आखिर लोकतंत्र कहां है?

चैतन्य प्रकाश

मैक्स ईस्टमैन ने 1922 में कहा था ”मैं कभी ऐसा अनुभव करता हूं कि पूंजीवादी और साम्यवादी तथा प्रत्येक व्यवस्था एक दैत्याकार यंत्र बनती जा रही है, जिसमें जीवन मूल्यों की मृत्यु हो रही है”। लैंग के विचार में इस भौतिकवादी संसार में सफलता का मूल्य हमें स्वत्व के संकट के रूप में चुकाना पड़ता है।

जिसके कारण हम जीवन के सत्यात्मक मूल्यों एवं विभिन्न आयामों को नजरअंदाज कर देते हैं। लैंग ने कहा है, ”कितनी विचित्र बात है कि मनोव्याधि की शब्दावली में परोनोया का शब्द तो है जिसमें व्यक्ति इस वहम से ग्रस्त है कि उसे हर कोई यातना दे रहा है या उसका पीछा कर रहा है, लेकिन इस रोग के लिए कोई शब्द नहीं जिसमें व्यक्ति को वाकई ‘यंत्रणा’ (मानसिक एवं बौद्धिक) द्वारा संवेदनशून्य बनाया जा रहा है।

हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं। एक दूसरे से अजनबी और बेगाने। यहां तक कि उत्कृष्ट दृश्य से भी बेगाने जिसको यदि हम प्राप्त नहीं कर सकते तो कम से कम उसकी एक झलक तो देख सकते हैं।” रेवलूशन नामक अपनी पुस्तक में आल्डयुस हक्सले लिखते हैं, ”सामाजिक संस्था के हर नए विस्तार के साथ व्यक्ति की मानवीयता का और अधिक अवमूल्यन हो रहा है और वह सामाजिक उपादेयता का पूर्जा मात्र बन कर रह गया है, तैयारशुदा, सृजनात्मकता से रिक्त मनोरंजन मनुष्य की उदासीनता को निरंतर नए-नए क्षेत्रों तक फैला रहा है। अब अस्तित्व सारहीन तथा असहनीय हो गया है”

बीती सदी में मनुष्यता के संकट को पहचानते हुए विचारकों, दार्शनिकों ने मौजूदा व्यवस्था को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया है। वास्तव में विश्व की विविध सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्थाओं का परिप्रेक्ष्य तलाश किया जाये तो लगता है कि ये सब व्यवस्थाएं अंतत: सुविधा के बजाय असुविधा, समन्वय के बजाय संघर्ष और स्वतंत्रता के बजाय निर्भरता को ही प्रोत्साहित करती नजर आती हैं।

घर के घेरे से सड़क के किनारे तक, दफ्तर की फाइल से कचहरी की कवायद तक, बाजार की दुकान से खरीदे गये प्लाट या बनाये गये मकान तक, ट्रैफिक सिग्नल से थाने और हवालात तक, कहीं भी जाना और वापस लौट आना जिल्लत, जहालत और जहन्नुम के अनुभवों से गुजरने का खतरा उठाने जैसी बात हो गयी है। व्यवस्थाओं के बिना इंसान जाहिर तौर पर बेहाल है तो व्यवस्थाओं में फंसकर भी उसका जीना मुश्किल होता जा रहा है।

वह कहां जाये, और कैसे रहे? आखिर कौन उसको बतायेगा? भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले, दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ वाले देश में व्यवस्था का सवाल कटु यथार्थ बनकर खड़ा है। आखिर फटी-पुरानी, टूटी-फूटी, चिथड़े जैसी हो रही व्यवस्था को बदल डालने का सपना देखने की शुरूआत इस देश में नहीं होगी तो फिर कहां होगी? 1974 में देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री ने जब आपातकाल लगाया तो यह बहस मुखर हुई। बाबू जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का बिगुल फूंका तो देश का छात्र और युवा उनके बोल पर डोलने लगा। जल्द ही वह सपना टूट गया, व्यवस्थाएं पुराने खोल पहनकर इतराने लगीं।

बदलाव की बयार को ताकता देश फिर से ढर्रे पर चलने को तैयार हो गया। यों कुछ लोगों की समझ में आया कि सत्ता परिवर्तन सब कुछ नहीं होता, मगर बहुत सारे लोगों ने सत्ता को ‘सब कुछ’ मानना जारी रखा। फिर एक बार 1987 में बोफोर्स दलाली में देश के तत्कालीन कथित मि. क्लीन प्रधानमंत्री के शामिल होने की बातें होने लगी तो परिवर्तन की आहट का अहसास हुआ, लेकिन फिर वही हुआ। सत्ता तो बदल गई, व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न आंखों से ओझल होता दिखाई दिया। सवाल उठता है कि सत्ता में दलों की अदलाबदली जैसा आडंबर करते जाने से क्या लोकतंत्र मजबूत हो पायेगा?

