कौन है आदिवासी : एक विश्लेषण

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अनिल अनूप
आदिवासियों के लिए सबसे बड़ी परेशानी की वजह क्या है? इस बात के ढेरों जवाब हो सकते हैं लेकिन आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, आसाम, झारखंड और ओडिशा के आदिवासियों की हालत देखें तो इसका सीधा जवाब मिलता है- जल, जंगल और जमीन। आजादी के बाद से लगातार जल, जंगल और जमीन के कारण उन्हें बार-बार विस्थापित होना पड़ा है और भला अनचाहे विस्थापन से बड़ा दर्द क्या हो सकता है?
देश में लगभग 11 करोड़ आदिवासियों की आबादी है और विभिन्न आंकड़ों की मानें तो हर दसवां आदिवासी अपनी जमीन से विस्थापित है। पिछले एक दशक में ही आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा मंे जो 14 लाख लोग विस्थापित हुए, उनमें 79 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। दुर्भाग्यजनक ये है कि आदिवासियों के विस्थापन का यह सिलसिला अनवरत जारी है।
अब छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले को ही लें। लगभग 70 फीसदी आदिवासी आबादी वाले इस जिले में 122 उद्योगों की स्थापना के लिए 6023 वर्ग किलोमीटर जमीन की मांग की गई है, जबकि जिले का कुल क्षेत्रफल 6205 वर्ग किलोमीटर है।
छत्तीसगढ़ का इतिहास जितना प्राचीन है, उतने ही प्राचीन आदिवासी भी है। छत्तीसगढ़ की पहचान उसके जंगल और आदिवासियो के लिए है। पर, पिछले कुछ वर्षों में इस्पात, लोहा संयंत्र और खनन परियोजना ने आदिवासियों का जीवन संकट में डाल दिया है। बस्तर, दंतेवाड़ा जिलों मंे जहां नक्सलवाद के कारण आदिवासियों का जीवन दूभर हो गया है, तो सरगुजा और जशपुर जिले में खनिज संसाधनों का दोहन और सरकारी उपेक्षा आदिवासी समाज के लिए खतरा बन चुका है।
हालत ये है कि राज्य के जशपुर जिले में बसने वाली असुर जाति की जनसंख्या केवल दो सौ पच्चासी (285) रह गई है। असुर जनजाति पूरे छत्तीसगढ़ में जशपुर और सरगुजा जिले में ही निवास करती है। पूर्व में असुर वनों पर पूरी तरह आश्रित थे और पत्थरों को गलाकर लोहा बनाते थे। पत्थरों को गलाकर लोहा बनाने वाली ये विशेष पिछड़ी जनजाति अब विलुप्ति के कगार पर है। नई तकनीक के आ जाने के कारण इनके परंपरागत व्यवसाय पर ग्रहण लग चुका है और किसी और काम में कुशलता नहीं होने से इनके सामने रोजगार का संकट आ खड़ा हुआ है। आश्चर्यजनक है कि असुर जनजाति के संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा मंे छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। अविभाजित मध्यप्रदेश में दूसरी जनजातियों के लिए करोड़ों रुपए की योजनाएं चलाई गईं लेकिन असुर जनजाति इन सारी योजनाओं से दूर ही रखी गई। छत्तीसगढ़ राज्य में 5 विशेष पिछड़ी जनजातियों अबूझमाडि़या, कमार, पहाड़ी कोरबा, बिरहोर एवं बैगा के विकास के लिए विशेष अभिकरण का गठन किया गया है। असुर जनजाति को तो इस अभिकरण में शामिल ही नहीं किया गया है, लेकिन इस अभिकरण में शामिल बिरहोर जनजाति तमाम सरकारी दावों के बाद भी खत्म होती जा रही है। छत्तीसगढ़ में आज इनकी संख्या केवल 401 रह गई है। पहाड़ी कोरवा जनजाति की संख्या भी पिछले कुछ सालों में घटते-घटते 10,825 रह गई है।
असुर और बिरहोर जनजातियों के साथ एक बड़ा संकट ये भी है कि जंगल के इलाकों में रहने के कारण आमतौर पर सरकार संचालित योजनाएं इन तक नहीं पहुंच पाती। केंद्र और राज्य सरकार की रोजगार गारंटी योजना सहित दूसरी योजनाओं से ये आदिवासी पूरी तरह दूर हैं। जंगलों में भोजन की उपलब्धता के कारण कुपोषण और बीमारी इनके लिए जानलेवा साबित हो रही है। ऊपर से इलाके में होने वाला औद्योगिकरण की मार इन पर पड़ रही है और इन्हें अपनी जमीन और परंपरागत व्यवसाय से विस्थापित होना पड़ रहा है। बड़ी खनन कंपनियां इन जनजातियों के रहवासी इलाकों मंे खनन कर रही हैं और इन आदिवासियों को अपनी जमीन से विस्थापित होना पड़ रहा है। शिक्षा से कोसों दूर होने के कारण इन्हें इन कंपनियों में कोई काम नहीं मिल रहा है। यहां तक कि श्रमिको के तौर पर भी इन आदिवासियों को इन कंपनियों मंे काम नहीं मिल रहा क्योंकि अधिकांश कंपनियों में उत्खनन का काम मशीनों से हो रहा है और मानव श्रम के लिए ये कंपनियों बाहरी श्रमिकों पर निर्भर है।
सरकारी लापरवाही का आलम ये है कि इन दोनों जनजातियों की कुल जनसंख्या 686 की शिक्षाए रोजगार, स्वास्थ्य समेत दूसरी मूलभूत सुविधाओं का कोई भी आंकड़ा राज्य सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। ऐसे में भला आदिवासियों के विकास की बात कैसे की जा सकती है?
