ईश्वर कहाँ है ?

 
डा. अरविन्द कुमार सिंह
 
विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस से दो बहुत ही कठिनतम प्रश्न पूछे। पहला प्रश्न था – ‘‘ क्या आपने ईश्वर को देखा है? इसका जो उत्तर विवेकानन्द को मिला, वो हतप्रभ करने के लिये प्रर्याप्त था या कहे आशा के विपरित था। रामकृष्ण परमहंस ने कहा – ‘‘ हाँ, मैने ईश्वर को देखा है।’’
दूसरा प्रश्न जिज्ञासा के चरम विन्दू पर था। विवेकानन्द ने पूछा –  फिर , क्या आप मुझे भी ईश्वर के दर्शन करा सकते है?’’ परमहंस ने सहज उत्तर दिया – ‘‘ हाॅ, मैं तुम्हे भी उसके दर्शन करा सकता हूँ।’’
कहते हे दो के जुडने के बीच यह संवाद विश्वास के पुल के रूप् में काम किया, बाद में विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस के प्रियतर शिष्यों में शुमार किये गये।
यह घटना अक्सर मुझे उद्वेलित करती थी। मैं अक्सर सोचा करता था क्या देखा और क्या दिखा दिया ?  जितना ही सोचता उतना ही उलझता जाता। उत्तर तो नही मिलता पर कुछ और प्रश्नो का जन्म अवश्य हो जाता ।
क्हते है निज प्रश्नो का उत्तर आपकी बौद्धिक क्षमता नही खोज पाती है, किसी र्निविचाार के क्षण में उसका उत्तर वह चेतन सत्ता, आपको उपलब्द्ध करा देती है। शायद इसी को उर्दू में इलहाम होना कहा जाता है।
आज से तकरीबन तीन वर्ष पूर्व एक दिन मैं ध्यान की अवस्था में था। अचानक इस प्रश्न का उत्तर मिला। सही है , गलत है, मुझे नही मालूम। पर विश्वास जानिये, यह उत्तर मेरी बौद्धिक क्षमता से मुझे नही प्राप्त हुआ। जो प्राप्त हुआ वह शब्दो में कुछ इस प्रकार है –
हमारे शरीर में जो स्वासो का आवागमन है। वह हमारी मृत्यु और जीवन का परिचायक है। जहाँ भीतर आयी स्वास जीवन की परिचायक है तो बाहर गयी स्वास मृत्यु की परिचायक है। यही स्वास तो ईश्वर है। अगर इसे ही हम रोजाना देखे, शायद गलत शब्द मैं कह रहा हूँ – यदि हम रोजाना अन्दर जाती और बाहर जाती स्वास को महसूस करे , साक्षात्कार करे तो यह ईश्वर का ही साक्षात्कार होगा। स्वास का न होना उस चेतन सत्ता का हमसे विदा हो जाना है। यह ईश्वर दर्शन नही तो और क्या है?
शायद यही वजह रही होगी, जब ध्यान की तकरीबन 120 विधियो में ज्यादातर विधि स्वास पर आधारित की गयी। स्वास के प्रति जागरण – ध्यान की प्रक्रिया है। प्रति क्षण हमारे शरीर में उस चेतन सत्ता द्वारा संचालित स्वास की प्रक्रिया किसी क्षण विशेष में अपनी क्रिया बन्द कर देगी। सांसारिक भाषा में यह व्यक्ति की मृत्यु है। यह कब घटित होगा इसे जानना सम्भव नही। अतः साधक सम्र्पूण जिन्दगी स्वास पर ध्यान केन्द्रित करता है। न जाने कब यह क्रिया पूर्णता को प्राप्त हो जाये? उस क्षण विशेष के हम साक्षी बने इससे बडी बात और क्या होगी ?
होशपूर्ण जीवन का त्याग , हमारी सबसे बडी उपलब्द्धि है। जीवन पर्यन्त होशपूर्ण जीवन यापन , जीवन की सबसे बडी कला है। आइये इस कला को विकसित करे और होशपूर्ण जीवन यापन करे।
कहते है सारी जिन्दगी दूसरो से मुलाकात करने वाला यदि नही मुलाकात कर पाता है तो सिर्फ अपने आप से। जिस दिन अपने आप से मुलाकात हो जाये किसी और से मुलाकात की आवश्यकता नही रह जाती।
अपने आप से मुलाकात उस परमपिता परमेश्वर का साक्षात्कार है। इसका एक ही सूत्र है – अहंकार का विर्सजन। जबतक हमारे अन्दर एक कतरा भी अंहकार  है, हमे पूरी कायनात भले मिल जाये, अगर नही मिलेगा तो वह परमपिता परमेश्वर। याद रख्खे अहंकार के विर्सजन के उपरान्त ही हम उससे जुडते है। यहाॅ यह भी ख्याल रखना होगा कही हमारे अहंकार का विर्सजन ही हमारा अहंकार न बन जाये।
एक शिष्य ने अपने गुरू से पूछा – ‘‘ मैं दस वर्षो से ईश्वर की आराधना कर रहा हूॅ, पर अभीतक उससे साक्षात्कार नही हुआ। गुरू ने उत्तर दिया – ‘‘ या तो ईश्वर नही है या फिर तुम्हारी आराधना में कोई कमी है। मैं यह मानने को तैयार नही हूॅ कि वह नही है। हाँ हमारी आराधना ही पूर्णता को प्राप्त नही है, ऐसा मेरा मानना है। वह हमे मिल जाये , इस भावना से की गयी पूजा – हमारे अहंकार का ही विस्तार है। और अहंकार के रहते कायनात तो मिल सकती है पर वह नही।’’

2 COMMENTS

  1. माननीय अरविन्द जी,

    अपने ईश्वरीय अनुभव पाठकों के साथ बाँटने के लिए धन्यवाद ।

    >> होशपूर्ण जीवन का त्याग , हमारी सबसे बडी उपलब्द्धि है। जीवन पर्यन्त होशपूर्ण जीवन यापन , जीवन की सबसे बडी कला है।

    आपने सही कहा है । यह करना एक “साधक”, जो अपने अधिकतम पारिवारिक और जैविक दायित्वों से मुक्त हो चुका है, के लिए भी सरल नहीं है । परन्तु, सम्भव अवश्य है । पारिवारिक व सांसारिक दायित्वों को निभा रहे मनुष्य के लिए भी यह सम्भव है, ऐसा मानता हूँ । इसका निरन्तर प्रयास व अभ्यास करना आवश्यक है, और पर्याप्त भी है । फिर वह प्राप्त हो या न हो, मन को विचलित होने से बचाना चाहिए ।

    लेख के लिए धन्यवाद ।

  2. इसी स्वास प्रश्वास को देखना विप्पसना की शुरुआत है,यह विप्पसना प्रणाली भारत की ही पुरातन पद्धति है. भारत में इसे विप्पसना आचार्य श्री सत्यनारायण गोयनका जी ने प्रसारित किया था . अब समय आ गया है की ढोंग धतूरे की जगह ईशवर की सही परिकल्पना जो विज्ञानं सम्मत हो देखि पारखी जावे और मानव सुखी तो ही साथ में नैतिक भी हो. धर्म वह सिखाया जाय जो समाज के लिए घातक नहीं हो. विप्पसना में आगे जाकर अशटांग मार्ग बताया जाता है. ईशवर ऐसी कोई भौतिक वस्तु है ही नहीं जिसे कोई महात्मा या अवतार किसी को प्रत्यक्ष बता सके. आर न ऐसी काल्पनिक जिसकी कल्पना की जा सके. वह है,उसे केवल अनुभव किया जा सकता है.

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