जब कश्मीर के राजा जशरथ ने बढ़ाया भारत का ‘यश’ रथ

राकेश कुमार आर्य

संसार एक सागर है

संसार एक सागर है, जिसमें अनंत लहरें उठती रहती हैं। ये लहरें कितने ही लोगों के लिए काल बन जाती हैं, तो कुछ ऐसे शूरवीर भी होते हैं जो इन लहरों से ही खेलते हैं और खेलते-खेलते लहरों को अपनी स्वर लहरियों पर नचाने भी लगते हैं। ऐसा संयोग इतिहास के दुर्लभतम क्षणों में ही देखने को मिलता है।

कुल लोग काल के सांचे बदल देते हैं

कुछ लोग मिट्टी में से उठते हैं, और मिट्टी में ही मिल जाते हैं, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो मिट्टी को सोना बना  देते हैं और उसे इतिहास में गौरव का स्थान दिलाने में सफल हो जाते हैं। कुछ लोग काल के सांचे में ढल जाते हैं, तो कुछ काल के सांचों को ही बदल जाते हैं।

हिन्दुस्थान की गक्खर जाति

भारत का इतिहास ऐसे योद्घाओं की आरतियों से और यशकीर्तियों से भरा पड़ा है, जिन्होंने भारत के इतिहास को नई गति और नई ऊर्जा से नई दिशा दी। बात हिन्दुस्थान की गक्खर जाति की करें तो इसने ऐसे कितने ही अमूल्य हीरे हमें दिये हैं जिन्होंने अपनी चमक से भारतीय इतिहास के पन्नों पर इतना तीव्र प्रकाश उत्कीर्ण किया कि जहां-जहां तक वह प्रकाश गया वहां-वहां तक इतिहास का एक-एक अक्षर स्वर्णिम हो गया।

जशरथ का गर्व और गौरव

मुबारिकशाह जब सैयद वंश का सुल्तान बनकर दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तो उस समय गक्खर जाति ने एक ऐसा ही हीरा हमें प्रदान किया। पी.एन. ओक महोदय की ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’, भाग-1 नामक पुस्तक में इस वीर गक्खर हिन्दू योद्घा का नाम हमें जशरथ के नाम से बताया गया है। जिसका इतिहास और जीवन दोनों ही गर्व और गौरव की अनुभूति कराते हैं। वीर जशरथ ने साहस किया और अपने आपको कश्मीर का राजा कहलाना आरंभ कर दिया। उस समय एक साधारण व्यक्ति स्वयं को राजा कहलाने का दुस्साहस करे, इससे बड़ा ‘पाप’ कोई नही हो सकता था। मुस्लिम सुल्तानों की दृष्टि में ये सीधे-सीधे राष्ट्रद्रोह था। पर यह भी सच है कि इतिहास तभी बना करता है, जब प्रचलित प्रदूषित व्यवस्था को चुनौती देने का ‘दुस्साहस’ किया जाता है। भारतीयों ने यह प्रण कर लिया था कि जब तक यह प्रचलित अमानवीय राज्यव्यवस्था समाप्त नही हो जाती है, तब तक वे दुस्साहस करने का पुण्य कमाते रहेंगे।

दिल्ली सल्तनत को ललकारा

कश्मीर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले हिंदू वीर जशरथ ने दिल्ली सल्तनत को ललकारा। मां भारती के इस सच्चे सपूत की ललकार को सुनकर दिल्ली सल्तनत ने उससे निपटने का प्रबंध करना आरंभ किया।

