जगजीत शर्मा
ठंडक धीरे-धीरे गहराती जा रही है। कई शहरों में पारा शून्य या उसके आसपास पहुंच चुका है। पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी शुरू हो जाने से हिमालयी क्षेत्रों में पर्यटकों की संख्या बढऩे लगी है। ये वे पर्यटक हैं, जो कई महीनों पहले बर्फबारी का आनंद उठाने की योजना बना चुके थे और सर्दियां शुरू होते ही बर्फबारी का इंतजार कर रहे थे। क्रिसमस और नए वर्ष के आगमन पर हिल स्टेशनों की रौनक कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। यह शीत ऋतु का एक चेहरा है। यह चेहरा चमकीला है, पैसे की खनक है और है जीवन की सारी खुशियों को समेट लेने का जज्बा। इसका दूसरा चेहरे पर चिंता है, परेशानी है और मौत की लगातर नजदीक आती जा रही आहट है। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर कई राज्यों में जैसे-जैसे ठंड बढ़ती जाती है, गरीब और बेघरों के चेहरे का पीलापन बढ़ता जाता है। यह पीलापन होता है मौत की आहट का। पिछले कुछ सालों से 15 दिसंबर से 31 जनवरी के बीच पडऩे वाली ठंड की तीव्रता बढ़ती जा रही है। आज से लगभग ढाई-तीन दशक पहले जाड़ा पूरे तीन महीने तक पड़ता था। अक्टूबर में पडऩे वाले दशहरे से गुलाबी ठंडक शुरू हो जाती थी और दीपावली से हाफ स्वेटर पहनना मजबूरी हो जाती थी। इसके बाद ठंडक का मौसम जनवरी के अंतिम तक रहता था। लेकिन अब नवंबर के अंतिम सप्ताह या दिसंबर के पहले सप्ताह में ऐसा महसूस होता है कि जाड़ा आ गया। 20-25 दिसंबर से पूरी जनवरी तक हाड़ कंपा देने वाली ठंडक उन लोगों के लिए जानलेवा साबित होती है जिनका कोई आसरा नहीं होता। जिनके पास पहनने-ओढऩे का कोई ढंग का कपड़ा नहीं होता है। फुटपाथ, पार्कों या दूसरी जगहों पर खुले में रात बिताने को मजबूर लोगों के लिए यही ठंडक जान लेवा साबित होती है। विभिन्न आपदाओं में हजारों करोड़ रुपये खर्च कर देने वाली केंद्र और राज्य सरकारें ठंडक को लेकर गंभीर दिखाई नहीं देती हैं। वर्ष 2012 में जब दिसंबर के आखिरी दिनों में तापमान सामान्य से 5 डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया, तो राष्ट्रीय जलवायु केंद्र की अनुशंसा पर केंद्र सरकार ने ठंडी हवाओं या शीत लहर को प्राकृतिक आपदाओं की सूची में रखा। शीत लहर के प्राकृतिक आपदा सूची में शामिल हो जाने के कारण इससे प्रभावित होने वाले लोग सरकारी सहायता के हकदार हो गए, लेकिन आज तक कितने लोगों को यह सहायता प्रदान की गई, इसका आंकड़ा शायद ही सरकार के पास हो। सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र और राज्यों को बेघर लोगों को बेहतर आश्रय प्रदान करने आदेश दे रखा है, लेकिन इसके बावजूद इस मामले में लापरवाही बरती जाती है।
एक अनुमान के मुताबिक देश में प्रति वर्ष लगभग 781 लोगों की मौत ठंड से हो जाती है। अगर हम पिछले 14 वर्षों में ठंड से हुई मौतों के बारे में विचार करें, तो वर्ष 2001 से 2014 के बीच ठंड लगने से लगभग 10,933 लोगों की मौत हो चुकी है। ओपन सरकारी डाटा (ओजीडी) से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र वाले स्त्री-पुरुषों के मुकाबले में 45 से 59 उम्र वाले स्त्री-पुरुषों की मौत ज्यादा हुई है। इसमें भी पुरुषों की संख्या सबसे ज्यादा 3,139 रही है, जबकि इस समयांतराल में 466 महिलाओं की मौत हुई है। साठ साल से अधिक उम्र के लोगों में स्त्रियों की संख्या ज्यादा रही है। ठंड के सबसे आसान शिकार अधेड़ या बुजुर्ग स्त्री-पुरुष होते हैं क्योंकि इस उम्र में ठंड और रोगों से लडऩे की प्रतिरोधक क्षमता काफी कम हो जाती है। अगर इस आधार पर विश्लेषण करें, तो पाते हैं कि ठंड से मरने वाली बेघर महिलाओं की तुलना में बेघर पुरुषों की संख्या पांच गुनी है। पिछले चौदह सालों में ठंड की चपेट में आने से जहां 1,780 महिलाओं की जान गई है, वहीं ठंड से मरने वाले पुरुषों की संख्या 9,152 दर्ज की गई है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि स्त्रियों के मुकाबले पुरुष अपने मूल निवास से रोजी-रोजगार के लिए ज्यादा विस्थापित होते हैं। गरीब तबके के लोग दिल्ली, लखनऊ, पटना, जालंधर, चंडीगढ़ जैसे शहरों में कमाने के लिए आते हैं, तो उनके परिवार की महिलाएं घर पर ही रह जाती हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में प्रति 1,000 बेघर पुरुषों पर 694 बेघर महिलाएं हैं। ग्रामीण इलाकों में यह अनुपात प्रति एक हजार पुरुषों पर 878 और शहरी क्षेत्रों में 558 बैठता है।
पिछले चौदह सालों में सबसे ज्यादा एक हजार लोगों की मौत वर्ष 2012 में हुई थी। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दस सालों में उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा ठंड से प्रभावित राज्य रहा है। पिछले चौदह सालों में सबसे ज्यादा मौतें उत्तर प्रदेश में ही हुई हैं। इसके बाद बिहार, राजस्थान और पंजाब रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बेघर लोगों की संख्या भी कुल बेघरों के मुकाबले में सबसे अधिक 18.56 फीसदी है। वहीं पंजाब में 15.93 फीसदी एवं बिहार में बेघरों की जनसंख्या 15.99 फीसदी है। अफसोस की बात तो यह है कि ठंड को प्राकृतिक आपदा सूची में शामिल किए जाने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश दिए जाने के बावजूद प्रतिवर्ष शीत लहरी के दिनों में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लापरवाही बरती जाती है। कमजोर आर्थिक आय
वाले लोगों और बेघरों को बेहतर आश्रय मुहैया कराने के मामले में उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक की सरकारों का रिकॉर्ड कोई अच्छा नहीं रहा है। दिल्ली में दस-बारह जगह रैन बसेरे भले ही बने दिखाई देते हों, लेकिन दिल्ली के बेघरों की संख्या के अनुपात में ये ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होते हैं। ऊपर से अभी कुछ ही दिन पहले दिल्ली में रेलवे विभाग ने अपनी जमीनों पर बसी झोपड़ पटिट्यों को उजाड़ कर बेघरों की संख्या में इजाफा ही किया है। वैसे भी पिछले कुछ सालों से शहरी क्षेत्रों में बेघरों की संख्या बढ़ती जा रही है। अगर हम आंकड़ों के आधार पर देखें, तो 2001 से 2011 के दौरान शहरी क्षेत्रों में बेघरों की संख्या में 20.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जबकि ग्रामीण बेघर की संख्या में 28.4 फीसदी कमी आई है। यह समस्या तब तक बनी रहेगी, जब तक शहरों में स्थायी आश्रयों का निर्माण नहीं किया जाता है। होता यह है कि सरकारें हर साल अस्थायी आश्रयों का निर्माण करती हैं, ठंडक बीतने के बाद वे उजाड़ दिए जाते हैं या लोग उन्हें उखाड़ ले जाते हैं। अगर सरकारें इसे स्थायी समस्या मानकर स्थायी निर्माण करें, तो यह समस्या किसी हद तक सुलझ सकती है।