आदिवासी कौन ?
कुछ लोग बातचीत या लेखन में प्रायः कुछ विशेष रंग-रूप वाले लोगों के लिए ‘आदिवासी’ शब्द का प्रयोग करते हैं। सच तो यह है कि अंग्रेजों ने उनमें और शेष भारतवासी हिन्दुओं में फूट डालने के लिए यह शब्द गढ़ा था। उन्होंने कहा कि भारत के शहरों और गांवों में रहने वाले हिन्दू तो आर्य हैं, जो बाहर से आये और व्यापार तथा खेती पर अधिकार कर लिया। उन्होंने यहां के मूल निवासियों को वन और पर्वतों में खदेड़ दिया। अंग्रेजों ने कई इतिहासकारों को अपने जाल में फंसाकर यह सिद्धान्त पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल करा लिया। इस कारण गुलामी काल में हम यही पढ़ते और समझते रहे।
पर अंग्रेजों के जाने के बाद भी इतिहास की इस भयानक भूल को सुधारा नहीं गया। यह सिद्धान्त पूर्णतः भ्रामक है। जैसे नगरों में रहने वाले नगरवासी हैं, वैसे ही ग्रामवासी, पर्वतवासी और वनवासी भी हैं। मौसम, खानपान और काम के प्रकार से लोगों के रंग-रूप में परिवर्तन भले ही हो जाए; पर इससे वे किसी और देश के वासी नहीं हो जाते। श्रीराम ने लाखों वर्ष पूर्व इन्हीं वन और पर्वतवासियों को साथ लेकर तब से सबसे बड़े आतंकवादी रावण को मारा था।
श्रीराम और श्रीकृष्ण का वंशज होने के नाते मैं तो स्वयं को इसी भारतभूमि का आदिवासी मानता हूं। मेरे पुरखे लाखों-करोड़ों वर्ष से यहीं रह रहे हैं। जो अंग्रेज और अंग्रेजपरस्त इतिहासकारों के झूठे सिद्धान्तों पर विश्वास कर स्वयं को भारत का आदिवासी नहीं मानते, मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि वे किस देश, दुनिया या ग्रह के आदिवासी हैं; वे कितने साल या पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं; वे कब तक इस पावन धरा पर बोझ बन कर रहेंगे और अपने पुरखों के संसार में ही क्यों नहीं चले जाते ?
गंगा-ब्रह्मपुत्रा के मैदानी भाग में ‘होमोसेपियन’ मनुष्यों की उपस्थिति का एक प्रमाण मिला है. इससे इस बात की पुष्टि होती है कि आज से दस हजार वर्ष पूर्व मनुष्य रूप में मनुष्य का अस्तित्व भारतीय उपमहाद्वीप में था. अन्य इतिहासकारों ने भी इस बात का छिटपुट उल्लेख किया है और पुरातत्ववेत्ताओं ने उस मनुष्य जाति को ‘नेग्रिटो’ नाम दिया है. ये लोग दक्षिण अफ्रिका से लेकर और उसके आगे पूर्व दक्षिण के देशों में भी फैले हुए थे. भारत में निवास करने वाली अधिकांश आदिवासी जातियां उन्हीं की संतान हैं. इन लोगों ने आर्यों के आने के पूर्व यहां मनुष्य की आदिम सभ्यता का विकास किया, वनों से अच्छादित और दलदली जमीन को रहने लायक बनाया, खाद्य, अखाद्य की पहचान का ऐतिहासिक कार्य किया और कई तरह के अन्न एवं वनस्पति उगाने की पद्धति की खोज की. मोहनजोदड़ो-हड़प्पा की सभ्यता इन आदिवासियों की ही विरासत है या नहीं इस पर अभी पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इधर प्राप्त कुछ खोजों में इस बात के संकेत मिले हैं कि आदिवासियों का मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता से घनिष्ठ संबंध रहा है.
