वो शाम चुलबुली सी
रातें खिली खिली सी
वक़्त के समंदर में
वो वक़्त ही घुल गया है।
अब शांत सी शामें हैं,
चादर में नहीं हैं सिलवट
नींद से रूठा मनाई,
यादें आईं नई पुरानी,
बचपन की कोई कहानी
या जवानी की नादानी,
रातों को आंखो में आकर,
नीदें चुराने लगी हैं।
भविष्य भी अब तो
अतीत में खोने लगा है।
‘आज’ का मैं करूं क्या
वो शून्य सा हो रहा है!
कहां से रंग लाऊं,
जो शून्य में समाये,
कहाँ से ऊर्जा पाऊं,
क़दम आगे बढ़ाऊँ।
आज और कल मे अब
फर्क ही कहाँ है……जैसे चल रही
ज़िन्दगी वैसे उसे निभाऊं।