जब काल मनुज पर छाता है, विवेक पूर्व मर जाता है!

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कीर्ति दीक्षित
लेखिका/स्वतंत्र पत्रकार
‘जब काल मनुज पर छाता है, विवेक पूर्व मर जाता है’ ,वर्तमान में कांग्रेस पार्टी के क्रियाकलापों को देखकर ऐसा ही प्रतीत होता है, पश्चिम बंगाल में कांग्रेसी विधयाकों से राहुल और सोनिया के प्रति वफादारी का हलफनामा भरवाया जा रहा था, दूसरी तस्वीर में कल कांग्रेस के वरिष्ठ एवं युवा नेता प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे पनामा लीक्स में नाम आने के बाद अमिताभ बच्चन किस प्रकार सरकार के कार्यक्रम में शामिल हो सकते हैं, एक सामान्य नागरिक के मन में ये प्रश्न अवश्य कौंधता है की एक और नेशनल हेराल्ड, ऑगस्टा वेस्टलैंड जैसे मामलों में नाम आने के बावजूद कांग्रेसी गाँधी परिवार का पैर पूजन कर रहे हैं, दूसरी तरफ किसी पर उसके काम को लेकर प्रश्न चिन्ह, जहाँ तक जीने का अधिकार इस देश का संविधान सभी को देता है चाहे वह कितना ही दुर्दांत अपराध का आरोपी क्यों ना हो ।
भारतीय जनता पार्टी की सरकार बने चौबीस महीने हो चुके हैं लेकिन विरोधी दलों की प्रतिक्रिया चंद घिसे पिटे मामलों में सुनाई दी, कभी सूट बूट की सरकार का नारा, कभी प्रधानमंत्री के विदेश दौरों पे कटाक्ष, कभी डिग्री, कभी राहुल गाँधी चंद उठाईगीरे छात्रों के बीच नेता बनने का प्रयास करते हैं, कभी किसी साम्प्रदायिक होलिकग्नी में घी डालते नजर आते हैं और अब अमिताभ बच्चन, इस तरह के आरोपों और क्रियाकलापों को देख सुनकर लगता है कि क्या कांग्रेस अब तक भारत सरकार की कमजोर कड़ी तलाश नहीं कर पाई, वास्तव में क्या हम अच्छे दिनों की राह पर हैं? क्योंकि ना तो भ्रष्टाचार के विषय में कोई मामला सुनाई पड़ता है , ना किसी नीति की आलोचना जोर शोर से की जा रही है, ना ही देश की स्थिति के विषय में कोई विशेष चर्चा जनता के बीच सुने पड़ती है , विरोधियों के पास जैसे कोई मुद्दा ही नहीं, हाँ कांग्रेसी तब जरूर जोर शोर से चिल्लाते हैं जब उनके आका पर कोई आक्षेप लगता है, ऐसे में क्या ये सत्य नहीं प्रतीत होता कि कांग्रेस मानसिक दिवालियेपन की अंतिम सीमा पर है या वास्तव में कांग्रेस का अंत समय आ गया है ।
कांग्रेस का पिछला समय देखें तो जब-जब कांग्रेस गिरी तो उसके अपने अंदरूनी कारण अधिक रहे । यदि गौर करें तो राज्यों में कांग्रेस का पतन १९६० के दशक से ही आरम्भ हो गया था , १९६७ के चौथे आम चुनाव ने इस बात पर मोहर लगा दी थी । इसके बाद राज्यों में उभरे क्षेत्रीय दलों ने भी कांग्रेस को नीचे लाने का कार्य आरम्भ कर दिया, अब तक संसदीय चुनावों में भले कांग्रेस पैर जमाये थी लेकिन विधान सभा के चुनावों में कांग्रेस से जनता की पकड़ छूटना आरम्भ हो चली थी, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली में गैर कांग्रेसी दलों ने अपना अधिपत्य स्थापित करना आरम्भ कर दिया किन्तु जहाँ क्षेत्रीय दल अस्थिर थे वहां कांग्रेस ने अपना वर्चस्व बनाये रखा, उत्तर प्रदेश, ओड़िसा, बिहार, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस प्रभाव में रही।
