(मधुगीति १८०८०१ अ)
कहाँ जाने का समय है आया,
कहाँ संस्कार भोग हो पाया;
सृष्टि में रहना कहाँ है आया,
कहाँ सृष्टि से योग हो पाया !
सहोदर जीव कहाँ हर है हुआ,
समाधि सृष्ट कहाँ हर पाया;
समादर भाव कहाँ आ पाया,
द्वैत से तर है कहाँ हर पाया !
बीज जो बोये दग्ध ना हैं हुए,
जीव भय वृत्ति से न मुक्त हुए;
भुक्त भव हुआ कहाँ भव्य हुए,
मुक्ति रस पिया कहाँ मर्म छुए !
चित्त चितवन में कहाँ है ठहरा,
वित्त स्वयमेव कहाँ है बिखरा;
विमुक्ति बुद्धि है कहाँ पाई,
युक्ति हो यथायथ कहाँ आई !
नयन स्थिर चयन कहाँ कीन्हे,
कहाँ मोती हैं हंसा ने बीने;
कहाँ ‘मधु’ उनकी शरण आ पाया,
पकड़ हर चरण कमल कब पाया !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’