों अथवा कुछ हमारी अनेक प्रकार की गलतियों के कारण से होते हैं। अतः इन अधिकांश दुःखों को हम अपने कर्मों का फल मान सकते हैं। इस प्रकार हमें प्राप्त होने वाले सभी दुःखों की यह तीन श्रेणियों हैं। इसमें हम अपनी ओर से सावधानी बरतते हुए इन दुःखों को कुछ कम तो कर सकते हैं परन्तु इनका पूरा पूरा निवारण नहीं कर सकते। हमने अतीत व पूर्वजन्मों में जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, उनके फल तो हमें अवश्यमेव भोगने ही हैं।

               इन सब दुःखों से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि हम जन्म व मरण के बन्धन का कारण आसक्ति से युक्त किये जाने वाले कर्मों का परित्याग करें और अपने जीवन निर्वाह के लिये त्यागपूर्वक प्रकृति के साधनों का भोग कतरे हुए वेदविहित सन्ध्या, अग्निहोत्र देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञों को यथाशक्ति श्रद्धा व कर्तव्य भावना से करें। इसके अतिरिक्त हमें सभी प्रकार के लोभ, आकांक्षाओं व कामनाओं से मुक्त जीवन व्यतीत करना होगा। यदि जीवन में लोभ और कामनायें होंगी तो हमें दुःख प्राप्त होंगे ही होंगे। जब तक मनुष्य के पुनर्जन्म के आधार सुख व दुःख भोगने योग्य कर्म अवशिष्ट रहेंगे, तब तक हमारा पुनर्जन्म होता रहेगा और हम दुःखों से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकते। हमारे वेदादि शास्त्रों, ऋषियों तथा विचारकों ने सुख व दुःख के बन्धन वाले कर्मों पर विचार किया था और जाना था कि नाना प्रकार के वेद व शास्त्रविहित कर्मों और उपासनाओं से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। ऋषि दयानन्द ने मोक्ष विषयक पर सब प्रकार से विचार कर इसके विषय में सम्पूर्ण ज्ञान वा दर्शन प्रस्तुत किया है। उनके मोक्ष विषयक शास्त्रानुकूल, युक्ति व तर्कयुक्त विचार सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम् समुल्लास में दिये गये हैं। परजन्मों में अपना कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्योें को अवश्य ही इस समुल्लास को पढ़ कर लाभ उठाना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में ऋषि दयानन्द ने जो विचार व मान्यतायें लिखी हैं वह सब शास्त्रों से पुष्ट एवं तर्क एवं युक्ति से भी सत्य सिद्धि होने के कारण से सत्य हैं। उसमें अविश्वास की कोई बात नहीं है। अतः मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होकर ही सभी दुःखों से पूर्णतः मुक्त सकता है।

               किन कर्मो से मनुष्य का यह जीवन पर परजन्म उन्नत व श्रेष्ठ बनता है? इस प्रश्न का उत्तर है कि वेदविहित कर्मों को करने से मनुष्य का जीवन इस जन्म में भी उत्तम, श्रेष्ठ व यशस्वी बनता है और मृत्यु होने पर भी। मनुष्य ने इस जन्म में जो सन्ध्या, यज्ञ-अग्निहोत्र, परोपकार, दान, स्वाध्याय, योगाभ्यास सहित देश व समाज हित के जो काम किये होंगे या वह करेगा, वह कर्म-पूंजी प्रारब्ध बनकर उनके भावी पुनर्जन्म व उसके बाद के जन्मों में भी सहायक, उपयोगी होगी और वही उन्हें मनुष्य का श्रेष्ठ जीवन प्राप्त कराने में सहायक होगी। यदि हम वेद विहित कर्मों से अपरिचित रहते हुए सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं, सन्ध्या-उपासना, अग्निहोत्र, परोपकार तथा देश व समाज हित के काम नहीं करते तो ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था जिसे ईश्वर का संविधान कह सकते हैं, उससे हमें अपने किये हुए कर्मों के अनुसार ही सुख-दुःख रूपी फल व अगला जन्म मिलेगा जो वैदिक जीवन व्यतीत करने की तुलना में अधिक उन्नत व श्रेष्ठ मिलने का तो प्रश्न ही नहीं होता। यही कारण था कि हमारे तत्ववेत्ता, ज्ञानी, मनीषी, असाधारण बुद्धि व प्रज्ञा के धनी ऋषि, मुनि, योगी व विद्वान भौतिक सुविधाओं से युक्त जीवन का परित्याग कर तपस्वी व साधनामय जीवन व्यतीत करते थे। वह ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार करते थे और अपने भावी जन्म को न केवल उन्नत बनाने के लिये पुरुषार्थ व तप करते थे अपितु जन्म व मरण के बन्धनों को काट कर उनसे छूट कर पूर्णतया मुक्त होकर ईश्वर के सान्निध्य में रहते हुए पूर्ण आनन्द का भोग करते थे। वह मोक्ष में विचरण करने वाली जीवात्माओं से सम्पर्क कर उनसे मिलना, जुलना व वार्ता आदि कर सभी दुःखों से मुक्त जीवन व काल को व्यतीत करते थे। मोक्ष का सुख ऐसा असीम आनन्दमय सुख होता है कि उसे प्राप्त जीवात्मा सांसारिक व मनुष्य जीवन में मिलने वाले उत्तम से उत्तम सुखों की कामना भी नहीं करती हैं। इसके लिये ही हमारे ऋषि व मुनि पुरुषार्थ करते थे। हमें भी ऋषि दयानन्द द्वारा निर्देशित कर्तव्य-कर्मों व साधनों को ही करना चाहिये। यही कल्याण, उन्नति तथा ज्ञानयुक्त आनन्द का मार्ग है।

               हमने इस विषय से सम्बन्धित अपनी आत्मा के विचारों को प्रस्तुत किया है। हमारे विद्वान इस विषय का इससे कहीं अधिक उत्तम लेख लिख सकते हैं। यदि कोई विद्वान हमारी किसी सैद्धान्तिक भूल का संकेत करते हैं तो हम उनका स्वागत करेंगे। हमारे इस श्रम से यदि किसी पाठक को किंचित भी लाभ होता है तो हम अपने पुरुषार्थ को सफल समझेंगे। ईश्वर हम सब जीवों का कल्याण करें। ओ३म् शम्। 

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