ज्ञातव्य है कि सन् 1921 में दो भारतीय पुरातत्ववेत्ताओं ने मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यताओं को खोज निकाला था और भारतीय इतिहास कम से कम पांच छह हजार साल पीछे पहुंच गया था. उसके बाद के वर्षों में मोहनजोदड़ो हड़प्पा की श्रृंखला के दर्जनों अन्य शहरों के अवशेष खोज निकाले गये हैं और इन अवशेषों से प्राप्त आलेखों, ताम्र पट्टों से जो जीवन-दर्शन परिलक्षित होता है, उसका अद्भुत साम्य आदिवासी जनता के जीवन-दर्शन, उनके मिथकों रूपकों से है. इस तथ्य के गहन जांच पड़ताल और खोजबीन का काम भागलपुर में 90 के दसक के प्रारंभिक वर्षों में परिवहन पदाध्किारी के रूप में पदस्थापित निर्मल कुमार वर्मा कर रहे थे जिनकी बाद में मृत्यू हो गयी. उनकी खोजबीन का आधार थे साहबगंज में गंगा किनारे बसे आदिवासी. उनका दावा था कि मोहनजोदड़ो हड़प्पा से प्राप्त करीब ढाई हजार संकेत समूहों के अर्थ उन्होंने समझ लिये हैं और उनकी खोजबीन का निष्कर्ष यह है कि आदिवासी जनता ही मोहनजोदड़ो हड़प्पा की सभ्यता की वारिस हैं.
इतिहासवेत्ताओं के कथनानुसार समकालीन सुमिरेया बेबिलोनिया की सभ्यता से भी बढ़ी चढ़ी सिंधुघाटी की इस सभ्यता को आज से साढ़े तीन-चार हजार वर्ष पूर्व पश्चिमोत्तर भागों से प्रवेश करने वाले आक्रामक आर्यों ने नष्ट कर दिया. वेदों में आर्यों ने कम से कम नब्बे छोटे बड़े किलों को नष्ट करने की बात स्वीकारी है और स्वयं को ‘पुरूइंद्र’ से विभूषित किया है. खैर, इन सब बातों पर यहां विस्तार से चर्चा करने का अवकश नहीं, मोहनजोदड़ो-हड़प्पा से कुछ नरकंकाल भी प्राप्त हुए थे. अधिकतर नरकंकाल भूमध्य सागरीय जाति के हैं, भारत उपमहाद्वीप में उस उपजाति को द्रविड़ों की संज्ञा दी जाती है. इन द्रविड़ों में और आदिवासियों में क्या रिश्ता है, यह अभी खोज का विषय है, लेकिन आदिवासी भाषा परिवार और द्रविड़ भाषा समूह में निकटता के प्रमाण प्राप्त हुए हैं.
गौरतलब यह है कि इतिहास के उस आदिम काल से आर्य और उनके द्वारा अनार्य के रूप में परिभाषित आदिवासी साथ रहते आये हैं लेकिन किसी भी उपलब्ध इतिहास ग्रंथ में इस बात की चर्चा नहीं कि सिंधूघाटी की सभ्यता से आर्यों द्वारा खदेड़े गये ‘नेग्रिटो’ जाति के उस मनुष्य समुदाय का क्या हुआ? उनका जीवनयापन कैसे चल रहा था? वे कहां गये? उन्होंने अपना अस्तित्व कैसे बचाया? वैसे ‘नेग्रिटो’ जाति के उन संघर्षशील मनुष्यों का इतिहास एक छाया की भांति इस भारतीय उपमहाद्वीप में आर्यों के इतिहास के साथ जुड़ा रहा है और इसको क्रमबद्ध रूप में रख कर उनके इतिहास की रूपरेखा तैयार की जा सकती है. इारखंडी आंदोलन से जुड़े कुछ बुद्धिजीवी इस प्रयास में लगे भी हैं.
