कैसा होगा नवाज़ शरीफ़ का पाकिस्तान?

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Nawaz sharifतनवीर जाफ़री
पाकिस्तान के मतदाताओं ने एक बार फिर पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ (पीएमएलएन)को बहुमत देकर नवाज़ शरीफ को प्रधानमंत्री के रूप में निर्वाचित किए जाने की राह हमवार कर दी है। वे तीसरी बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सुशोभित हुए हैं। इससे पूर्व नवाज़ शरीफ 1990 में पहली बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे। उसके पश्चात 1997 में पुन: उनकी पार्टी ने जीत हासिल की तथा वे दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने। इसी दूसरे प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान 1999 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्रफ़  ने नवाज़ की निर्वाचित सरकार का तख्ता पलट करते हुए उन्हें पद से हटा दिया तथा उन्हें जेल में डाल दिया। और इस प्रकार मुशर्रफ स्वयं पाकिस्तान के सैन्य शासक बन बैठे। यह कुछ अजीब इत्तेफाक है कि पिछले दिनों पाकिस्तान में हुए आम चुनावों में जहां जनरल परवेज़ मुशर्रफ लोकतांत्रिक रास्ते से चलते हुए पाकिस्तान की सत्ता पर नियंत्रण करने की नीयत से पाकिस्तान वापस लौटे थे वहीं नवाज़ शरीफ ने भी सत्ता में पुन: वापसी के लिए अपना भाग्य आज़माया। परंतु चुनाव से पूर्व ही परवेज़ मुशर्रफ़ को तो उनके विरुद्ध चल रहे मुकद्दमों के सिलसिले में पाक अदालत ने हिरासत में ले लिया जबकि चुनाव में मतदाताओं ने नवाज़ शरीफ़ को सत्ता सौंप दी। दुनिया की नज़र निश्चित रूप से इस बात पर भी है कि अब परवेज़ मुशर्रफ को लेकर नवाज़ शरीफ क्या रुख अपनाते हैं?
बहरहाल, पाकिस्तान के चुनाव परिणाम कई मायनों में बड़े ही दिलचस्प व साथ-साथ चिंताजनक भी रहे हैं। पाकिस्तान में चुनाव घोषित होने से पूर्व पाक अवाम ने तरह-तरह के राजनैतिक व जेहादी ड्रामे देखे। इनमें से जहां एक नाटक के सूत्रधार धार्मिक नेता ताहिर-उल-कादरी रहे वहीं चुनाव बहिष्कार की स्क्रिप्ट जेहादी व चरमपंथी संगठनों द्वारा लिखी गई। यदि हम अभी कुछ ही दिन पहले इस्लामाबाद में 13 से लेकर 17 जनवरी के मध्य आयोजित किए गए ताहिर-उल-क़ादरी के लांग मार्च को याद करें तो हमें भारत में अन्ना हज़ारे की जंतर-मंतर की जनक्रांति भी फीकी लगने लगती है। ऐसा प्रतीत हो रहा था गोया ताहिर-उल-कादरी के समक्ष पाकिस्तान के शासक,सत्ता या सत्ता की ताकत कोई मायने नहीं रखती। परंतु चुनावों के दौरान जिस प्रकार स्वयं कादरी व उनका नाम मीडिया,अखबारों या आम लोगों के बीच से गायब रहा उससे तो ऐसा लगा गोया ताहिर-उल-कादरी नाम की कोई चीज़ शायद कभी पाकिस्तान में थी ही नहीं। चुनाव पूर्व ताहिर-उल-कादरी द्वारा प्रस्तुत ड्रामे का सूत्रधार कौन था? यह ड्रामा क्यों रचा गया? इसका मकसद क्या था? और पिछले दिनों हुए चुनावों पर इसका क्या प्रभाव पड़ा यह सब कुछ भी स्पष्ट नहीं है। इसी प्रकार दक्षिणपंथी चरमपंथियों द्वारा खासतौर पर तहरीक-ए-तालिबान व उससे संबद्ध अतिवादी संगठनों द्वारा पाकिस्तान में पहले तो आम चुनावों के बहिष्कार की घोषणा की गई। उसके पश्चात इन चरमपंथियों द्वारा कुछ राजनैतिक दलों के प्रति तो हमदर्दी का रुख अिख्तयार किया गया और कुछ राजनैतिक दल जो पाकिस्तान में धर्मनिरपेक्ष सोच की वकालत करते हैं उन्हें अपने निशाने पर लिया गया।
