–मनमोहन कुमार आर्य,
हमें मनुष्य जीवन परमात्मा से मिलता है। हमारा परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टि का कर्ता, धर्त्ता व हर्त्ता है। संसार में तीन सत्तायें हैं जिन्हें ईश्वर, जीव व प्रकृति के नाम से जाना जाता है। तीनों सत्तायें अत्यन्त सूक्ष्म है। ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म है। ईश्वर जीव व प्रकृति दोनों के भीतर विद्यमान रहता है। जीवात्मा भी सूक्ष्म है परन्तु ईश्वर जीव से भी सूक्ष्म है। इसी प्रकार प्रकृति भी सूक्ष्म है परन्तु जीव प्रकृति से भी सूक्ष्मतर है। ईश्वर सूक्ष्मतम होने से सभी सत्ताओं के भीतर प्रविष्ट है। इसीलिए ईश्वर को सर्वान्तर्यामी कहा जाता है। संसार में जीवों की संख्या मनुष्यों की ज्ञान की दृष्टि से अनन्त है। इन अनन्त जीवों का स्वभाव जन्म लेना और अपने पूर्व जन्म के कर्मों के सुख-दुःख रूपी फलों को भोगना है। जीवों को जन्म परमात्मा से मिलता है। परमात्मा अपनी सर्वव्यापकता व सर्वान्तर्यामी स्वरूप से जीवों के सभी कर्मों को जानता है और अपनी सर्वशक्तिमत्ता से जीवों के कर्मों के फल उनके अनुरूप योनियां प्रदान कर देता है। जिन मनुष्यों के कर्मों के खाते में पुण्य कर्म पाप कर्मों से अधिक होते हैं उन्हें मनुष्य जन्म मिलता है। यह बात शास्त्रों में कही गई है और ज्ञान की दृष्टि से भी उचित प्रतीत होती है। जिन जीवों का मनुष्य जन्म होता है वह स्त्री व पुरुष के रूप में जन्म लेते हैं। ईश्वर की व्यवस्था है कि वह संसार में स्त्री व पुरुषों का अनुपात लगभग बराबर रखता है जिससे युवावस्था में पहुंच कर सभी अपने योग्य वर व वधु से विवाह करके सृष्टि क्रम को जारी रख सकें।
विवाह से पूर्व का काल ब्रह्मचर्य पालन और शिक्षा वा विद्या प्राप्ति के लिए होता है। विद्या की उपमा देनी हो तो वह आंखों से दे सकते हैं। हमारे शरीर में जो महत्व चक्षुओं का है, वही महत्व जीवन में विद्या का है। विद्या मुख्यतः वेद ज्ञान को कहते हैं। जो वेदों के तत्व व मर्म को यथार्थ रूप में जानता है वह मनुष्य ही ईश्वर की दृष्टि में सच्चा मनुष्य होता है। वह मननशील होता है और सत्य का आचरण करने वाला होता है। विद्यावान मनुष्य ही अपने कर्तव्यों को जान सकता है और उस विद्या से जीवन में होने वाले दूरगामी लाभों को समझकर उनका पालन व आचरण करता है। ऐसे स्वस्थ व ज्ञानी मनुष्य का ही विवाह होना चाहिये। ऐसा मनुष्य विद्या के कारण दुःख में भी सुख का अनुभव कर सकता है। यदि उसे दुःख प्राप्त होता है तो वह उसे अपने पूर्व कर्म का फल या ईश्वर की व्यवस्था जानकर उसे प्रसन्नता के साथ भोगता है। वह विचलित व दुःखी नहीं होता। वह जानता है कि जीवन में सुख व दुःख स्थायी नहीं होते। देर व सबेर उस दुःख को भी दूर होना ही है। इसके साथ ही वह वेदाध्ययन से प्राप्त ज्ञान व अपने विवेक से सत्कर्मों को करके अपने वर्तमान व भविष्य के लिए शुभ कर्मों का संग्रह कर सुखी जीवन का आधार तैयार करता है। हमारे ज्ञानी, योगी, ऋषि व विद्वान सभी इन्हीं विचारों को मानते हैं और इन्हीं का प्रचार करते हैं। हमें वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिये और उसके आधार पर अपने सभी कर्तव्यों जिसमें ईश्वर व जीवात्मा आदि का ज्ञान प्राप्त करने सहित ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-देवयज्ञ आदि भी सम्मिलित है, इनका सेवन प्रतिदिन प्रातः व सायं करना चाहिये। आजीविका के लिए भी सत्कर्मो पर आधारित व्यवसाय का ही चयन करना चाहिये।
वैदिक धर्म एवं संस्कृति ने ही संसार को विवाह संस्कार का एक पावन विधान सृष्टि के आरम्भ में दिया जो आज भी उतना ही महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। सन्तानों के विवाह पूर्ण युवावस्था एवं शिक्षा पूरी होने पर ही किये जाते हैं। विवाह में वर व कन्या के गुण, कर्म व स्वभाव का समान होना महत्वपूर्ण होता है। विवाह का उद्देश्य है कि युवा व कन्या परस्पर प्रसन्नता से विवाह कर देश व समाज की उन्नति में योगदान करें। वैदिक धर्म का पूर्णरूपेण पालन करते हुए धनोपार्जन करेंं और उससे गृहस्थ जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ सुयोग्य सन्तानों को जन्म जन्म दें। वेद में 10 सन्तानों तक को उत्पन्न करने की आज्ञा है ऐसा हमने वैदिक विद्वानों के प्रवचनों