राजा जशरथ ने बड़ी सावधानी से अपनी योजना बनायी। उसकी योजना की रूपरेखा आप देखेंगे,  तो आपको इतिहास बल्लियों उछलता दिखाई देगा। जशरथ ने खिज्र खां की मृत्यु का समाचार पाकर सतलज व व्यास नदी पार की और अपनी सेना सहित वहां के उन धर्मांतरित हिंदुओं (हिंदू से मुसलमान बने लोग) पर टूट पड़ा जो मुस्लिम सुल्तानों की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए हिंदुओं पर बड़े अमानवीय अत्याचार ढहाया करते थे। जशरथ अपने ही लोगों का साथ छोडक़र गये इन देश द्रोहियों को उनके अत्याचारों का फल देना चाहता था। इसलिए उसने इनका सफाया करना आरंभ कर दिया। इसे ही इतिहास कहते हैं, क्योंकि इस मानसिकता के पीछे राष्ट्र और धर्म की एक पवित्र भावना है, देशद्रोहियों के प्रति घृणा है, और प्रचलित अमानवीय राज्यव्यवस्था के विरूद्घ एक विद्रोह है। कुल मिलाकर एक राष्ट्रीय दृष्टकोण है, जो नये भारत का सपना लेकर युद्घ भूमि में उतरा  और अपने शौर्य से एक नया भारत बना देना चाहता था। ऐसा भारत जिसमें प्रजा के साथ सम्प्रदाय के आधार पर कोई अन्याय ना हो, अत्याचार ना हो, पापाचार या अनाचार न हो। जब राजा जशरथ इस राष्ट्रीय संकल्प के साथ पंजाब में आतताइयों का सफाया करने लगा तो धर्मांतरित हिंदू तलवण्जी के राय कुमालुद्दीन और राय फिरोज के साथ मैदान छोड़ छोडक़र भागने लगे।

जिरक खान ने किया समर्पण

जालंधर दुर्ग का स्वामी उस समय जिरक खां था, उसने राजा जशरथ के सामने तुरंत समर्पण कर दिया और जालंधर दुर्ग की कुंजी राजा को सौंपकर अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। परंतु जिरक खां ने राजा जशरथ के सहायक तुघन राय के पुत्र का अपहरण कर उसे दिल्ली ले जाने की योजना बनायी। जब उसकी इस योजना की जानकारी राजा जशरथ को हुई तो उसने जिरक खां को कैद करा लिया और लुधियाना की ओर प्रस्थान किया।

लुधियाना का मुस्लिम शासक हो गया भयभीत

लुधियाना का शासक उस समय सुल्तान शाह लोदी था। उसे जैसे ही जशरथ शाह के लुधियाना आने का सामाचार मिला  तो वह भयभीत हो उठा। उसे लग रहा था कि अब साक्षात महाकाल के दर्शन होने वाले हैं, और उसका जीवन अब अधिक दिनों का नही रह गया है।

अत: भयभीत सुल्तान शाह ने दिल्ली के सुल्तान मुबारकशाह से अपनी सहायता की अपील की।

मुबारकशाह भी  घबरा उठा था

मुबारकशाह चारों ओर सल्तनत में मचे हिंदू स्वातंत्रय आंदोलनों, अभियानों और विद्रोहों से पहले ही दु:खी था। पर वह जानता था कि यदि कश्मीर की सुंदर वादियों से वर यात्रा लेकर निकले मां भारती के सपूत राजा जशरथ को  उसी की सीमाओं तक नही रोका गया तो वह बहुत शीघ्र ही दिल्ली के राज्य सिंहासन पर भी अपना नियंत्रण कर लेगा। अत: अपने सम्मान और राज्य को सुरक्षित रखने के लिए मुबारकशाह ने 1421 ई. में दिल्ली से पंजाब के लिए प्रस्थान कर दिया। उसका उद्देश्य राजा जशरथ के यश रूपी  रथ को कश्मीर तक सीमित रखना या पूर्णत: समाप्त कर देना था।

लुधियाना के समीप हुआ संघर्ष

लुधियाना के समीप दोनों पक्षों में भयंकर युद्घ के लिए अपनी पूरी -पूरी योजना और व्यूह रचना के साथ दोनों ओर की सेनाएं नदी के आरपार खड़ी थीं। जशरथ ने अपनी व्यूह रचना के अंतर्गत शत्रु सेना को नदी पार न करने देने की योजना बनाई। इसके लिए राजा ने नदी के पास स्थित जितनी भी नौकाएं थीं, उन सबको अपने अधिकार में कर लिया। राजा की यह योजना सफल भी रही, फलस्वरूप मुबारकशाह और उसकी सेना को नदी पार कर जशरथ की सेना से भिडऩे के लिए एक भी नाव नही मिली।

जम्मू के हिंदू शासक की दोगली नीति

जम्मू का शासक रायभीम मुस्लिम सेना के अत्याचारों से भयभीत हो गया, इसलिए उसने मुबारिक शाह की सेना का पथ प्रदर्शक बनना स्वीकार कर लिया। हो सकता है उसके भय के पीछे एक कारण यह भी हो कि यदि जशरथ को नही रोका गया तो वह एक दिन उसके राज्य का भी नाश कर देगा।

