माटी का दीया अब कहां झिलमिलाए!

अखिलेश आर्येन्दु

बचपन में हम सभी भार्इ माटी के दीये को दीपावली के दिन बहुत ही उत्साह और श्रद्धा के साथ जलाते थे। मां कहती थी माटी के दीये जलाने से ही लक्ष्मी घर में प्रवेश करती हैं। लेकिन इसके पीछे छिपे सामाजिकता और रोजगार को हमने नहीं समझा था। मां कहती थी, ‘दीया जलाते वक्त ध्यान रखना इसका मुंह दक्षिण या पश्चिम की ओर न रहे। तब मेरे समझ में यह बात नहीं आती थी कि आखिर मां दीये के मुंह दक्षिण या पश्चिम की ओर न करने की हिदायत क्यों देती हैं। उम्र बढ़ने के साथ इतना समझ में आने लगा कि दक्षिण दिशा शास्त्र के मुताबिक शुभ नहीं मानी जाती। और बड़ा हुआ तो इसका वैज्ञानिक तथ्य भी समझ में आ गया। लेकिन जब मिट्टी के दीये की जगह मोम से बनी मोमबत्तियों और बिजली के झालरों ने ले लिया तो यह बात समझ मे नहीं आर्इ कि मिट्टी के दीये में घी या सरसों के तेल की जगह मोम बत्तियों या बिजली के झालरों से भी क्या दीपावली का सीधा ताल्लुक जुड़ पाता है कि नहीं। यह बात बड़ी या छोटी होने की नहीं है, बात त्योहार की पवित्रता, शुद्धता और संस्कार की है।

हमारे ऋषियों-महर्षियों ने पर्वों, त्योहारों और उत्सवों को मनाने का जो विधि-विधान, तरीका और कर्मकांड निर्मित किए थे उनके पीछे कर्इ तथ्य छिपे हुए थे। उसके पीछे समाज के सभी वर्गों की भलार्इ तो थी ही उसके विशेष मायने भी थे। दीपावली पर माटी के दीये में सरसों या घी का ही इस्तेमाल के पीछे भी शास्त्रीय कारण तो थे ही, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण भी थे। इस बारे में थोड़ी सी जानकारी इस तरह भी हो सकती है। माटी यानी मिट्टी इस धराधाम का आधार है। यह तत्त्व के रूप में तो है ही जीवन के रूप में भी है। संस्कृति की संवाहिका तो है ही, धर्म की पोशिता भी है। समाज और परिवार की रक्षिका तो है ही प्राणी मात्र को जीवन देने वाली भी है। मतलब जितने भी धर्म हम अपनी जिंदगी में निभाते हैं, सभी किसी न किसी रूप में माटी से ही पोशित होकर आधार ग्रहण करते हैं।

माटी के दिए की वैज्ञानिकता को हमने क्या कभी समझने की कोशिश की है? हमारी जिंदगी से माटी का रिश्ता जितना अटूट है उतना ही दीपावली के माटी के दीये से है। लेकिन तथाकथित विकास की आंधी में हमने यह कभी क्या सोचने की कोशिश की है कि माटी के दीये में देशी शुद्ध घी या शुद्ध सरसों के तेल का क्या रिश्ता और क्या उपयोगिता है? कहना न होगा संस्कृति और समाज के तमाम सवालों को जिस तरह से हमने नजरअंदाज कर दिया उसी तरह से दीपावली और दूसरे पर्वों की खत्म होती सुचिता से ताल्लुक रखने वाले सवालों को भी नजरअंदाज कर दिया। विकास केी दौड़ में जिस तरह से दूसरे पर्व और उत्सव अपनी शुद्धता और सुचिता खोते जा रहे हैं उसी तरह से दीपावली की भी सुचिता और शुद्धता खोती जा रही है।

क्या कभी हमने माटी के दीये की जगह मोमबत्ती या बिजली के झालर सजाते हुए एक पल ठहरकर सोचा कि हमारे पुरखे माटी के दीये का ही उपयोग क्यों करते थे, किन्हीं दूसरी धातुओं से निर्मित दीपों का इस्तेमाल क्यों नहीं करते थे।