क्या लोकतंत्र का अर्थ लोकाभिमुख व्यवस्थाओं के सृजन और विकास तक नहीं जाता है? यदि हां, तो फिर यह मानना जरूरी हो जाता है कि व्यवस्था परिवर्तन की बात एक वृहद लोकतांत्रिक उद्देश्य है। शायद यह कहना मुनासिब होगा कि व्यवस्था परिवर्तन के बिना सत्ता परिवर्तन की कवायद ‘छलनी से पानी भरने के समान है।’

मगर अगले पायदान पर व्यवस्था परिवर्तन की सच्चाई से भी रूबरू होना जरूरी है। पड़ताल करनी होगी कि मौजूदा व्यवस्था की नाकामी की वजहें क्या हैं और नई व्यवस्थाओं में किन तत्वों का होना जरूरी है? सिरे से खंगाल कर देखने से मौजूदा व्यवस्थाओं की नाकामी की तीन वजहें सामने आती हैं। पहली वजह यह है कि मौजूदा तमाम व्यवस्थाएं ‘शासन’ की प्रवृत्ति पर आधारित हैं अर्थात ‘कुछ लोगों के बहुत लोगों पर शासन’ की मूल इच्छा से ये व्यवस्थाएं निर्मित हुई हैं।

शायद यह मान लिया गया है कि बहुत सारे नासमझ, नादान लोगों को इन व्यवस्थाओं के जरिये चंद लोगों के काबू में रखना है। तमाम प्रशासनिक ढांचा इसी मूल प्रवृत्ति का पोषक है। दूसरी वजह यह है कि सारी व्यवस्थाएं आरोपित हैं, जाने-अनजाने आपको इन्हें मानना होगा, इनके प्रति अवमानना या असहमति का कोई हक तमाम लोकतांत्रिक वायदों की मृगमरीचिका के बावजूद आम आदमी के पास मुश्किल से आ पाता है, जब तक वह जनता बनकर वोटों के माध्यम से सत्ता की सौदेबाजी न करे।

तीसरी वहज यह है कि तमाम व्यवस्थाएं रूढ़िवादिता का पर्याय हैं। इनमें बदलाव की बातें या तो किताबों में होती हैं या आयोगों और समितियों की सिफारिशों में। न गर्म देश में वकील का काला कोट बदलता है और न ही अमानवीय हो चुकी पुलिस की कार्यशैली और पोशाक। सरकारें बदल जाती हैं, पर झूठे, पाखंडी प्रतीक अधिक बेईमानी को पोषित करते हुए जनता को चिढ़ाते रहते हैं।

अब बदलाव की बात पर आया जाए। वैकल्पिक व्यवस्था के आधार तत्व क्या हो सकते हैं? विचार करने से यह सूझता है कि पहला तत्व ‘स्वत्व’ है। सभी को अपने स्वत्व से जीने की स्वतंत्रता मिले। व्यवस्थाएं अपना व्यवहार बदलें, चोगा और चाल-चलन भी बदलें। वे मालिक और हुक्मरानों की तरह पेश आना बंद करें। किसी के स्वत्व पर आघात करने का अधिकार किसी को न हो। थाने, दफ्तर, कोर्ट, कचहरी सब जगह सम्मान एवं सौजन्य का वातावरण हो।

दूसरा तत्व है-’सरोकार’ व्यवस्थायें जन-सरोकारों को समझे, उनसे जुडें, स्वाभाविक पारस्परिक संपर्क-संवाद विकसित करते हुए व्यक्ति-व्यक्ति के भावों, विचारों को विश्वास प्रदान करते हुए आपसी समझ विकसित करें। इस तरह व्यवस्थाएं जन स्वीकार्यता की ओर बढ़ सकेंगी। तीसरा तत्व है ‘सहभाग’। वर्तमान व्यवस्थाएं जन-सहयोग की माला तो जपती हैं, मगर वह सिर्फ दिखावा है। व्यवस्थाओं के प्रबंध एवं निर्णयों में स्थानीय स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक जनसहभाग-शून्य वातावरण दिखाई देता है।

नयी व्यवस्थाओं में जन-सहभाग सुनिश्चित करना होगा। चौथा तत्व है ‘सहजता’। व्यवस्थाएं सहज हों, वे आरोपित, आदेशित एवं आक्रामक न हों। वैसे ऊपर की तीन बातें यदि क्रमश: आजमायी जायें तो अंतिम चौथी बात परिणाम बनकर स्वत: प्रकट होगी। कहने का आशय यह है कि यदि स्वत्व, सरोकार और सहभाग व्यवस्थाओं के केन्द्रीय तत्व होंगे तो व्यवस्थाएं स्वाभाविक रूप से सहज हो सकेंगीं। इस राह में कई सारी संरचनाएं समाप्त होंगीं, कुछ नई गढ़नी होंगीं, पर इन तत्वों की उपस्थिति में यह व्यवस्था न केवल अपने देश में बल्कि सारी दुनिया में मनुष्यता के संकट का निवारण कर सकेगी, यह विश्वास है।

बीसवीं सदीं के महान लेखक ‘फ्रांज काफ्का’ ने कहा था- ”हम उन आदर्शों को पाने की कोशिश करते हैं जो आदर्श हैं ही नहीं। और इस क्रम में उन मूलभूत चीजों को नष्ट कर रहे हैं जिन पर मनुष्य के रूप में हमारा अस्तित्व निर्भर है। हमारी अराजकता का यही कारण है जो हमें खत्म करने के लिए गहरी खाई की ओर ले जा रहा है।”

वास्तव में व्यवस्थाओं के सृजन एवं संचालन में हमने ‘शासन’ को आदर्श माना जो कि वास्तव में आदर्श हो ही नहीं सकता। अतएव हम लगातार पतनोन्मुखी समाज बनते जा रहे हैं। यदि हम सहयोग जैसी मूल प्रवृत्ति को केन्द्र में रखकर व्यवस्थाओं का सृजन एवं संचालन करें तो परस्पर विश्वासी, सजग एवं जीवंत व्यवस्थाओं का विकास संभव है। यदि ऐसा हुआ तो वैकल्पिक व्यवस्थाओं का सपना भारत से होकर समूचे विश्व की मनुष्यता का सार्वभौमिक सपना बन सकता है, जिसे साकार करना जीवन की बेहतरी के लिए एक अहम जरूरत की तरह महसूस होगा।

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