कुछ भी हो वीर वही होता है जिसे घेरने की सभी मिलकर योजनाएं बनाएं, षडयंत्र रचें, और जिसका उत्थान अनेकों लोगों के लिए ईष्र्या का कारण बन जाए, परंतु उसके उपरांत भी जिसका विजयरथ रोके से भी ना रूके।

राजा जशरथ के साथ यही हुआ, उसके गढ़ टेखर को शत्रु सेना जीत नही सकी, उसके साहस को और स्वाभिमान को शत्रु सेना झुका नही सकी। उसके शौर्य को कोसती हुई शत्रु सेना ने आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू लोगों को मारा-काटा और लूटमार करके लाहौर लौट गयी।

याहिया का कथन है…..

याहिया हमें बताता है-‘‘1421 ई. के लाहौर दिसंबर माह में सुल्तान ने बरबाद लाहौर में प्रवेश किया। इसमें उल्लुओं के अतिरिक्त अन्य कोई जीवित नही था। सुल्तान किले और दरवाजों की मरम्मत कराते हुए एक माह तक यहां रहा।’’

जशरथ ने किया लाहौर तक पीछा

मुबारकशाह ने सोचा होगा कि ‘उल्लुओं’ का निवास स्थल बन चुके नष्टभ्रष्ट लाहौर शहर में संभवत: वह कुछ समय सुखपूर्वक जीवन यापन कर ले और स्वयं को मुबारिक (धन्य) मानकर जशरथ का ‘उल्लू बनाने’ में भी सफल हो जाए। परंतु उसकी योजना पर शीघ्र ही पानी फिर गया। जशरथ ने अपने शत्रु का पता कर लिया था कि वह हिंदू समाज पर अत्याचार करके किधर भागा है? इसलिए वह अपनी सेना सहित शत्रु का पीछा करता हुआ लाहौर आ पहुंचा।

कलानौर में हुआ संघर्ष

अब तो मुबारकशाह भयभीत हो उठा। इसके लिए एक अच्छी सूचना यह थी कि रायभीम अभी भी हिंदू वीर राजा जशरथ का सामना करने के लिए लाहौर में उपस्थित था। उस देशघाती भीम का ना तो देश प्रेम जाग्रत हुआ और ना ही अपने सजातीय भाई राजा जशरथ के धर्मपे्रम को देखकर उसका हृदय द्रवित हुआ। वह निरंतर अपने सजातीय भाई राजा जशरथ को हानि पहुंचाने के लिए उसकी सेना से संघर्ष करता रहा।  कलानौर में रायभीम और राजा जशरथ की सेना के मध्य संघर्ष हुआ। इतिहासकार लिखता है कि दोनों के मध्य जशरथ अडिग और अजेय खड़ा था। भीम (निर्णायक रूप से) पराजित हुआ सुल्तान (मुबारक शाह) चुपके से दिल्ली भाग गया।

हिन्दुत्व का प्रशंसनीय अथाहरूप

राजा जशरथ के देशभक्ति पूर्ण कार्य को देखकर स्वातंत्रय वीर सावरकर का यह कथन उचित ही प्रतीत होता है-‘‘सुनिश्चित तथ्य है कि जब कभी हिंदू उस अवस्था को प्राप्त करेंगे, जब संसार को उनका आदेश सुनना पड़ेगा, तब हिंदू जाति का वह आदेश गीता के आदेशों से भिन्न नही होगा। जब कोई हिंदू हिन्दूत्वातीत हो जाता है, और उसका हिन्दुत्व अथाह रूप ग्रहण कर लेता है, तो भगवान शंकराचार्य के समान वाराणसी मेदिनी कहकर समग्र भूमंडल में वह अपनी काशी का विस्तार देखने लगता है, अथवा संत तुकाराम के स्वर में स्वर मिलाकर गाने लगता है-‘आमुचा स्वदेश भुवन त्रयामध्येवास’-मेरा स्वदेश समग्र पृथ्वी की चतु: सीमा में व्याप्त है, वही चतु:सीमा मेरे स्वदेश की सीमा है।’’

(संदर्भ: हिंदुत्व पृष्ठ 172)

