जब महावीर हनुमान ने सीता,लक्ष्‍मण,भरत के प्राणों की रक्षा की

       गोस्‍वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरित्र मानस रामायण में महावीर हनुमान के अनेक स्‍वरूप के दर्शन होते हैं। जहॉ मारूति, आंजनेय,बजरंगवली, महावीर,हनुमान  जैसे अनेक नामों से वे विख्‍यात हुये वही शिवजी के 11 वे रूद्र का अवतार होने से वे सबसे बलवान और बुद्धिमान भी है और उनके पराक्रम एवं चार्तुय से ही सुग्रीव, माता सीता, लक्ष्‍मण एवं भरत के प्राणों पर आये संकट से को दूर कर उन्‍हें जीवनदान हनुमान आज अजर अमर हो गये। हनुमान सुग्रीव के परमहितैषी व सेवापात्र के रूप में दिखाई देते हैं । सीता की खोज में ऋष्‍यमूक पर्वत की ओर कदम बढ़ा रहे प्रभु श्रीराम और लक्ष्‍मण के समक्ष ब्राम्‍हण भेष में पहुंचकर हनुमानजी अपने प्रभ से परिचय मॉगते हैं। जब राम द्वारा कौशलाधीश दशरथ के पुत्र के रूप में अपना नाम राम लक्ष्‍मण तथा दोनों सगे भाई होने का परिचय बताने तथा पिता के वचन से वनगमन एवं सीता को राक्षस द्वारा हरण के बाद उन्‍हें तलाशने निकलने की बात की जाती है तब हनुमान अपना परिचय उनके सेवक के रूप में देकर उनके चरणों में साष्‍टांग दण्‍डवत करते हैं तब प्रभु श्रीराम उन्‍हें अपने कण्‍ठ से लगा लेते हैं। हनुमान उन्‍हें सुग्रीव से मिलाते है और सुग्रीव के बड़े भाई बालि से उनकी शत्रुता को समझ सुग्रीव को अपना मित्र बनाकर बालि को मारकर सुग्रीव को राजपाट दिलाते हैं। इधर वर्षा ऋतु बीतने के बाद शरद ऋतु का आगमन हो जाता है लेकिन सुग्रीव सीता की खोज से बेखबर राजसुख में ढूबा रहता है तब सुन्‍दरकाण्‍ड में गोस्‍वामी जी प्रभु श्रीराम की नाराजगी को यूं व्‍यक्‍त करते हैं –

         सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी।।

      जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली।।

राम कहते है कि सुग्रीव मुझे भूल गया है और राजपाट में खो गया है, पहले विश्‍वास दिलाया था कि सीता को एक पल में खोज लाउंगा पर अपना वचन भूल गया। क्रोध में श्रीराम कहते हैं कि जिस बाण से मैंने बालि को मारा है उसी बाण से क्‍या इस मूर्ख सुग्रीव को मारूं। उनके दुख को समझकर क्रोधित राम की ओर देखकर लक्ष्‍मण ने धनुष चढ़ाकर हाथ में बाण ले लिया’-

        लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना।।

      तब अनुजहि समुझावा,रघुपति करूणा सींव

      भय देखाई लै आवहु, तात सखा सुग्रीव।

        रामजी के समझाने पर नाराज लक्ष्‍मण किष्किन्‍धा में जाते है तब हनुमान ही है जो लक्ष्‍मण के क्रोध से बचाने के लिये सुग्रीव के प्राणों पर आये संकट से उबारने पहुंचे हैं जिसे तुलसीदास जी ने अभिव्‍यक्‍त किया है-

        धनुष चढ़ाई कहा तब, जारि करऊ पुर छार

      ब्‍याकुल नगर देखि तब, आयउ बालिकुमार।

      सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना।।

      अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा।।

              लक्ष्‍मण द्वारा नगर जलाकर भस्‍म कर देने की बात किये जाने से पुरवासी व्‍याकुल हो जाते हैं जिनके कष्‍ट को समझते हुये अंगद लक्ष्‍मण से विनती करते हैं और हनुमान के आग्रह को मानकर सुग्रीव ने लक्ष्‍मण के प्रकोप से अपने प्राणों की रक्षा के लिये आतुरभाव से कामना की तब लक्ष्‍मण ने उन्‍हें अभय दान दिया । सुग्रीव ने दक्षिण दिशा की ओर नल,नील,अंगद,हनुमान जामवंत जैसे योद्धाओं को कूच किया। अंत में हनुमानजी प्रभु श्रीराम के समक्ष मस्‍तक नवाकर कर आज्ञा लेने पहुंचे तब प्रभु श्रीराम ने निकट बुलाकर अपने करकमल उनके शीश पर रखकर उन्‍हें अंगूठी दी और कहा कि सीता को भली-भॉति समझाकर मेरा विरह और प्रीति को बतलाकर लौट आना। इस प्रसंग में हनुमानजी सेवक-भाव का पालन कर प्रभु के प्रकोप से सुग्रीव के प्राणों की रक्षा करने में सफल होते है और सीता की खोज के लिये रणनीति बनाकर चारों दिशाओं में वानर सेना भेजी जाती है।

