कहां खो गया है बचपन

सैयद अनीसुल हक़

logocharkhaहाल के दिनों राजधानी दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में महिलाओं के साथ हो रही बदसलूकी को किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं किया जा सकता है। पूरी दुनिया में महिलाओं और बच्चों के अधिकार और सरंक्षण के लिए कई सरकारी और गैर सरकारी संगठनें सक्रिय भूमिका अदा कर रही हैं। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीरय स्तर पर वर्ष में एक दिन उनके अधिकारों के नाम पर भी मनाया जाता है। जहां गोष्ठी, संगोष्ठीं और सेमिनारों में विशेषज्ञ अपनी अपनी थ्योरी प्रस्तुत करते रहते हैं। बड़े बड़े होटलों में आयोजित ऐसे सेमिनार केवल घरियाली आंसू बहाने से अधिक कुछ नहीं होता है। क्योंकि वास्तविकता क्या है उसका परिणाम सारी दुनिया के सामने गाहे-बगाहे आता ही रहता है। इससे यह अनुमान लगाना ज्यादा कठिन नहीं होता है कि उनके अधिकारों के सरंक्षण की किस प्रकार रक्षा की जा रही है। इसकी ताजा मिसाल दुनिया के सबसे बड़े गंणतंत्र में भारत की राजधानी दिल्ली में हुए सामुहिक बलात्कार और उसके फलस्वरूप उपजे जनआक्रोश पर एक नजर डालना ही काफी है।

यह तो महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों की एक झलक है। कुछ ऐसा ही हाल हमारे देश के नौनिहालों के साथ भी हो रहा है। यह एक भयानक सच है कि बच्चों की आज भी जानवरों से तुलना की जाती है। दुनिया के कुछ देशों की तरह हमारे यहां भी उनके साथ बदतर सलूक किया जाता है। यहां तक कि नारी को देवी का दर्जा देने वाले इस देश में कभी कभी उन्हें दुनिया में आने से पहले ही मार दिया जाता है। उनके बचपन से खिलवाड़ तो होता ही है, उन्हें शारीरिक और मानसिक यातनाएं भी दी जाती हैं। हालांकि कागज़ों पर उनके अधिकार को न सिर्फ स्वीकार किया जाता है बल्कि बड़े बड़े कार्यक्रमों में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत भी किया जाता है। लेकिन फिर भी उनके साथ जिस प्रकार घरों और होटलों में नौकरों जैसा सलूक किया जाता है वह सच्चाई किसी से भी छिपी नहीं है। इन स्थानों पर न सिर्फ उनसे एक युवा व्यक्ति की तरह काम लिया जाता है बल्कि उन्हें उचित पारिश्रमिक भी नहीं दिया जाता है। गांवों और कस्बों समेत देश के बड़े बड़े शहरों में भी यह मासूम बच्चे छोटे बड़े कारखानों में बड़ी संख्या में नजर आ जाते हैं। अंतर्राष्ट्री्य श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 5 से 17 वर्ष की आयु के करीब 215 मिलीयन बच्चे विभिन्न प्रकार की मज़दूरी कर अपना पेट पाल रहे हैं। देश में बच्चों के अधिकार के लिए काम करने वाली संस्था सेव दी चिल्ड्रैन के अनुसार भारत 12.6 मिलीयन बाल मजदूरों का ऐसा घर है जहां उन्हें जिंदगी गुजारने के लिए मजदूरी करने पर मजबूर होना पड़ता है। ये बच्चे घरों, गलियों, कूचों, कारखानों, खेतों और यहां तक कि देह व्यापार की मंडियों में भी काम करने को मजबूर हैं। जबकि सिर्फ हमारे राज्य जम्मू-कश्मीहर में ही अकेले बाल मजदूरों की एक बड़ी संख्या मौजूद है।

