पर आखिर पुरूष हैं कहां

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राखी रघुवंशी

प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से महिलाओं पर हिंसा पुरूषों की सुविधाओं को बरकरार रखने का असरदार हथियार है। हमने यह देखा है कि महज़ हिंसा की धमकी औरतों को चुप्पी साधने या फिर सब बातों को मानने के लिए बाध्य कर देती है। और फिर हिंसा का शिकार हुई औरत इस हिंसा का इल्ज़ाम भी कंधों पर लेकर घूमती है। मसलन, अगर किसी औरत के साथ बलात्कार होता है तो कहा जाता है कि उत्तेजक लिबास पहने थी, अगर किसी औरत का पति पीटता है तो वह ज़बानदराज़ी कर रही थी आदि। जब किसी आदमी पर हिंसा का इल्ज़ाम लगाया जाता है तो आम नज़रिया होता है कि औरत उस आदमी से किसी बात का बदला लेना चाहती है। यह देखकर बेहद मायूसी भी होती है कि इस तरह की सोच विभिन्न देषों और संस्कृतियों में विद्यमान है और अक्सर हिंसा झेलने वाली औरत की तुलना में हिंसक को अधिकांश समाज का सहयोग अधिक मिलता है।

हम सभी जानते हैं कि औरतों पर हिंसा शरीरिक, यौनिक या भावनात्मक तरीकों से होती है। भारतीय नारीवादियों के प्रयासों के फलस्वरूप् घरेलू हिंसा कानून 2005 में आर्थिक हिंसा को भी शामिल किया गया है। औरतों व लड़कियों पर हिंसा घर, आफफिस, सड़क, शिक्षा संस्थानों, अस्पतालों, कार्य स्थल पर यानि हर जगह पर है। हिंसा करने वाले भी परिवार के सदस्य, दोस्त, साथी, कलिग कोई भी हो सकता है। इसके अलावा हिंसा किसी भी वर्ग, जाति, समूदाय की औरत पर की जा सकती है।

ऐसा नहीं है कि महिलाओं पर हिंसा अब तक बंद सीखचों में कैद है और इसे चुनौती नहीं दी गई है। औरतों ने व्यक्तिगत व सामूहिक रूप से हिंसा का विरोध व इससे संघर्ष किया है। इससे निपटने के लिए औरतों के स्वायत्त समूह, विकास संस्थाऐं, राजनैतिक दल, नारीवादी संगठन सभी एकजुट हुए हैं। समुदाय, झुग्गी बस्ती, गांवों शहरों की औरतों से लेकर उच्च वर्ग की पढ़ी लिखी महिलाऐं सभी इसके खिलाफ कभी न कभी खड़ी हुईं हैं।

पर आज हम नारीवादी यह सवाल पूछना चाहते हें कि क्या महिलाओं के साथ हिंसा सिर्फ औरतों का ही मुददा है ? अपने साथियों की तरह मैं यही मानती हू कि महिला उत्पीड़न से पुरूषों, स्त्रियों सभी को सरोकार होना चाहिए और इससे जूझने की जिम्मेदारी भी हम सभी को साझे रूप से उठानी चाहिए। पर मुझे अफसोस होता है कि जब भी महिलाओं पर हिंसा के सवाल पर पुरूषों को शामिल करने की बात होती है तो पुरूष व महिलाऐं अक्सर एक दूसरे के आमने सामने, एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े होते हैं।

काफी दशकों से महिलाओं पर हिंसा का मुददे पर पुरूष शामिल नहीं हैं तो यह इसलिए नही कि औरतों ने उन्हें दूर रखा है बल्कि इसलिए कि पुरूषों ने एक हिंसा मुक्त समाज के लिए संघर्ष में शामिल होना महत्वपूर्ण नहीं समझा है। इस समय यह भी समझना जरूरी होगा कि जंग और सैन्यवाद की विचारधाराओं पर खड़े समाज में औरतों के लिए एक हिंसा मुक्त माहौल की कल्पना करना बेमानी है। युद्ध न सिर्फ हिंसा को बड़ावा देता है बल्कि जंग में विजयी सेना औरतों के शरीर पर जघन्य अपराधों में भी शामिल होती है। और युध्द इस माहौल को वैधता प्रदान करता है।

भारत में हमें अक्सर यह भी याद कराया जाता है कि महिला अधिकारों के लिए सबसे पहले संघर्ष पुरूषों द्वारा शुरू किए गए थे। पर अब वक्त आ गया है कि औरते यह कह सकें कि राजा राम मोहन राय उन्नीसवीं शताब्दी में रहते थे। और तब से अब तक औरतों ने अपने हकों के लिए मुहिम जारी रखी है। बीसबी सदी में औरतों द्वारा औरतों के लिए काफी आंदोलन चलाए गए और संगठित भी किए गए हैं। लिहाज़ा इक्कीसवी सदी में पुरूष यह अपेक्षा न रखें कि वे महिलाओं के साथ हिंसा के संघर्षों का नेतृत्व करेंगे। इन संघर्षों में पुरूषों की शुरू करने से पहले पितृसत्ता व भौगोलिकरण ढांचों का विष्लेषण किया जाना चाहिए। पुरूषों को यह भी चाहिए कि रक्षक की पितृसततात्मक भूमिका को अस्वीकार करने की हिम्मत जुटाएं। हम सभी यह मानते हें कि एक नारीवादी पुरूष भी पितृसत्ता द्वारा मुहैया सृविधाओं को मापना होगा तथा उन फायदों की अभिव्यक्ति को भी स्वीकारना होगा जो उन्हें एक पुरूष होने के नाते मिलती हैं।

यहां यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि मैं जब भी महिला नेतृत्व वाले आंदोलन की बात करती हूं तो इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि मुझे अहिंसा और अमन पर औरतों की प्रतिबद्धता पर अंधा विश्‍वास है। पर यह याद रखना भी जरूरी है कि औरतें व लड़कियां अक्सर हिंसा का सीधा शिकार होती हैं और हिंसक अक्सर पुरूष होते हैं। कुछ औरतें भी हिंसा करती हैं, यह भी एक सच्चाई है। पर यह औरतें अक्सर पितृसत्ता के मानदंड़ों को बरकरार रखने के लिए हिंसा का रास्ता इख्तियार करती हैं। उदाहरण के लिए सास उम्मीद करती है कि उसकी बहू घर में दबकर रहे, मां चाहती है कि बेटियां ससुराल में सबसे बनाकर चलें।

हम महिला दमन के सच को नज़रअंदाज़ करेंगे अगर हम यह मान लें कि पितृसत्ता पुरूषों और औरतों को समान रूप से दबाती है। महिलाओं का शोषण और उनके उपर की जाने वाली अलग अलग तरह की हिंसा औरतों की सतताहीनता का सटीक उदाहरण है। इस तरह के अतिक्रमण के विषय संघर्ष औरतों को ही चलाने होंगे। बाकी लोग यानि पुरूष इन आंदोलनों को हिस्सा बन सकते हैं पर औरतों को सहयोग देने की नम्रता लिए।

महिला आंदोलन ने यह स्थापित कर दिया है कि औरतें एक समरूपी वर्ग नहीं हैं। इसलिए औरतों के बीच एकजुटता और कशिश की ख्वाहिष रखते हुए हमें यह ध्यान देना होगा कि हाशिए पर खड़ी औरतों की खास मांगे एक एकात्मक आंदोलन का यह प्रयास रहा है कि ज़मीनी स्तर पर कार्यरत महिला समूहों के नेतृत्व में आंदोलन चलें तथा यही महिलाऐं उन मुददों के बारे में मुखर रहे जिनसे वे सीधे तौर पर जूझती हैं। महिलाओं के साथ हिंसा के मुददे को भी इसी तरह के नेतृत्‍व और सहयोग की दरकार है।

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