हमने जशरथ के साथ किया अन्याय

हमने राजा जशरथ के शौर्य को वीरता को, उसकी देशभक्ति को दासता की राख के नीचे दबा दिया। झूठा और भ्रामक इतिहास उसे आज तक देशद्रोही मानता है, क्योंकि वह स्वयं देशद्रोहियों द्वारा लिखा गया है। हमें पुन: क्रांतिवीर सावरकर के इन शब्दों पर ध्यान देना चाहिए-‘‘हिंदुस्तान राष्ट्र निरंतर किसी न किसी विदेशी सत्ता के अधीन बना रहा तथा हिंदुस्थान का इतिहास मानो हिंदुओं के सतत पराभव की ही एक गाथा है। इस प्रकार का सरासर झूठा, अपमान जनक और कुटिलता से किया गया प्रचार चालू सिक्कों की तरह न केवल विदेशियों के द्वारा अपितु स्वबंधुओं के द्वारा भी बेरोक टोक वयवहृत किया जा रहा है। इस असत्य प्रचार का प्रतिकार करना न केवल राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए आवश्यक है, अपितु ऐतिहासिक सत्य के उद्घाटन की दृष्टि से भी ऐसा किया जाना वांछनीय है। आज तक इस दिशा में जो इतिहासज्ञ प्रयत्नशील रहे हैं, उनके सत्प्रयासों में सहायक बनना और उनके प्रचार को अधिक तीव्रता प्रदान करना एक राष्ट्रीय कत्र्तव्य है।

जिन जिन विदेशी शक्तियों ने भारत पर आक्रमण किया, अथवा अपना राज्य प्रस्थापित किया, उन सभी विदेशी शासकों का पराभव कर हिंदू राष्ट्र को जिन्होंने स्वाधीनता प्रदान की, उन सभी वीरों, राष्ट्रोद्वारकों उन युग प्रवर्तक पराक्रमी महापुरूषों का ऐतिहासिक चित्रण करने का निश्चय मैंने किया है।’’

(संदर्भ: भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ पृष्ठ 4)

राजा जशरथ को मिले सम्मान

राजा जशरथ को हमें अपने उन्हीं वीरों, राष्ट्रोद्वारकों युग प्रवर्तक पराक्रमी महापुरूषों की श्रेणी में ही सम्मिलित करना चाहिए जिनके शौर्य और साहस के कारण  उस समय हमारा धर्म सुरक्षित रहा और देश की स्वतंत्रता को भी सुरक्षित रखने में उल्लेखनीय सफलता मिली।

मुबारकशाह ने बनाई हिंदू दलन  की नई नीति

मुबारकशाह को अपने शासन काल में हिंदू शक्ति ने एक दिन भी सुखपूर्वक शासन नही करने दिया था। उसे हर दिन कहीं न कहीं से चुनौती मिलती रही, इसलिए उसे कई सैन्य अभियान चलाने पड़े। जिससे उसका राजकोष रिक्त हो गया। फलस्वरूप मुबारकशाह ने अपने रिक्त राजकोश को भरने के लिए हिंदू दलन की नई योजना पर कार्य करना आरंभ किया। उसने हिंदू क्षेत्रों की लूट के लिए उन पर प्रतिवर्ष हमला करने की योजना बनायी।

समकालीन मुस्लिम इतिहासकार याहिया लिखता है:-‘‘1421 ई. में सुल्तान ने गंगा नदी पार राठौरों के प्रदेश पर हमला कर दिया और बहुत से हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया।’’

जशरथ को किया गया नेता स्वीकार

डा. पी.एन. ओक कहते हैं-‘‘इसके पश्चात जशरथ ने भी मुस्लिम हमलावरों के हिंदू सहायक भीम का हिसाब बराबर कर दिया। भीम की हिंदू सेना ने अपने हिंदुत्व के द्रोही चीफ की मृत्यु से मुक्ति की सांस ली। उसने वीर हिंदू जशरथ को अपना नेता स्वीकार कर लिया। उस काले काल में जब मुस्लिम सेनाओं के जत्थे हिंदुत्व को निगलने की तैयारी कर रहे थे, तब हिंदू शौर्य से भरपूर जशरथ सूर्य की भांति चमका था। उसकी कूटनीति एवं रणचातुरी ने हिंदुत्व को विजय का महानमार्ग दिखाया है। कृतज्ञ वंशजों को उसकी याद सदा ताजा रखनी चाहिए।’’

