महर्षि दयानन्द कैसी समता चाहते थे?

pakhandमहर्षि दयानन्द सामाजिक समता के परमोपासक थे। उन्होंने सामाजिक असमता के लिए भिन्न-भिन्न मतों के प्राबल्य को उत्तरदायी माना। इसलिए वह विभिन्न मतों को समाप्त करके देश में एक मत = ‘वेदमत’ की स्थापना के स्पष्ट पक्षधर थे। उन्होंने लिखा–‘‘उस समय सर्व भूगोल में एक मत था। उसी में सबकी निष्ठा थी और सब एक थे। सभी भूगोल में सुख था। अब तो बहुत से मत वाले होने से बहुत सा दु:ख और विरोध बढ़ गया है। इसका निवारण करना बुद्घिमानों का काम है। परमात्मा सबके मन में सत्य का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या मत शीघ्र ही प्रलय को प्राप्त हों। इसमें सब विद्वान लोग विचारकर विरोधभाव छोड़ के अविरूद्घ मत के स्वीकार से सब जने मिलकर सबके विरोधभाव छोड़ के अविरू( मत के स्वीकार से सब जने मिलकर सबके आनन्द को बढ़ावें।’’ (स. प्र. स. 10, 185)

उन्होंने अन्यत्र लिखा–‘‘जब तक मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मत मतान्तर का विरूद्घ वाद न छूटेगा, तब तक अन्याय का अंत न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या, द्वेष छोड़, सत्यासत्य का निर्णय करके, सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहें तो हमारे लिए यह बात असाध्य नही है।

यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सबको विरोध जाल में फँ सा रखा है, यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फँसकर सबके प्रयोजन को सिद्घ करना चाहें तो अभी ऐकमत्य हो जायें।’’

(स. प्र. स. 11, 186)

इससे स्पष्ट है कि महर्षि दयानन्द ऐकमत्यता की प्रतिपादिका समता के समर्थक थे। महर्षि दयानन्द अंगूर के समान रसभरी सामाजिक एकता के पक्षधर थे। जबकि हमारा संविधान अंगूर के स्थान पर सन्तरा जैसी समता का उपासक है। वह सन्तरा की फ ाडिय़ों की भांति समाज में विभिन्न सम्प्रदायों का अस्तित्व बनाये रखकर उनसे ऊपरी एकता की प्रत्याशा करता है। संविधान की यह प्रत्याशा ही इसके चिन्तन पर पश्चिमी जगत का प्रभाव परिलक्षित करती है।

स्वतन्त्रता का अधिकार

अनुच्छेद 19-संविधान के अनुच्छेद 19 के द्वारा नागरिकों को सात प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। जिन्हें 44 वें संवैधानिक संशोधन 1978 द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को निकालकर अब छ: कर दिया गया है। ये छ: प्रकार की स्वतन्त्रताऐं निम्नवत हैं :-

(1) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता।
(2) शान्तिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के सभा सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता।
(3) संघ या संस्था बनाने की स्वतन्त्रता।
(4) देश के भीतर घूमने फि रने की स्वतन्त्रता।
(5) देश के किसी भी भाग में निवास करने और बसने की स्वतन्त्रता।
(6) कोई भी व्यवसाय या धन्धा आरम्भ करने की स्वतन्त्रता।

अनुच्छेद 20-अपराधों के लिए दोषसिद्घि के सम्बन्ध में संरक्षण या दोषी ठहराये जाने के बारे में बचाव-

(1) किसी कानून को भंग करने पर एक अपराध के लिए एक बार से अधिक केस न चलाया जायेगा और न ही एक बार से अधिक सजा दी जायेगी।
(2) किसी कानून को भंग करने पर ही व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है।
(3) किसी व्यक्ति को अपने विरूद्घ गवाही देने के लिए मज़बूर नही किया जायेगा।

अनुच्छेद 21 में जीवन की सुरक्षा तथा अनुच्छेद 22 में कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण की स्वतन्त्रता का उल्लेख किया गया है। वास्तव में ये स्वतन्त्रता वेद के ‘स्वराज्य’ की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं। वेद ने जिस स्वराज्य का उद्बोधन कर उन्नत मानव समाज की कल्पना की है, उस मानव समाज के लिए इस प्रकार के मौलिक अधिकारों की अतीव आवश्यकता है। इन स्वतन्त्रताओं के शत्रु आततायियों के लिए वेद निर्देश करता है –