कुछ राज्यों को छोड़कर, कांग्रेस विधान सभा एवं संसदीय चुनावों में पचास प्रतिशत से अधिक वोट कभी हासिल नहीं कर पाई किन्तु सीटों के हिसाब से हमेशा एक बड़ी पार्टी बनकर उभरी , १९६७ के बाद ही राज्यों में कांग्रेस विरोधी गठबन्धनों का प्रादुर्भाव हुआ और यह बदलाव भारत के कम से कम सोलह में से आठ राज्यों में कांग्रेस की पराजय में परिणित हुआ, संसदीय चुनावों में भी वोट प्रतिशत में भारी गिरावट देखने को मिली जो वोट प्रतिशत १९६२ में लगभग ४४ प्रतिशत था वो १९६७ में चालीस प्रतिशत ही रह गया । सीटों का प्रतिशत ६१ से गिरकर ४८ प्रतिशत तक आ गया, हालाँकि १९७१-१९७२ के दौर में कांग्रेस एक मजबूत पार्टी के रूप में फिर उभरी इसके पीछे की वजह एक मजबूत एवं दृढ नेतृत्व के साथ- साथ जनता के साथ संवाद रहा लेकिन यह स्थिति शीघ्र समाप्त हो गयी आपातकाल लगाना, सत्ता के दंभ में कांग्रेस इस बात को पीछे छोड़ चली थी कि सत्ता की चाबी जनता के पास होती है अतः सरकार के निरंकुश फैसलों ने कांग्रेस को पीछे धकेल दिया।
१९७७ के आम चुनावों में कांग्रेस को मुह की खानी पड़ी, १९८० में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी अवश्य की किन्तु उतनी प्रभावशाली नहीं रही मात्र ३७ प्रतिशत वोट कांग्रेस के हिस्से में आये, १९८५ में ३५ प्रतिशत वोट मिले जिसके बाद कांग्रेस इस ग्राफ से स्वयं को ऊपर नहीं ला पाई , १९९१ में राजीव गाँधी की हत्या ने एक बार फिर कांग्रेस ने सहानुभूति वोट बटोरे लेकिन तब भी अपनी नीतियों और आम जनता से बढ़ते कटाव को भांप नहीं सकी परिणाम बीसवी सदी में यह प्रतिशत और अधिक तेजी से गिरना आरम्भ हो गया २००२ में मात्र ८.९६ वोट प्रतिशत पर कांग्रेस टिक गयी। इसके उपरांत कांग्रेस ने सत्ता में वापसी अवश्य की लेकिन लोकप्रियता का ग्राफ नीचे ही जाता गया, जनता से संवादहीनता और भ्रस्टाचार ने कांग्रेस से सत्ता छिनी और अब अकुशल नेतृत्व एवं परिवारवाद जो पहले केवल विरोधियों के हिस्से का मुद्दा था वो अब कांग्रेसी स्वयं दबी जुबान से कहते दिखाई पड़ते हैं, किसी भी दल की सफलता का अनिवार्य घटक होती है स्वतंत्रता एवं सदस्यों को उनकी योग्यता एवं क्षमताओं के अनुसार बढ़ावा देना जो की कांग्रेस में ना के बराबर दिखाई पड़ रहा है और यही कारक उसके अंत में सहायक बनकर उभर रहे हैं, आज कांग्रेस का रीढविहीन नेतृत्व एवं परिवारवाद उसे विपक्ष की भूमिका का निर्वहन भी नहीं करने दे रहे, हताशा इसी बात से जाहिर हो जाती है की पश्चिम बंगाल में अपने ४४ विधायकों से उनकी एक परिवार के प्रति वफ़ादारी के हलफनामे साइन कराये जा रहे हैं।
लोकतंत्र की पुष्टता सदन में बैठी सरकार और विपक्ष के संगम से ही संभव है, इस प्रकार कांग्रेस का मरना देश के भविष्य के लिए खतरा तो है ही, लोकतंत्र के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह है । अब भी समय है यदि कांग्रेस अपनी चाटुकारिता की नीतियों से ऊपर नहीं उठती तो उसका अंत लगभग तय है, ऐसे में यदि कोई ऐसा दल उभरकर सामने आता है जो कांग्रेस का विकल्प बन सके तो अच्छा है जो कि कुछ समय पूर्व लगता था आम आदमी पार्टी हो सकती है किन्तु उनके द्वारा अनावश्यक मुद्दों को विवाद में लाना और अतिआत्मविश्वास जनता से उन्हें काट रहा है, आज तक ऐसे किसी मुद्दे पर आम आदमी पार्टी उतनी जोर शोर से सामने नहीं आती जितने साजो सामान के साथ दिल्ली चुनाव से पूर्व दिखाई पड़ती थी, अब उनकी आलोचना के मुद्दे धारदार नहीं होते साथ ही देश के आवश्यक मुद्दों पर भी उनकी धार नहीं दिखाई पड़ती, विचारों में स्पष्टता जैसे पूर्व में दिखाई पड़ती थी अब उतनी ही घुमावदार प्रतीत होती है ऐसे में जनता के विपक्ष का विकल्प बनकर उभरना उनके लिए बेहद टेढ़ी खीर है। फिलहाल उत्तर प्रदेश के चुनाव इस अधखुली स्थिति का पूर्ण अनावरण करने में महती भूमिका का निर्वहन करेंगे, इन्तेजार कीजिये और देखिये ऊँट किस करवट बैठता है ।

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