आर्यों से सैकड़ों-हजारों वर्ष तक सतत संघर्ष करते और उनके छल प्रपंच के हाथों पराजित होते आदिवासी अपनी उर्वरा जमीन छोड़ घने जंगलों, पहाड़ों-कंदराओं में प्रवेश करते गये, जो पराजित हो पकड़े गये और दास बने, उन्हें आर्यों की वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ श्रेणी में रखा गया. आर्यों के यहां आने के बाद भी अनेक जातियों ने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया, लेकिन चूंकि उनमें से अधिकतर आर्य जाति की ही शाखा-उपशाखाएं थी, इसलिए उन्हें आर्यों द्वारा स्थापित भारतीय समाज में जज्ब होते देर न लगी, लेकिन आदिवासियों से मौलिक भिन्नता की वजह से वे आदिवासियों को अपने में जज्ब नहीं कर सके. इसके लिए प्रयास भी नहीं किया गया, क्योंकि यह दो प्रतिलोम संस्कृतियों का संघर्ष था. यदि वे उन्हे जज्ब करने का प्रयास करते तो उनकी अपनी संस्कृति ही खत्म हो जाती, उनके सामाजिक जीवन का आधर वर्णाश्रम धर्म ही खत्म हो जाता. इसके बावजूद अवांतर प्रसंगों से धर्म और रहन-सहन के तौर तरीकों में बहुत अंतर है।
आदिवासी नृत्य….
आदिवासी के अपने जनजातीय संप्रदाय हैं, जो इस्लाम या वैदिक हिंदू धर्म से अलग हैं पर तांत्रिक शैव के अधिक करीब हैं। 19 वीं सदी के दौरान ईसाई मिशनरियों द्वारा इनकी एक बडी़ संख्या का परिवर्तन कराकर ईसाई बना दिया गया। माना जाता है कि हिंदुओं के देव भगवान शिव भी मूल रूप से एक आदिवासी देवता थे लेकिन आर्यों ने भी उन्हें देवता के रूप मे स्वीकार कर लिया। आदिवासियों का जिक्र रामायण में भी मिलता है, जिसमें राजा गोहु और उनकी प्रजा चित्रकूट में श्रीराम की सहायता करती है। आधुनिक युग में एक आदिवासी बिरसा मुंडा, एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ एक धार्मिक नेता भी थे। रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि भी एक भील आदिवासी थेl
बहुत से छोटे आदिवासी समूह आधुनिकीकरण के कारण हो रहे पारिस्थितिकी पतन के प्रति काफी संवेदनशील हैं। व्यवसायिक वानिकी और गहन कृषि दोनों ही उन जंगलों के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं जो कई शताब्दियों से आदिवासियों के जीवन यापन का स्रोत रहे थे। आदिवासियों के विशेषज्ञ जे।जे। राय बर्मन के अनुसार आदिवासियों में सभी जातियां मूल आदिवासी जाति की केटेगरी में नहीं आतीं, इसी तरह मूल आदिवासियों में अनेक जनजातियां बाहर से आयी हैं। आज इन जनजातियों के लोग जहां रहते हैं वहां वे मूल रूप से नहीं रहते थे। मसलन मणिपुर के कूकी आदिवासी,मिजोरम के लूसिस जनजाति के लोग मूलतः दक्षिण चीन और चिन पर्वत के निवासी हैं। ये लोग कुछ सौ साल पहले ही स्थानान्तरित होकर भारत में आए हैं।
कूकी को ब्रिटिश शासकों ने नागा बहुल इलाकों में बसाया था। जिससे नागा और वैष्णवपंथी मैइती जनजाति के बीच में बफर जॉन पैदा किया जाए। लूसी जनजाति से सैलो का संबंध है इसके मुखिया को ब्रिटिश शासकों ने ठेकेदार के रूप में बढ़ावा दिया जिससे वह मिजोरम में सड़कें बनाए। इस तरह अन्य जगह से लाकर बसाए गए आदिवासियों की बस्तियों का दायरा धीरे-धीरे त्रिपुरा तक फैल गया। जिसे इन दिनों तुइकुक के नाम से जानते हैं। यहा त्रिपुरा के राजा की नीति थी ,उसने अपने राज्य में रियांग और चकमा जनजाति के लोगों को बाहर से लाकर बसाया। जिससे कॉटन मिलों के लिए झूम की खेती के जरिए कॉटन का अबाधित प्रवाह बनाए रखा जा सके।
