जयपुर के बिडला ऑडिटोरियम में तीन दिन चले कांग्रेस के चिंतन शिविर में सरकार और संगठन की लाख एकजुटता नजर आई हो, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने ९ वर्ष की सरकार की तमाम कमजोरियों को आंकड़ों से ढांकने का काम किया हो किन्तु जनता जनार्दन से जुड़े मुद्दों पर मंथन तो क्या चर्चा की जेहमत भी नहीं की गई। इससे इतर चिंतन शिविर राहुल कीर्तन में तब्दील होकर रह गया। ३०० प्रतिनिधियों में से लगभग ११५ युवा प्रतिनिधियों की भागीदारी ने इतना तो सुनिश्चित कर ही दिया था कि इस बार का कांग्रेसी चिंतन अपनी दिशा-दशा को काफी हद तक परिवर्तित करने की जुगत में है। युवा प्रतिनिधियों से भी यह अपेक्षा थी कि वे हाल के वर्षों में आई राजनीतिक गिरावट और सोशल मीडिया से उपजे संकट का निदान ढूंढने की ओर अग्रसर होंगे किन्तु अफ़सोस उन्होंने राहुल राग का नारा बुलंद कर चिंतन शिविर के मायने ही बदल दिए। राहुल तो कांग्रेस के सर्वमान्य नेता हैं ही और यह बात सारा देश जानता है किन्तु उन्होंने राहुल गांधी को जिस तरह पद देने और आगामी आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग रखी उससे यह संकेत तो गया ही है कि कांग्रेस आज भी गांधी-नेहरु परिवार की छत्रछाया से बाहर नहीं निकल पाई है। अलबत्ता कहा जा सकता है कि वह इनकी छाया मात्र से विमुख होने का जोखिम भी नहीं उठा सकती। क्या राहुल गांधी को पार्टी में पद देने का मुद्दा इतना गंभीर था कि सभी जन मुद्दों को बिसरा कर उनकी उपाध्यक्ष पद पर ताजपोशी कर दी गई? क्या राहुल बिना पद के ताकतवर नहीं थे? क्या पद मिलने के बाद राहुल अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा पाएंगे? दरअसल ये सवाल ऐसे हैं जिनका उत्तर एक सामान्य व्यक्ति भी दे सकता है। राहुल को पद न भी मिलता तो भी कांग्रेस में उन्हें चुनौती देने का साहस किसी में नहीं था। राहुल का पार्टी में जो दखल पद लेने से पूर्व था; पद लेने के बाद उसने बढ़ोतरी होगी ऐसा भी नहीं है। फिर भी राहुल के कद और पद को लेकर इन तीन दिनों में जो भी कुछ हुआ उसने आम जनता के मुद्दों के साथ छल किया है। किसी को शायद ही यह अनुमान रहा हो कि कांग्रेस का यह चिंतन शिविर मात्र राहुल की ताजपोशी और खुद की पीठ थपथपाने तक ही सीमित हो जाएगा।
फिर जिन्होंने ने भी टेलीविजन पर राहुल गांधी का भाषण देखा है उन्हें आभास हुआ होगा कि राहुल गांधी ने इमोशनल ड्रामे से इतर ऐसी एक भी बात नहीं कही जिससे यह भान होता हो कि उनके भविष्य का एजेंडा यही है। हालांकि सत्ता, पावर, युवा इत्यादि विषयों पर राहुल खुल कर बोले किन्तु पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की असमय मृत्यु पर उनके बोलने से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण तथा दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का अपने आंसू पोंछना देश को महज चाटुकारिता की पराकाष्ठा प्रतीत हुआ है। हो सकता है टेलीविजन के फुटेज देखकर राहुल और सोनिया दोनों को गांधी-नेहरु परिवार का सच्चा हमदर्द समझें किन्तु इससे जनता के मुद्दों और उसकी समस्याओं का निराकरण तो होने से रहा। आखिर राहुल को चिंतन शिविर में स्व. इंदिरा गांधी की असमय मृत्यु पर बोलने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? यदि वे जनता से जुड़े मुद्दों पर बोलते या भविष्य की अपनी योजनाओं का खाका खींचते तो शायद जनता अधिक प्रभावित होती। तब हो सकता है कांग्रेस के प्रति आम आदमी के गुस्से में कमी भी आती और राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को जन समर्थन भी मिलता। पर अफ़सोस राहुल गांधी ने यह सुनहरा मौका भी गवां दिया। अव्वल तो राहुल के अब तक के राजनीतिक जीवन के खाते में कोई विशेष उपलब्धि दर्ज नहीं है, उसपर भी यदि वे भावुकता के सहारे राजनीतिक रूप से स्थापित होने की जद्दोजहद करते हैं तो यकीनन उन्हें जनता से मुद्दों की समझ नहीं है। अब जनता को आप बार-बार बेवक़ूफ़ नहीं बना सकते। देश और जनता की समस्याओं पर हमेशा चुप्पी साध जाने वाले राहुल गांधी का यदि यही रवैया रहता है तो लगता नहीं कि उनका उपाध्यक्ष बनना भी पार्टी की खोई साख को बदल पाएगा? यहां न तो राहुल को खारिज करना मकसद है न ही उन्हें कमतर आंकना किन्तु राजनीति के अखाड़े में उतरकर लड़े बिना ही जीतना भी किसी काम का नहीं होता। गठबंधन राजनीति के इस दौर में कांग्रेस भले ही राहुल को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा दे किन्तु उन्हें जनता का नेता कोई नहीं कहेगा। खासकर तब तो कोई भी नहीं जब सभी को दिख रहा है कि कांग्रेसी चिंतन से ज्यादा राहुल कीर्तन में लगे हैं।
सिद्धार्थ शंकर गौतम
जब तक जनता जाति धर्म और वंश के आधार पर वोट देती रहेगी तब तक राहुल जैसो की ताजपोशी करने में सोनिया को क्या दिक्कत आने वाली है. इस लिए ग़लती जहां से हो रही है वहीं से सुधार करना होगा.