इन आतंकवादियों द्वारा जहां इस बार के चुनावों के दौरान हिंसा के रिकॉर्ड तांडव किए गए वहीं मतदाताओं ने भी रिकॉर्ड मतदान कर यह साबित करने की कोशिश की कि पाकिस्तान की जनता चरमपंथियों के भयवश घरों में दुबक कर बैठने वाली नहीं है। चरमपंथियों ने जहां चुनाव के दौरान सैकड़ों लोगों की हत्याएं कर डालीं वहीं उन्होंने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता व पूर्व प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी के पुत्र अली हैद गिलानी जोकि पाक असेंबली चुनाव में एक उम्मीदवार भी थे का एक चुनावी सभा के बाद दिनदहाड़े अपहरण कर अपनी जुर्रअत एवं बुलंद हौसलों का भी एहसास कराया। परंतु चरमपंथियों का रुख पीएमएल नवाज़ व इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ के प्रति जानबूझ कर या इत्तेफाक से जो भी कहें नरम रहा। और इन्हीं दोनों दलों को अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों की तुलना में सर्वाधिक सीटें प्राप्त हुईं। यहां यह बात काबिल-ए-गौर है कि 1999 में जिस समय जनरल परवेज़ मुशर्रफ़  ने नवाज़ शरीफ को प्रधानमंत्री पद से हटाकर उन्हें जेल में डाला था उस समय सऊदी अरब के शासकों ने मध्यस्थता कर नवाज़ शरीफ को मुशर्रफ के चंगुल से छुड़ाकर सऊदी अरब ले जाने का काम अंजाम दिया था। यह भी माना जाता है कि जेहादी चरमपंथ के विस्तार में सऊदी अरब की सरकार तथा वहां के शासक आर्थिक रूप से अपनी काफी सक्रिय भूमिका अदा करते हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजि़मी है कि वर्तमान चुनावी परिणाम के परिपेक्ष्य में सऊदी अरब, नवाज़ शरीफ,इमरान खान तथा पाकिस्तान में सक्रिय चरमपंथी नेटवर्क के बीच कोई आपसी गुप्त तालमेल तो स्थापित नहीं?
वैसे यह बात भी अपनी जगह पर सत्य है कि पाकिस्तान में इस बार हुए आम चुनावों में राजनैतिक दलों द्वारा उन पारंपरिक मुद्दों को नहीं छेड़ा गया जो पाकिस्तानी अवाम को उकसाने व भडक़ाने का काम करते थे। अर्थात् न तो इस बार के चुनावों में वहां कश्मीर समस्या तथा कश्मीर में भारतीय सेना की भूमिका कोई मुद्दा बनी और न ही भारत विरोध अथवा ब्लूचिस्तान में कथित रूप से भारतीय दखल अंदाज़ी जैसे मुद्दे को राजनैतिक दलों द्वारा हवा देने की कोशिश की गई। नवाज़ शरीफ की पीएमएल ने जहां बिजली,पानी, सडक़ बेरोज़गारी तथा देश की अर्थव्यवस्था को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया वहीं गत् पांच वर्षों में पाकिस्तान में हुई रिकॉर्ड हिंसक घटनाएं, बेतहाशा बढ़ा भ्रष्टाचार,ओसामा बिन लाडेन को ज़बरदस्ती अमेरिकी सेना द्वारा एबटाबाद से मार कर ले जाना तथा पाकिस्तान में अमेरिका द्वारा किए जाने वाले ड्रोन हमले, मंहगाई तथा बेरोज़गारी जैसी चीज़ें पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को भारी पड़ीं। जबकि नवाज़ शरीफ व इमरान खान दोनों ही ड्रोन हमलों का विरोध करते तथा पाकिस्तान की संप्रभुता को चुनौती देने वाले अमेरिकी फैसलों को ललकारते दिखाई दिए। इतना ही नहीं बल्कि नवाज़ शरीफ की ओर से तो उन जेहादी चरमपंथियों के प्रति भी नरम रुख अपनाया गया जो क्वेटा व ब्लूचिस्तान में सैकड़ों शिया समुदाय के लोगों की हत्याओं के सीधे जि़म्मेदार थे। यही नहीं बल्कि ऐसे दो चरमपंथी नेताओं को नवाज़ शरीफ की पार्टी की ओर से चुनाव लडऩे हेतु टिकट भी दिए गए और वे विजयी भी हुए।