शास्त्र के बाद वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि घी या सरसों के तेल के दीपक से पर्यावरण की हिफाजत होती है और प्राणवायु शुद्ध होती है। इसलिए हवन में शुद्ध देशी घी डालने का विधान बनाया गया। छोटा से छोटा और बड़ा से बड़ा आदमी माटी के दीये का इस्तेमाल कर सकता था। यह थी सामाजिक सुचिता। कि किसी निर्धन किसान को यह महसूस न हो कि वह यदि धनवान होता तो सोने जवाहर से बने दीपक को दीपावली पर जलाता। कितनी आदर्श और कल्याणकारी भावना थी हमारे पुरखों में। न तो हिंसा होने का कोर्इ भय और न तो पर्यावरण का ही नुकसान। कुम्हारों को रोजगार अलग दिलाता था माटी का यह नन्हा-सा दीपक। इतना ही नहीं, माटी के दीये में डाले गए सरसों या देशी घी से जो गैस निकलती है वह सेहत के लिए फायदेमंद होती है। जबकि मोमबत्ती और झालरों से हर तरह से नुकसान ही नुकसान होता है। एक आंकड़े के मुताबिक दीपावली पर हर साल दस अरब रुपये पटाखों पर, पांच अरब बिजली के झालरों पर और करोड़ों रुपये की बिजली यूं ही फूँक डालते हैं। मोमबत्ती और दूसरे चीजों में जो पैसा खर्च करते हैं वह अलग है। मोमबत्ती दीपक या झालर दीपक की जगह कभी नहीं ले सकते हैं। हम जबरन विकास के अंधी दौड़ में माटी के दीये की जगह इनका इस्तेमाल करते तो हैं लेकिन इनसे होने वाले पर्यावरण, सेहत और बिजली के अपव्यय को नजरअंदाज कर जाते हैं। यह हमारा सांस्कृतिक पतन का कारण है। इसे रोकने की आज बहुत जरूरत है।

भूमण्डलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के बाद देश और समाज में हर तरफ बदलाव आए हैं। ये बदलाव कुछ मायने में तो कुछ अंश तक ठीक कहे जा सकते हैं लेकिन तमाम दूसरे क्षेत्रों में इनसे जबरदस्त नुकसान हुआ है। सबसे ज्यादा नुकसान हमारी शुद्धता, सुचिता और अपरिग्रह की भावना का खतम हो जाने का हुआ है। भारत सोने की चिडि़या कहलाने का गौरव इनसे हासिल था। यह गौरव हमसे इसलिए छिन गया कि हम इन मूल्यों को खो बैठे हैं-विदेशी आयातित मूल्यों का लबादा ओढ़ने के फेर में। लेकिन दशा ऐसी हो गर्इ है कि न तो स्वदेशी मूल्यों को संरक्षित कर पा रहे हैं और न तो पूरी तरह से विदेशी संस्कृति में ढल ही पा रहे हैं। ऐसे में माटी के दीये की हिफाजत आखिर कौन करे? और माटी का झिलमिल झिलमिल करता दीया किसके द्वारे, ओसारे या कोठे पर जले? कहां जले माटी का दीया? न दीया रहा और न तो उसके सुजनकर्ता ही। देखते ही देखते यह ऐसे गुम हो गया कि पता ही नहीं चला-माटी का प्यारा हमारा दीपक कहां चला गया। जो दीपावली से कर्इ दिन पहले से और दीपावली के कर्इ दिन बाद तक झिलमिल झिलमिल द्वार और आंगन में जलते हुए हमें अपने होने का भाव जगाता था।

दरअसल माटी का दीया नए जमाने के स्टेटस को भी खत्म करने लगा है? कहां माटी का छोटा सा दीया और कहां हजारों रुपये के झालर। दोनो में किसी स्तर पर भी तो मेल नहीं है। झालर जलाने से यदि बड़ा आदमी होने या दीपावली को हार्इटेक करने का तमगा मिलता है तो माटी के दीये जलाकर भला कोर्इ अपनी भदद क्यों पिटवाना चाहेगा? वैसे भी हमारी कर्इ तरह से भदद किसी न किसी रूप में आए दिन पिटती ही रहती है। झालर जलाकर यदि वाहवाही हासिल हो रही है तो बेचारे दीये को जलाने का क्या मतलब? लगता है नीरज की उन पंकितयों में भी संविधान संशोधन की तरह संशोधन करने का वक्त आ गया। पंकितयां हैं- जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नीरज जी अभी प्रभु कृपा से जिंदा हैं। उनके सामने इस मुसीबत को रखने की जरूरत है कि वे दीये की जगह झालर या बिजली के बल्ब लगा दें।

मेरा कहने का सिर्फ इतना ही मतलब है कि माटी के दीये का जिस तरह से सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और आध्यातिमक भावना का नाश करके दीपावली की सुचिता को खत्म करने की जो साजिश भूमण्डलीकरण के साथ रची गर्इ उसमें उन्हें पूरी कामयाबी मिल गर्इ है। देखिए, माटी का दीया न अब झिलमिलाए। चारों तरफ केवल और केवल बिजली के झालर जगमगाए। कौन जलाए माटी का दीया??

 

 

 

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