कहां है गांधीजी के ‘सर्वांगीण विकास’ का सपना?

शिक्षा व्यवस्था:
                *केवल कृष्ण पनगोत्रा

शिक्षा क्या है? महात्मा गांधी ने शिक्षा को लेकर अपनी परिभाषा में मनुष्य के ‘सर्वांगीण विकास’ पर विशेष तौर पर बल दिया है। सच भी है, मानव का सर्वांगीण विकास ही उसे मात्र भौतिक, आर्थिक तथा औपचारिक प्रगति से तनिक हट कर बंधुत्व भाव, क्षमा, त्याग, परोपकार जैसी भावनाओं से ओत-प्रोत करता है।
शिक्षा का उद्देश्य तो समाज को ईमानदार, कर्मठ, परिश्रमी व जुझारू नागरिक बनाना है। आज शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा है, अनेक स्कूल एवं कॉलेज खुले हैं। लोग भी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं व संस्थानों में विद्यार्थियों की संख्या बढ़ी है। इन सबके होते हुए भी शिक्षा अपने मूल उद्देश्य से भटक रही है। शिक्षा संस्थानों के द्वारों और दीवारों पर लिखे उत्प्रेरक संदेश ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय्’ एवं ‘सीखने हेतु आओ-सेवा हेतु जाओ’ (इंटर टू लर्न, लीव टू सरव) मानो निस्तेज हो कर छटपटा रहे हों। यदि कुछ सार्थक है तो अपवाद ही होगा।
आजादी के बाद समय-समय पर शिक्षा को समाज की आवश्यकताओं के दृष्टिगत ढालने की कोशिश की गई। परन्तु शनै:-शने: यह अपने ज्ञानपरक उद्देश्य से भटक कर अर्थ प्रधान स्वरूप धारण करती गई। अर्थ का पर्याय होने के कारण ही आज विद्यार्थियों में आत्महत्या की प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है। अभिभावक अपने बच्चों को ज्ञानवर्धक और संस्कारवान बनाने की अपेक्षा करंसी नोट पैदा करने वाले यंत्र बनाने हेतु महंगे संस्थानों में भेज रहे हैं। गलाकाट प्रतियोगिता के दौर से शिक्षा एवं शिक्षण संस्थान भी अछूते नहीं हैं। सरकारी एवं निजी संस्थानों में एकरूपता का न होना शिक्षा के व्यवसायीकरण का ही परिणाम है। शिक्षा के क्षेत्र में दुर्व्यवस्था ने शिक्षा संस्थानों में अराजकता की स्थिति को उत्पन्न किया है। कहते हैं कि सोना तप कर ही खरा उतरता है परन्तु आज की व्यवस्था में तपस्या भाव शून्य की ओर अग्रसर है।
दुख तो इस बात का है कि जन साधारण के बच्चों के लिए आज विद्यालयों में पठन-पाठन का उचित वातावरण ही नहीं है। अनुशासनविहीनता चरम पर है व शिक्षक भी अर्थ प्रधानता के वशीभूत नैतिक पतन का शिकार हो रहा है। शायद ही देश में आज ऐसी कोई परीक्षा होगी जहां पर प्रश्न पत्र परीक्षा काल के पूर्व ही कभी न कभी ‘आउट’ होते न देखे-सुने हों। मात्र अंकों में प्रतिशत की अंधी दौड़ में आगे निकलने के लिए। जहां प्रतिशत बिकने वाली चीज बन जाए वहां शिक्षा के मूल उद्देश्य कहां के रह जाएंगे?  विचार योग्य बात है कि इस प्रकार की अव्यवस्था और अराजकता के पीछे कौन है?  कहना न होगा विद्वता संस्कारहीन होती जा रही है।  दोष किसी का भी हो, मगर इतना जरूर है कि दोष कहीं न कहीं हम सब का भी है।
शिक्षा की गुणवत्ता में आती उत्तरोत्तर कमी ही देश में असंतोष, हिंसा और अशांति के लिए जिम्मेदार है। इस बात में कोई दो राय नहीं है। शिक्षा तो वह तिलिस्मी खजाना है जिससे ज्ञान रूपी अमृत प्राप्त होता है व अज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। ज्ञान रूपी  अमृत से युक्त इन्सान ही त्याग, परोपकार ,दया, अहिंसा, सत्य जैसे मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण होता है। इन्हीं गुणों के अभाव में हिंसा फैल रही है। यदि शिक्षा व्यवस्था ज्ञान रूपी अमृत को बांटने के योग्य होती तो हिंसा एवं असहिष्णुता की प्रवृत्तियां क्यों पलती? अपहरण और शोषण जिस समाज और देश में व्याप्त होता है वह देश कभी शांति सम्पन्न नहीं हो सकता।
भरत मुनि ने नाट्य शास्त में “नरत्वम् दुर्लभम लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा” के भाव को स्वीकारा है। सच तो यह है कि वास्तविक अर्थ में शिक्षित मनुष्य ही समाज का मूल्यवान् आभूषण होता है। वही समाज को कुछ दे पाने में समर्थ होता है। अर्थ प्रधान भावों से परिपूर्ण और उपाधि धारक शिक्षा से युक्त इन्सान समाज को कुछ नहीं दे सकता। आज के दौर में प्रशासनिक परिक्षाओं पर भी कभी न कभी प्रश्न उठते हैं। बाजारवादी दौर में उपाधि तो खरीदी जा सकती है मगर ‘उपाधिधारी व्यापारी’ केवल समाज का शोषण ही कर सकता है।
शिक्षा की गुणवत्ता में आती कमी के लिए हमारी सरकारें भी बराबर की जिम्मेदार रही हैं। कारण कि शिक्षा की रीति-नीति सरकार के अधीन होती है। अभी तक सरकार ऐसी नीति का निर्माण नहीं कर सकी जिससे चरित्र निर्माण और कर्त्तव्य बोध पैदा हो। अजीब विरोधाभास है कि एक ओर सरकारें शिक्षा के लिए बड़ी-बड़ी बयानबाजी करती हैं, वहीं दूसरी ओर शिक्षा के क्षेत्र में अति स्वल्प खर्च करती हैं। प्रत्येक सरकारी विभाग शिक्षा से अधिक प्राप्त करता अा रहा है। ऐसे में गांधी जी का ‘सर्वांगीण विकास’ का सपना कैसे साकार होगा। सरकारें समाज के अंदर झाँक कर देखें। शिक्षक सम्मान पाने में इसलिए बौना प्रतीत होता है क्योंकि वह अर्थ की दृष्टि से दुर्बल समझा जा रहा है। खैर…
संसार का चरित्र द्वन्द्वात्मक है। रोशनी में ही अंधकार की पहचान होती है। शिक्षा नीति ऐसी हो जो विद्यार्थियों में आत्मनिर्भरता पैदा करे। देश के नीति निर्माताओं को चाहिए कि वातानुकूल कक्ष से बाहर आ कर शिक्षा नीति बनाएं ताकि मानव संसाधनों का उचित प्रयोग हो। नीति जमीनी वास्तविकता को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। शिक्षा तर्कशील हो, कल्पनाओं के संसार में भटकने वाली नहीं। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि सरकीरी शिक्षक मात्र 19 प्रतिशत समय ही कक्षा में रहते हैं, शेष गैर शैक्षणिक गतिविधियों में सम्मिलित रहते हैं। यह कैसी नीति का परिणाम है?

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