उपरोक्त परिस्थितियां निश्चित रूप से यह सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि क्या पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ के रूप में चरमपंथी तत्व एक बार फिर सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने जा रहे हैं? गत् कई वर्षों से चरमपंथियों से जूझ रही सेना कहीं उनके समक्ष थकती व हारती तो नहीं दिखाई दे रही? अपनी जगह पर यह बात तो तय है कि सेना अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद चरमपंथियों के हौसले पस्त करने में पूरी तरह असफल रही है। बजाए इसके यह कहना ज़्यादा सही होगा कि कई बार पाकिस्तान के सैन्य ठिकानों यहां तक कि अति सुरक्षित हवाई पट्टियों व सुरक्षा चौकियों पर हमले कर आतंकवादियों ने ही पाकिस्तान सेना को स्वयं चुनौती दी है। ज़ाहिर है ऐसे में सेना के समक्ष इस बात का विकल्प खुला है कि वह सत्ता के खेल से स्वयं को दूर रखे तथा अपनी पेशेवर सैन्य प्राथमिकताएं सुनिश्चित करे। और कुछ ऐसा ही प्रतीत भी हो रहा है कि वर्तमान चुनावों की ही तरह इन चुनावों के बाद भी नवाज़ शरीफ के सत्ता संभालने के बाद उनकी सरकार के कामकाज में भी संभवत: सेना की उतनी दिलचस्पी न रहे। क्योंकि पाक सेना अफगानिस्तान,तालिबान तथा आत्मरक्षा से जूझने में ही इतनी व्यस्त दिखाई दे रही है कि उसे सत्ता के खेल खेलने की न तो फुर्सत नज़र आ रही है और न ही इस सिलसिले में उसकी फिलहाल कोई दिलचस्पी है। यह हालात इस ओर भी इशारा करते हैं कि संभवत: पाक सेना यह भी समझ बैठी है कि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवाद से निपटना न तो सेना के वश की बात है न ही इससे आतंकवादी समस्या का समाधान होता दिखाई दे रहा है। लिहाज़ा संभवत: सेना के आंकलन के अनुसार निर्वाचित सरकार तथा उसके द्वारा पाक में सक्रिय चरमपंथी गुटों से बातचीत कर पाकिस्तान में शांति स्थापित करने की कोशिश करना ही एकमात्र उचित रास्ता बचा है।
चुनाव परिणाम आने के बाद नवाज़ शरीफ ने यह कहा भी है कि तालिबान ने बातचीत की पेशकश की है। और उनकी इस पेशकश को गंभीरता से लेना भी चाहिए। साथ-साथ शरीफ ने भारत के साथ भी रिश्ते बेहतर बनाने की इच्छा ज़ाहिर की है। सवाल यह है कि पाकिस्तान में सक्रिय जो चरमपंथी ताकतें भारत-पाक रिश्तों को बेहतर होते नहीं देख सकती वही आतंकी शक्तियां नवाज़ शरीफ को भारत के साथ रिशते बेहतर बनाने में कैसे सहयोग करेंगी? पाकिस्तान की नवनिर्वाचित सत्ता में चरमपंथियों की हिस्सेदारी तथा उनका अप्रत्यक्ष सहयोग व समर्थन न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय है। पूरी दुनिया को इस बात की उत्सुकता है कि आतंकवाद की जननी व पोषण कर्ता समझा जाने वाला पाकिस्तान नवाज़ शरीफ के हाथों में जाने के बाद आखिर कैसा पाकिस्तान साबित होगा?

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  1. Filhaal paak में एक सरकार पूरे पांच साल चल ग्यिऔर दूसरी क्त्र्प्न्थियो क न चाहने के बबाद भी बन गयी यही बहुत बड़ी ब्बात है.

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