काश! ये जयचंद ना होते

जैसे जशरथ के साथ यदि भीम अपनी शक्ति मिला देता तो जो स्वतंत्रता हमें 1947 ई. में मिली थी, वह 1425 ई. तक ही मिल गयी होती। परंतु दुर्भाग्य रहा इस देश का कि जब-जब यहां ‘पृथ्वीराज’ उत्पन्न हुए तभी कहीं न कहीं, कोई न कोई जयचंद भी उत्पन्न हो गया। जिससे हमारी पारस्परिक एकता की भावना को गहरी क्षति पहुंची।

फूट उभर कर ऊपर आयी

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी अपने ‘जयसोमनाथ’ नामक उपन्यास में लिखते हैं-‘‘जब गजनी का अमीर सोमनाथ पर चढ़ाई करने चला तब उसे खबर मिली कि झालोर के राजा वाक्यपति राज अगर मित्र न बनाये गये तो वे अमीर की सेना को काफी कष्ट दे सकते हैं। अमीर ने मुलतान के अजयपाल को अपना दूत बनाकर वाक्यपति राज के यहां भेजा और उन्हें आश्वासन दिया कि अमीर उनके राज्य पर चढ़ाई करना चाहता है।  वाक्यपतिराज अमीर की बात मान गये और लड़ाई में तटस्थ रहने का उन्होंने वचन भेज दिया। इसके पश्चात जब यह निश्चय हुआ कि वल्लभी के राजा भीमदेव के नेतृत्व में राजपूत वीर अमीर का डटकर सामना करेंगे और सोमनाथ के मंदिर को भ्रष्ट नही होने देंगे, तब भीमदेव ने अपने मंत्री को वाक्यपतिराज के यहां सहायता की मांग के लिए भेजा। सोमनाथ मंदिर की रक्षा के लिए सहायता की मांग की जाने पर वाक्यपतिराज ने कहा अभी पारसाल की ही बात है कि मैं मारवाह पर चढ़ाई करना चाहता था, और उसके लिए मैंने भीमदेव से सहायता मांगी थी, किंतु भीमदेव ने यह कहकर सहायता देने से इनकार कर दिया कि मारवाड़ उसका नातेदार है। आज मुझसे वह सहायता क्यों मांगता है? अपनी विपद वह आप ही झेलें।’’

ऐसी सोच हमारी पारस्परिक फूट को और उससे भी अधिक हमारे भीतर व्याप्त छोटी-छोटी बातों पर उपजे कलह-कटुता के बीजों को दर्शाती है, जिससे यहां ‘जयचंदी परंपरा’ में ‘भीम’ उत्पन्न होते रहे। परंतु सुखद बात ये है कि ‘जयचंदी परंपरा’ के चलते रहने के उपरांत भी यहां वर्चस्व पृथ्वीराज की देशभक्ति पूर्ण परंपरा का ही रहा।

हिंदुओं को शाह से मुक्ति मिलने का मार्ग हुआ प्रशस्त

जन्म के साथ मृत्यु का शाश्वत संबंध है। शुभकर्मों में रत जीवन का यहां सम्मान होता है और लोग उस जीवन के अंत पर आंसू बहाते हैं। परंतु दुष्कर्मों, अत्याचारों और पापाचारों में रत जीवन पर लोग प्रसन्नता व्यक्त किया करते हैं। मुबारकशाह का जीवन अपनी हिंदू प्रजा के लिए कष्टकारक ही था। उसके शासन काल तक सल्तनत अत्यंत दुर्बल हो चुकी थी और सुल्तान की स्थिति भी दयनीय बन चुकी थी। हिंदू शक्ति निरंतर स्वतंत्र हो रही थी और बलवती होकर सुल्तान और सल्तनत का भरपूर विरोध और प्रतिरोध कर रही थी।