समाजशास्त्री डॉक्टर फैयाज़ अहमद के अनुसार शिक्षा और विकास से वंचित इस राज्य में दो लाख चालीस हज़ार बाल मजदूर काम कर रहे हैं। हालांकि देश में बच्चों के शिक्षा से संबंधित अधिकार समान रूप से लागू है। जिसमें चैदह साल तक के बच्चों के लिए अनिवार्य रूप से शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया गया है। इस संबंध में राज्य को यह जिम्मेदारी दी गई है। शिक्षा के अधिकार के तहत प्राइमरी सतह के स्कूलों में छात्र-छात्राओं को सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करवाए जाने पर विशेष रूप से जोर दिया गया है। इसी का एक हिस्सा स्कूलों में मिलने वाला दोपहर का भोजन भी शामिल है। इतना ही नहीं देश भर में छह साल तक के बच्चों के लिए आंगनबाड़ी पर विशेष जोर दिया गया है। इसके साथ ही गर्भवती महिला को पौश्टिक आहार उपलब्ध कराई जाती है ताकि दुनिया में आने से पहले बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में कोई बाधा उत्पन्न न हो सके। मगर यह अपना काम करती हैं या नहीं यह तो हर हिंदुस्तानी अपने अपने मोहल्ले की आंगनबाड़ी का जायजा ले तो बखूबी समझ सकता है। यह और बात है कि लोग ऐसा करने की आवश्यधकता महसूस नहीं करते हैं हालांकि सरकार इस पर खर्च होने वाला पैसा जनता की जेबों से ही वसूलती है। परंतु हम में से अधिकतर इसका हिसाब लेना जरूरी नहीं समझते हैं।

बहरहाल विशेष राज्य का दर्जा रखने वाले राज्य जम्मू कश्मींर का सबसे संवेदनशील क्षेत्र पुंछ में भी बाल मजदूर मौजूद हैं। हाल ही में मीडिया की सुर्खियों में आया यह वही क्षेत्र है जहां कुछ दिनों पहले पाकिस्तान ने फौजी कानून का उल्लंघन करते हुए भारतीय जवानों की हत्या के बाद उनके शव को क्षत-विक्षित कर दिया था। सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण पुंछ सदैव संवेदनशील इलाका रहा है। वर्तमान समय में पुंछ उस वक्त सुर्खियों में आता है जब सरहद के दोनों ओर से गोलियां चलती हैं। यदि गोली किसी फौजी को लगती है तो वह खबर बनती है लेकिन इससे हताहत होने वाले स्थानीय निवासियों की किसी को चिंता नहीं रहती है। बंदूक और गोलियों के बीच घिरे लोग अपनी जिंदगी किस प्रकार गुजारते होंगे, बच्चों के लिए शिक्षा के किस प्रकार के इंतजाम होंगे इसकी चिंता किसी को ही शायद होगी। कठिन परिस्थिती के कारण ही यहां के नौनिहाल न सिर्फ शिक्षा से वंचित हैं बल्कि बड़े पैमाने पर बाल मजदूर की तादाद भी है। चैंकाने वाली बात यह है कि जिन अध्यापकों पर बच्चों के शिक्षा की जिम्मेदारी है वही उन्हें फसल कटाई के दौरान मजदूर के रूप में इस्तेमाल करने से भी बाज़ नहीं आते हैं। इलाके की एक छात्रा गौसिया के अनुसार ‘‘हमारा स्कूल मुहल्ला तराई में स्थित है। इस में करीब सौ बच्चे हैं। जिनकी शिक्षा का जिम्मा केवल दो शिक्षकों पर है। वह भी कभी स्कूल आते हैं और कभी नहीं।‘‘ पाठकों को अंदाज़ा लगाना अधिक मुश्किल नहीं होगा कि शिक्षा के अधिकार कानून का लाभ इस क्षेत्र के बच्चों को कितना मिल पा रहा है। ऐसी कड़वी सच्चाई देश के तकरीबन सभी राज्यों में समान रूप से मिल जाएगी। प्रष्न उठता है कि आखिर इसका उपाय क्या है? देश के नौनिहालों के बचपन से खिलवाड़ करने वालों को सज़ा का प्रावधान है, इसके बावजूद इसका उल्लंघन कैसे होता है? शायद इन प्रश्नोंड का उत्तर तबतक नहीं मिल सकता है जबतक समाज की समूची भागीदारी तय नहीं की जाती है। (चरखा फीचर्स)

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