बोडो जनजाति के लोग मूलतः भूटान के हैं और बाद में वे असम में आकर बस गए। टोटोपारा इलाके के टोटो जनजाति के लोग भूटान से आकर उत्तर बंगाल की सीमा पर आकर बस गए। इनमें अनेक ऐसी जनजातियां भी हैं जो एक जमाने में अपराधी जाति के रूप में ही जानी जाती थीं उन्हें भूटान के राजा ने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था। मेघालय में रहने वाली खासी जनजाति के लोग मूलतः कम्पूचिया के हैं और माइग्रेट होकर कुछ सौ वर्ष पहले ही मेघालय में आकर बसे हैं। ये खमेर जनजाति का अंग हैं। देंजोंग भूटिया जनजाति जो सिक्किम की वफादार जनजाति है ,वह तिब्बत से आकर बसे हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल के वीरभूम और मिदनापुर जिले से माइग्रेट करके संथाल जनजाति के लोग झाररखण्ड के संथाल परगना में जाकर बस गए हैं। ये ऐतिहासिक तथ्य हैं।
लेकिन इस ऐतिहासिक तथ्य से मनुष्य कहलाने का अधिकार नहीं छीन जाता। जब तक जंगल तथाकथित सभी लोगो को डराता रहा तब तक उसमे निवास करने वाले आदिवासी सुरक्षित थे। प्रकृति की गोद में अलमस्त सी जिन्दगी से इन्हें कोई शिकवा शिकायत भी नहीं थी। लेकिन पैसे की भूख तथाकथित सभ्य मानव को जंगल तक खींच लाई और आदिवासी जंगल से बेदखल किये जाने लगे। सरकार के पास इनके पुनर्वास की कोई योजना नहीं है। अपने जल-जंगल-जमीन से बेदखल महानगरों में शोषित-उपेक्षित आदिवासी किस आधार पर इसे अपना देश कहें? बाजार और सत्ता के गठजोड़ ने आदिवासियों के सामने अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी है।
जो लोग आदिवासी इलाकों में बच गए, वे सरकार और उग्र वामपंथ की दोहरी हिंसा में फंसे हैं। अन्यत्र बसे आदिवासियों की स्थिति बिना जड़ के पेड़ जैसी हो गई है। नदियों, पहाड़ों, जंगलों, आदिवासी पड़ोस के बिना उनकी भाषा और संस्कृति, और उससे निर्मित होने वाली पहचान ही कहीं खोती जा रही है। आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के लिए इतना गहरा संकट इससे पहले नहीं पैदा हुआ। जब सवाल अस्तित्व का हो तो प्रतिरोध भी स्वाभाविक है।
इस प्रतिरोध को भुनाने की कोशिश नक्सलवाद के रूप में नजर आती है। इन्हें सर्वप्रथम यही नहीं मालूम कि नस्क्सल पंथ है क्या? भोले भाले आदिवासी सरकार और नक्सलवादी दोनों ओर से पिस रहे हैं। आज जरुरत है एक मानवीय सोच की, या तो इन्हें इनका इलाका फिर से वापस मिल जाए ताकि तथाकथित सभ्य समाज के प्रपंचो से दूर ये अपनी संस्कृति के मौलिक स्वरूप के साथ जीवन यापन कर सके या फिर समाज के मुख्यधारा में जोड़ने की कोशिश हो ताकि शहरों में आकर ये जंगली ना कहलायें।

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  1. जल, जंगल और जमीन का लगातार घटते चले जाने का मतलब ही है आदिवासियों का विनाश ।

  2. Apne likha ki angrej fut dalne ka kam kiya hai ,ap mujhe batao ki jab angrej bharat mein nahi aye the,tab se arya brahman ne warn waywastha bana kar kon sa ekta ka kam kiya,is waywastha ke calte kitno ki ijjat luti gayi,kitno ko luta gaya,kitno ki jan li gayi, iska hisab de sakte ho

  3. सबसे विकट समस्याओं से दो चार हो रहे आदिवासी…. हांलाकि आसाम, बिहार और झारखंड के कुछ प्रजाति आज सामाजिक व्यावहारिक रूप से उत्थानोन्मुख हैं पर यह काफी नहीं….
    अन्वेषण काफी सराहनीय है लेखक का…
    धन्यवाद अनिल अनूप जी…

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