हिन्दू वीरों ने ही दिलाई मुक्ति

ऐसी परिस्थितियों में सुल्तान ने सरवरूलमुल्क के दीवाने विजारत का कुछ कार्य एवं अधिकार कमालुलमुल्क को हस्तांतरित कर दिया। इस कृत्य से सरवरूलमुल्क अप्रसन्न हुआ और वह सुल्तान से प्रतिशोध लेने की प्रतीक्षा करने लगा। यह घटना 1423 ई. की है। तब उसने अपने प्रभाव में वृद्घि करते हुए कुछ मुस्लिम अमीरों को और सुधारन, कांगू, सिद्घपाल और रानू जैसे कुछ हिंदू रायों को अपने साथ मिला लिया। इन सभी ने मिलकर अपने गुट का प्रभाव बढ़ाने के नाम पर सुल्तान मुबारकशाह की हत्या का षडयंत्र रचा। अंत में वह घड़ी आ ही गयी। 19 फरवरी 1434 ई. को यमुना तट पर बसाये जा रहे मुबारकाबाद शहर का निरीक्षण सुल्तान कर रहा था, उसी समय सुधारन, सिद्घपाल, रानू ने अपने सहायकों सहित मीरानेसदर की सहायता से सुल्तान की हत्या कर दी।

(संदर्भ : ‘तारीखे मुबारकशाही’ पृष्ठ 237)

हिन्दू शक्ति में हुई वृद्घि

इस प्रकार हिंदुओं को मुबारकशाह से मुक्ति मिल गयी। इसके पश्चात दिल्ली दरबार में हिंदुओं की शक्ति में वृद्घि हो गयी। उनका हस्तक्षेप दिल्ली दरबार की राजनीति में बढ़ गया और सुल्तान बनाने में भी उन्होंने बढ़ चढक़र भाग लेना आरंभ कर दिया।

खिज्र खां को बनाया  सुल्तान

मुबारकशाह की हत्या के पश्चात सुधारन, सिद्घपाल आदि ने मुहम्मद शाह बिन फरीदशाह बिन खिज्र खां को सुल्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सुल्तान ने भी हिंदू रायों को बयाना अमरोहा, नारनोल, कुहराम तथा दोआब के कुछ परगने उपहार स्वरूप प्रदान कर दिये।

काश! उस समय हम किसी मुस्लिम को दिल्ली का सुल्तान न बनाकर स्वयं दिल्ली सम्राट बनने की योग्यता रख रहे होते, तो क्या ही अच्छा होता?

रानू का कर दिया गया सफाया

दिल्ली दरबार में अपने वर्चस्व और प्रभुत्व में वृद्घि से उत्साहित होकर सिद्घपाल ने रानू को बयाना पर अधिकार करने के लिए भेजा। रानू सिद्घपाल के आदेशानुसार बयाना सेना लेकर पहुंच गया। वहां उसने बयाना के दुर्ग पर अधिकार स्थापित करने का प्रयास किया। परंतु वहां युसूफ खां औहदी ने भारी सेना के साथ रानू का सामना किया। रानू को मुस्लिम सेना के इतने भारी प्रतिरोध की प्रत्याशा नही थी, इसलिए वह मैदान से भाग गया। इस्लामी सेना ने रानू की सेना का सफाया कर दिया। रानू के परिवार की स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।

सल्तनत रह गयी  देहली से पालम तक

सल्तनत ऐसी परिस्थितियों में निरंतर दुर्बल होती जा रही थी। सरवरूलमुल्क और उसके गुट का भी शीघ्र ही अंत हो गया। यह सत्य है कि इस संक्रमण काल में हिंदू भी अपनी शक्ति प्रभुत्व का पर्याप्त लाभ लेने में असमर्थ रहे थे। परंतु ‘तारीखे दाउदी’ के लेखक अब्दुल्लाह ने पृष्ठ 7 पर लिखा है कि-‘‘सुल्तान अलाउद्दीन (तत्कालीन सुल्तान) का राज्य  देहली से पालम तक है। उसके शब्द हैं कि संसार के बादशाह का राज्य देहली से पालम तक है।’’

लोदी वंश की हुई स्थापना

1448-49 ई. में सुल्तान अलाउद्दीन राजधानी छोडक़र बदायूं चला गया और शेष दिन उसी स्थान पर उसने निवास किया। दिल्ली को लावारिस देखकर लाहौर के राज्यपाल बहलोल लोदी ने 19 अप्रैल 1451 ई. को उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। अभी हम अगले अध्याय में उन प्रांतों की स्थिति पर विचार करेंगे। जिन्होंने प्रतिरोध की नीति अपनाकर सैयद वंश के काल में अपने को या तो स्वतंत्र घोषित किया या घोषित करने का प्रयास अथवा जो अपने स्वाधीनता को किसी भी प्रकार से बचाये रखने में सफल सिद्घ हुए। उसके पश्चात ‘लोदी वंश’ पर लिखा जाएगा।

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