प्रेहय भीहि घृष्णुहि–अर्चन्ननु स्वराज्यम्। ( 1/80/3)

‘‘स्वराज्य का आदर करते हुए सेनापति, तू शत्रु के सम्मुख जा, उसे घेर कर नष्ट कर दे।’’

स्वतन्त्रता सुरक्षित कब रहेगी? जब प्रजा स्वभावत: नियमों का पालन करती हो। वेद ने कहा है –

व्रतान्यस्य सश्चिरे पुरूणि। (अथर्व 20/109/3)

अर्थात् स्वराज्य में प्रजा नियमों, मर्यादाओं का और अपने कत्र्तव्यों का पालन करती है। वेद स्वतन्त्रता की रक्षा का उपाय भी बताता है:-

नमसा सह: सपर्यन्ति प्रचेतस:। (अथर्व. 20/109/3)

विद्वान स्वराज्य रूपी शक्ति की नमस्कार के साथ पूजा करते हैं। यहाँ नमस्कार का अर्थ दूसरों की स्वतन्त्रता का सम्मान करना भी है। जब हम दूसरों की स्वतन्त्रता का या मौलिक अधिकारों का हृदय से सम्मान करना सीख जाते हैं, तभी हमारे अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हो पाना सम्भव है। अनुच्छेद 19 में जो स्वतन्त्रताऐं भारत के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त की गयी हैं ये सारी की सारी वो स्वतन्त्रताऐं हैं जो प्राचीन काल से ही भारत में जनसाधारण को प्रदान की जाती रही थीं। हम स्वतन्त्रता के इस मौलिक अधिकार को वेद और महर्षि दयानन्द के चिन्तन के सर्वाधिक निकट मानते हैं। मनुष्य का विकास तभी सम्भव है जब उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज उसे कुछ खुलापन दे, कुछ खुली हवा में घूमने, फि रने और साँस लेने का अवसर उपलब्ध करायें। उसके व्यक्तित्व पर और व्यक्तित्व के विकास पर अपने किसी रूढि़वादी दृष्टिकोण या मान्यताओं का पहरा न बैठाये। उड़ते हुए पक्षी के यदि आप पंख ‘कैच’ कर देंगे तो वह उड़ नही पायेगा। पंख ‘कैच’ करना अमानवीयता है, पंखों को यथावत छोड़े रखना मानवता है और किसी ‘पंखहीन’ को पंख दे देना, मानव स्वभाव की दिव्यता है। ये स्वतन्त्रताऐं महर्षि के इसी दिव्य चिन्तन तक प्रदान की जानी चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे के लिए ऐसे ही दिव्य भावों से भर जाये तो दिव्य मानव समाज का निर्माण किया जा सकता है। हमारा संविधान इस प्रकार की स्वतन्त्रताओं को प्रदान करके ही दिव्य मानव समाज की स्थापना करता जान पड़ता है।

वेद का आदेश है –

ओ३म्। यद्वामीमचक्षसा मित्रा वयं च सूरय:।
व्यचिष्ठे बहुपावये यतेमहि स्वराज्ये।। (ऋ. 5/66/6)

इसकी व्याख्या करते हुए स्वामी विद्यानन्द जी तीर्थ अपनी पुस्तक स्वाध्याय सन्दोह मे कहते हैं :-

‘‘संसार में क्षुद्र से क्षुद्र कोई ऐसा प्राणी न मिलेगा, जो अपनी गतिविधि में प्रतिबन्ध को पसन्द करे। सभी चाहते हैं कि उनकी गति निर्बाध रहे। वेद में मार्ग के सम्बन्ध में प्रार्थना है कि वह ‘अनृक्षर:’ अर्थात काँटों से रहित हो। काँटे मार्ग की बाधा हैं। बाधा से रहित मार्ग प्रशस्त माना जाता है, और प्रशस्त होता भी है। ऐसी स्थिति में स्वराज्य की कामना अस्वाभाविक नही, अत: अपराध भी नही। जो दूसरे की गतिविधि में प्रतिबन्ध लगाता है, जब कभी उसकी गतिविधि पर प्रतिबन्ध लगता है, तब उसे ज्ञात होता है कि स्वाधीनता=स्वतन्त्रता=स्वराज्य क्या वस्तु है।’’

 

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