में सुना है। आज संसार में जनसंख्या को देखते हुए सभी समुदायों व मत-मतान्तरों के लिए एक समान कानून होना चाहिये जिसमें अधिकतम सन्तानों की संख्या निर्धारित होनी चाहिये। कोई अधिक करे तो उससे दण्ड वसूला जाना चाहिये। देश हित में देश का कानून धर्म के कानूनों से ऊपर होना चाहिये और सरकार की विभिन्न मत-मतान्तरों के लोगों व धर्माचार्यों पर पैनी दृष्टि होनी चाहिये कि कोई अपने कुकृत्यों से किसी मत को आहत न करे। आजकल लव जेहाद जैसी बातें सुनने को मिलती हैं, टीवी पर इसकी चर्चा भी होती है, इन सब बातों से भी हमारे समाज व बन्धुओं को सजग रहना है। हमें सत्यार्थप्रकाश एवं वेदाध्ययन कर सभी विषयों के ज्ञान को बढ़ाना है जिससे हमारी सभी भ्रान्तियां दूर हों। हम कभी अज्ञान व अन्धविश्वासों में न फंसे। हम सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार और यथायोग्य व्यवहार करें। हमें सावधान रहना है कि कोई हमारी सज्जनता का दुरुपयोग कर हमें किसी प्रकार की भी हानि न पहुंचा सके।
हम स्वयं भी नियमित स्वाध्याय करें व अपने बच्चों को भी वैदिक धर्म के विषय में अधिक से अधिक जानकारी दें। वह संस्कृत, हिन्दी व अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करें और अध्यात्म के साथ आधुनिक विषयों का भी अध्ययन कर अपने लिए अच्छी आजीविका प्राप्त करने का प्रयत्न करें। जीवन में सदा चरित्रवान् व श्रेष्ठ आचरण करें तथा इससे विमुख न हों। पुरुषार्थ हमारे जीवन का मूल मन्त्र होना चाहिये। हम जो करते हैं उससे हमारा देश व समाज प्रभावित होता है। अतः हमारे सभी कार्य सकारात्मक होने चाहियें। धर्म रक्षा के प्रति भी हमारे भीतर भावनायें होनी चाहिये व उसके लिए समर्पण होना चाहिये। हमें अपने सभी प्रकार के अन्धविश्वास व पाखण्डों को दूर करना है व अपने स्वधर्मी बन्धुओं को भी अन्धविश्वासों से बचाना है। समाज में जन्मना जातिवाद समाप्त हो, इसके लिए प्रयासरत रहना है। सभी अविद्यायुक्त कृत्य मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध आदि से हम दूर रहें, दूसरों को भी तर्क व युक्तियों से समझायें और उन्हें सच्चे ईश्वर की उपासना की विधि सिखायें। वैदिक धर्म व संस्कृति के अनुयायी सभी मनुष्य समान है, सबका आदर करें, सबके सहयेगी रहें और सबके सुख-दुःख में सहभागी हों। कमजोरों व रोगादि से ग्रस्त लोगों को दूसरों की सहानुभूति व सहयोग की आवश्यकता होती है। इसके लिए भी हमें अपने जीवन में से कुछ समय देना चाहिये। पात्र लोगों की धन से सहायता से भी उनको लाभ होता है और सच्ची मौखिक सहानुभूति भी त्रस्त व्यक्ति को सुख व शान्ति प्रदान करती है। अतः हमें इसका भी ध्यान रखना है लोगों की यथाशक्ति सहायता करनी है। हमें अपनी सोच को भी विकसित कर उसे सकारात्मक बनाना है। हम सत्पथ पर चलें। दूसरे क्या सोचते हैं इसकी चिन्ता हमें नहीं करनी है। महर्षि दयानन्द और उनके प्रमुख अनुयायियों का जीवन आदर्श जीवन रहा है। हमें उन सब के जीवनों का अध्ययन कर स्वयं को भी उनके अनुकूल व्यवहार व आचरण वाला बनाने का प्रयत्न करना चाहिये।
हमारा भोजन सात्विक एवं बलदायक होना चाहिये। हम प्रातः ब्रह्म मुर्हुत में जागने का अभ्यास करें। प्रातः उठकर सबसे पूर्व ईश्वर चिन्तन, मंत्रपाठ और प्रणव जप आदि करें। योग, ध्यान और आसन आदि भी करें। वायु सेवन करने जायें और वैदिक मर्यादाओं का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करें। हमें सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का व्यवहार करना है। गाय, भैंस, घोड़ा, भेड़ व वकरी आदि पशुओं में भी हमारे समान आत्मायें हैं। हमें उनको किंचित भी दुःख नहीं देना है। हम समझते हैं कि यदि हम ऐसा करते हैं तो निश्चय ही हमारा जीवन सुख का धाम होगा। अन्य लोग भी हमारे सम्पर्क में आकर हमारी जीवन शैली को अपनायेंगे। हमारी वाणी व साहित्य के प्रचार से दूसरों पर इतना प्रभाव नहीं होता जितना कि हमारे गुण, कर्म व स्वभाव एवं आचरण से होता है। हम समझते हैं कि हमारे पाठक मित्र इन सभी बातों को बहुत अच्छी प्रकार से जानते हैं और इनका पालन भी करते हैं। इस विषय में कई मित्रों का ज्ञान हमसे कहीं अधिक हो सकता है। फिर भी हमने इस विषय में विचार किया है और यह संक्षिप्त चर्चा आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं।