जो भाषा आसेतु हिमालय के बीच सेतु

—विनय कुमार विनायक
जो भाषा आसेतु हिमालय के बीच सेतु,
काम आती परिचित-अपरिचित,
आम-खास, लोग-बाग के बोलचाल हेतु!

जिस भाषा में सूर तुलसी जैसे धूमकेतु
विश्व साहित्य के ग्रह नक्षत्रों के मध्य उभरे!

जिनकी ऊंचाई अंग्रेजी के शेक्सपियर मिल्टन तो क्या
समस्त विश्व साहित्य के कोई भी पलटन छू ना सके!

जिस भाषा की लिपि देवनागरी की वर्तनी की
वैज्ञानिकता, संवहनीयता,संप्रेषणीयता के समकक्ष
विश्व की कोई लिपि आजतक नहीं ठहर पाई!

वह भाषा केन्द्रीय कार्यालयों के काम-काज में प्रयुक्त
नहीं हो पाने के कुचक्र से अबतक क्यों नहीं उभर पाई?
जबकि चक्रव्यूह में फंसने की शर्त है
बालक या बालवत होना, मिथकीय भाषा में
अपरिपक्व अभिमन्यु, धर्मभीरु युधिष्ठिर,मोहग्रस्त अर्जुन!

तीनों एक सी स्थिति, एक दूसरे का पर्याय
जो अति परिपक्व हिन्दी के साथ शुरु से लागू नहीं होती!

व्यूहकारों का काम है स्थिति भांपकर व्यूह रचना,
वर्णा जाग्रत अर्जुन पर कोई व्यूह कभी नहीं व्यापता!

कार्यालयीन व्यूह में फंसी हिन्दी न अपरिपक्व अभिमन्यु,
न धर्मभीरु युधिष्ठिर, न मोहग्रस्त अर्जुन,फिर फंसी क्यूं?

हिन्दी को हिन्दी-अहिन्दी पाट में पीसने से बचालो,
क्षेत्रीय संकीर्णता के संकट भरे हाट-बाट से निकालो!!

ज्ञात नहीं क्या बंगाली केशव सेन,गुजराती दयानंद की
प्रचार भाषा, सुभाषचन्द्र बोस की ‘दिल्ली चलो’ उद्घोषणा,
‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का उद्घोष हिन्दी?

प्रथमतः सिद्ध सरहपा, अमीर खुसरो से उद्भूत,
ना हिन्दू ना मुस्लिम कबीर की साधुकड़ी से निकली!

धर्म जाति और क्षेत्रीयता की दीवार फांदकर संसद से
विश्व महासभा तक सारे भूखण्ड पर विस्तृत हो चुकी!

अब कितना इम्तिहान अभी बांकी,
अंग्रेजों की कितनी गुलामी अभी बांकी?
शकुनी नहीं, कमाल पाशा सा पाशा फेंको!
बहुत देर हो गई अब आशा ना देखो!

कमाल पाशा आधुनिक तुर्की का पिता निर्माता,
कमाल की भाषा नीति काबिले तारीफ की थी
रातों-रात त्याग क्लिष्ट अरबी लिपि, अपनाई भाषा देशी!

कमाल की धर्मनिरपेक्षता भी कमाल की थी
त्यागकर टोपी दाढ़ी,अपनाई आधुनिक वैज्ञानिकता,
दिमाग जो बर्वर था, खेती जो बंजर थी, हुए उर्वर!

कमाल पाशा के क्रांति जीवन का आदर्श
भारतीय क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल थे
जिनकी शहादत पर पाशा ने तुर्की में बसाया बिस्मिल शहर
अपनी बुराई त्याग, पराई अच्छाई अपनाना ही मानवता है!

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