               हनुमानजी अशोक वाटिका में उस वृक्ष की ओट में छिपकर बैठ जाते है जिसके नीचे सीता विराजमान है तभी रावण मन्‍दोदरि आदि रानियों के साथ सीता को नाना प्रकार से डरा धमकाकर एक माह की अवधि में अपनी बात न मानने पर तलवार से मारने की धमकी देता है। चूंकि माता सीता उससे भयभीत न होकर एक तिनके की ओट लेकर अवधपति राम को याद करके रावण को धिक्‍कारती है कि हे अधम तुझे लाज नहीं आयी और मुझे सूने में हर लाया। रावण त्रिजटा आदि राक्षसियों को आदेश देता है कि सीता को इतने कष्‍ट दो कि वह मेरी बात मान ले-

        तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा।।

      बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।।

      तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।।

      अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।

      सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।।

      रावण सीता के द्वारा अपमानित किये जाने के बाद खिसियाकर क्रोध से भर जाता है और कहता है कि सीता, तूने मेरा अपमान किया है, तेरा सिर इस पैनी तलवार से काटता हूं , नहीं तो जल्‍दी से मेरी बात मान ले ,नहीं मानेगी तो जीवनभर पछतायेंगी-

        सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।

      नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी।।

      प्रभु श्रीराम के विरह में डूबी सीता ने रावण के हाथ में रखी हुई चन्‍द्रहास तलवार से कहा कि तू मेरे कष्‍ट दूर कर और मेरे प्राणों को हर ले –

        चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं।।

      सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा।।

      मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।

        रावण के घर चले जाने के बाद सीता के मन में विचार आया कि एक माह बाद यह नीच रावण मुझे मार डालेगा तब वह त्रिजटा से बोली कि हे माता तुम दुख में मेरा साथ देने वाली हो, ऐसा कोई उपाय करो जिससे मैं अपना शरीर छोड़ दूं। यह दुसह विरह अब सहा नहीं जाता है। रावण के शूल समान वचनों से आहत सीता त्रिजटा से लकडि़यों की चिता बनाने का आग्रह करती है लेकिन त्रिजटा रात में अग्नि न मिलने की बात कहकर अपने घर चली जाती है-

        तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।।

      आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।।

      सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी।।

      सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।

      निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी।।

        सीता तब आकाश में चन्‍द्रमा को अग्निमय जानकर आग बरसाने की विनती करती है, अशोक से अपने शोक दूर करने के लिये प्रार्थना करती है और कहती है कि अशोक के पत्‍ते आग समान लाल है, अग्नि देकर मेरे दुख दूर कर सकते है। सीता को अत्‍यन्‍त व्‍याकुल देख तब हनुमानजी अशोक वृक्ष से अंगूठी  गिरा देते है सीता जी प्रसन्‍न हो उठती है कि अशोक ने अंगार के रूप में उनकी बात सुन ली, लेकिन जैसे ही उसमें रामनाम अंकित देखती है तब पहचान कर हर्षित और चकित होकर व्‍याकुल हो उठती है कि प्रभु श्रीराम तो अजय है और ऐसी अंगूठी माया से बनायी नहीं जा सकती तब किसने उसे भेजा  तभी हनुमान जी प्रभु श्रीराम का गुणगान करने लगे जिससे सीता के दुख दूर हो गये-

        देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता।।

       तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।

       चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी।।

       जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई।।

       सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।

       रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।

        रावण द्वारा दिये जाने वाले संताप से जब सीता ने मृत्‍यु का आलिंगन करने की तीव्र इच्‍छा की तब ऐसे नाजुक समय में हनुमान ने उनके प्राणों की रक्षा कर उन्‍हें प्रभु श्रीराम से वानरों की मित्रता होने कि कथा सुनाई और विश्‍वास व्‍यक्‍त किया कि जल्‍द ही रावण वध कर आपको ससम्‍मान ले जायेंगे। हनुमान की बात सुनकर सीताजी जो अपने प्राण त्‍यागने को तत्‍पर थी,उनके सारे दुख भाग गये, इस प्रकार सीता से वात्‍सल्‍य पाकर हनुमानजी ने उनके प्राणों की रक्षा की।

        लंका में युद्ध के दौरान लक्ष्‍मण का रावण के पुत्र मेघनाथ से सामना होता है और पहली बार मेघनाथ शिकस्‍त खाकर लौट जाता है लेकिन दूसरी बार पूरी ताकत जुटाकर युद्ध के लिये लक्ष्‍मण को ललकारता है और लक्ष्‍मण पर वीरघातिनी शक्ति का प्रयोग करता है और लक्ष्‍मण अचेत हो जाते हैं-

        बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेज पुंज लछिमन उर लागी।।

      मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें।।

लक्ष्‍मण को वीरघातिनी शक्ति से मूर्छित हुआ देख राम दुखी हो जाते हैं और जामवंत के बताने पर लंका के वैद्य सुषेन को भवन सहित उठा लाते हैं। वैद्य के बताने पर हनुमानजी हिमालय की ओर म़ृतसंजीवनी वूटी लेने पहुंचते है जो सूर्योदय से पूर्व लाने से ही लक्ष्‍मण के प्राण बचाये जा सकते हैं। रावण कालनेमि से हनुमान का रास्‍ता रूकवाता है फिर बूटी की समझ न आने पर पहाड़ सहित राम का नाम लेकर चलते हैं। इधर अयोध्‍या में भरत की सजगता का उदाहरण मिलता है और वे रात मे आकाश से हनुमान को पहाड़ ले जाते देख किसी आशंका से बिना फर के बाण मारते हैं और हनुमान अयोध्‍या में मूछित होकर गिर जाते हैं-

        गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ। अवधपुरी उपर कपि गयऊ।।

      दो0-देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।

      बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि।।58।।

       हनुमान मूर्छा से जागने के बाद भरत को पूरा दृष्‍टांत सुनाते हैं और भरत दुखी होकर पछतावा कर हनुमान से कहते हैं कि तुम मेरे बाण पर पहाड़ सहित चढ़ जाओ मैं प्रात: होने से पहले तुम्‍हें लंका पहुंचा दूंगा। हनुमान भरत के प्रस्ताव की वंदना कर इजाजत मॉगते हैं।

        यहॉ लंका में हनुमान की प्रतीक्षा में राम मूर्छित लक्ष्‍मण के मुख को बार बार देखकर अपने ह़दय से लगाकर दुख व्‍यक्‍त करते हैं और कहते हैं अगर मुझे पता होता कि हमारा विछोह होना है तो मैं पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता’—

      उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी।।

      अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ।।

      सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।

      जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।

      सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।

      अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।

        राम के लिये यह रात्रि सबसे भयाभय रही जिसमें उन्‍होंने अपने भ्राता लक्ष्‍मण के प्रति जो प्रेम प्रगट किया है जगत में ऐसा उदाहरण दूसरा नहीं है। राम के लिये यह भीषण दुख असहनीय रहा वही लक्ष्‍मण के प्राणों का संकट बरकरार था ऐसे में राम के समक्ष हनुमान मृत-संजीवनी बूटी के रूप में लक्ष्‍मण के प्राणों को बचाकर राम सहित पूरी सेना को हर्षित करते हैं वहीं  राम हनुमान के कृतज्ञता से ऋणी हो जाते हैं –

        सो0-प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।

      आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।61।।

      हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।।

      तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई।।

      हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता।।

               राम रावण का वध करके विभीषण को राजपाट सौंप चौदह साल की वनवअधि पूरा करते हैं। इधर भरत ने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि प्रभु अगर एक दिन भी अयोध्‍या आने में विलम्‍ब करेंगे तो वह अपने प्राण त्‍याग देगा, यह बात प्रभु श्रीराम जानते थे–

        दो0-तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।

      भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात।।116(क)।।

      तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि।

      देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि।।116(ख)।।

      बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।

      सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर।।116(ग)।।

      इधर अयोध्‍या में चौदह वर्ष की अवधि पूर्ण होने के अंतिम दिन भरत अपने प्राण त्‍यागने के लिये तत्‍पर है तभी प्रभुश्रीराम की आज्ञा पाकर अयोध्‍या में हनुमानजी भेष बदलकर भरत से मिलते है और प्रभु की कुशलता के समाचार सुनाकर राम,लक्ष्‍मण, सीता सहित अयोध्‍या लौटने की बात बताते है जिसे सुनकर भरतजी अपने प्राण त्‍यागने को स्‍थगित करते हुये हर्षित मन से प्रभु का इंतजार करते है। प्रभु पुष्‍पक विमान से अयोध्‍या आकर भरत, शत्रुघन, सहित माता कैकयी, सुमित्रा एवं कौशल्‍या से भेट कर गुरू वसिष्‍ठ सहित सभी सभासदों,नगरपुरवासियों से भेंट करते है। इस प्रकार हनुमान जी अपने प्रभु श्रीराम के वनगमन उपरांत लक्ष्‍मण,सीता,भरत पर आये मृत्‍युतुल्‍य कष्‍ट को दूर कर सुग्रीव के प्राणों की भी रक्षा करने में सफल होते है और प्रभु श्रीराम सहित सभी के अनन्‍य प्रेम को पाकर अजर अमर हो जाते है।

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